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न्याय निर्णयन : औपनिवेशीकरण बनाम भारतीयकरण

संदर्भ

सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने ‘भारतीय कानूनी प्रणाली के औपनिवेशीकरण’ पर एक व्याख्यान के दौरान कानूनी प्रणाली के ‘भारतीयकरण’ की चर्चा करते हुए प्राचीन भारतीय  विधिवेत्ताओं के विचारों की उपेक्षा को लेकर खेद प्रकट किया।

न्याय निर्णयन का प्राचीन भारतीय मापदंड

  • उत्तरदायित्व का सिद्धांत कौटिल्य के अनुसार दंड न्यायसंगत और उचित होना चाहिये तथा किसी शीर्ष अधिकारी द्वारा गलत निर्णय करने पर उसे उत्तरदायी मानते हुए उचित कार्यवाही की जानी चाहिये। अतः उत्तरदायित्व में चूक होने पर जनता राजा से भी प्रश्न कर सकती थी।
  • न्यायालयों का पदानुक्रम बृहस्पति स्मृति के अनुसार, न्यायालयों का एक निश्चित पदानुक्रम था, इसमें सबसे निम्न संस्था पारिवारिक न्यायालय, फिर उच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायाधीश, इसके बाद मुख्य न्यायाधीश (प्रदीविवक या अध्यक्ष) होता था तथा राजा का दरबार सर्वोपरि होता था।
  • न्यायिक सर्वोच्चता कात्यायन के अनुसार ‘यदि राजा वादियों (विवादिनम) पर कोई अवैध या अधार्मिक निर्णय लेता है, तो यह न्यायाधीश (साम्य) का कर्तव्य है कि वह राजा को चेतावनी दे और उसे रोके’।
  • न्यायिक भ्रष्टाचार विष्णु संहिता के अनुसार ‘एक भ्रष्ट न्यायाधीश की पूरी संपत्ति को राज्य द्वारा जब्त कर लेना चाहिये’ तथा वाद के लंबित रहने के दौरान वादियों के साथ निजी तौर पर वार्तालाप न्यायिक कदाचार में शामिल था।

संविधान सभा में भारतीयकरण बनाम औपनिवेशीकरण की बहस

  • संविधान सभा की बैठकों में भारतीयता की दलील अत्यंत व्यापक थी। मैसूर से सदस्य के. हनुमंतैया ने औपनिवेशीकरण पर विचार व्यक्त करते हुए कहा कि “हम वीणा या सितार का संगीत चाहते थे, किंतु यहाँ हमारे पास एक अंग्रेजी बैंड का संगीत है”।
  • पंडित गोविंद मालवीय का सुझाव था कि संविधान की प्रस्तावना को “परमेश्वर, परम सत्, ब्रह्मांड के अधिपति की कृपा से...” शुरू किया जाए। महावीर त्यागी ने न केवल राजनीतिक स्वतंत्रता बल्कि ‘आध्यात्मिक स्वतंत्रता’ पर भी बल दिया।
  • लोकनाथ मिश्रा भी ‘हिंदू संस्कृति के पूर्ण विनाश’ के बारे में चिंतित थे, उनके अनुसार “यदि आप (संविधान सभा) धर्म को स्वीकार करते हैं, तो आपको हिंदू धर्म को स्वीकार करना चाहिये क्योंकि यह भारत में बहुमत के द्वारा माना जाता है”।
  • किंतु एच.वी. कामथ ने चेतावनी दी कि मध्य काल में यूरोप का इतिहास ‘रक्तरंजित’ रहा है। उन्होंने ‘चर्च और राज्य के मेल के हानिकारक प्रभाव’ को उद्धृत करते हुए कहा कि “यदि कोई राज्य अपनी पहचान का निर्धारण किसी धर्म विशेष से करता है, तो राज्य के भीतर अशांति आ सकती है”।
  • वस्तुतः यह सभी टिप्पणियाँ संविधान सभा की उस बहुआयामी दृष्टिकोण का प्रतीक हैं, जिसके आधार पर सदस्यों को विचार-विमर्श करने के लिये चुना गया था।
  • ‘भारतीयकरण’ की दलील की तुलना न केवल पश्चिमी उदार लोकतांत्रिक मूल्यों से की गई, बल्कि भारतीय परंपरा के सूक्ष्म आयामों के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए उन्हें संविधान में शामिल किया गया।

वैचारिक मतभेद और न्यायतंत्र

  • स्वतंत्रता सूचकांक, भुखमरी सूचकांक, प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक आदि में भारत का प्रदर्शन निम्न स्तर पर है, जो संवैधानिक उद्देश्यों की प्राप्ति पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। द न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा है कि ‘भारत में, धर्म परिवर्तन के खिलाफ कानूनों को भीड़-हिंसा का समर्थन है’।
  • दरअसल चुनिंदा कार्यवाहियों या कानूनी निष्क्रियता के कारण, अभद्र भाषा का प्रयोग मुखर अभिव्यक्ति का प्रमुख तरीका बन कर नागरिकों की गरिमा के हनन संबंधी विवाद को बढ़ा सकता है।
  • संविधान लोकतांत्रिक निरंकुशता के खिलाफ सबसे प्रभावी हथियार है, लेकिन किसी न्यायमूर्ति द्वारा न्यायव्यवस्था पर चोट करने वाला व्याख्यान संवैधानिक मूल्यों को बहाल करने वाले प्रयासों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
  • गौरतलब है कि न्यायमूर्ति ने व्याख्यान के दौरान औपनिवेशिक कानूनी व्यवस्था पर चोट करते हुए, राजद्रोह या अन्य कठोर दंडात्मक कानूनों की कमियों पर चर्चा नहीं की, जो कि मूलतः औपनिवेशिक कानूनों के ही अवशेष हैं।
  • ‘अपमानजनक न्यायिक समीक्षा: कोर्ट्स अगेंस्ट डेमोक्रेसी, 2019’ के अनुसार ‘कई देशों में, सत्तावादियों ने न्यायालयों को अन्यायपूर्ण संवैधानिक परिवर्तन के पक्ष में हथियार की तरह प्रयोग किया है, अतः लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण की व्यापक परियोजना में न्यायनिर्णयन की प्रक्रिया एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है’।

शक्तियों का पृथक्करण

  • न्यायपालिका और न्यायाधीशों के विचार में परिवर्तन एक मूलभूत कारक है जो न्यायपालिका और राज्य व्यवस्था की गुणवत्ता को निर्धारित करता है। न्यायिक एवं राजनीतिक विचारधारा के बीच सर्वोत्कृष्ट संबंधों की व्याख्या जे.ए.जी. ग्रिफ़िथ ने ‘द पॉलिटिक्स ऑफ़ द ज्यूडिशियरी’ में की है।
  • न्यायाधीशों को न्यायलय या उसके बाहर राजनीतिक परिस्थितियों से इतर वास्तविक स्थिति के आधार पर टिप्पणी करना चाहिये।
  • सत्ताप्रमुख की व्यक्तिगत प्रशंसा करने वाली न्यायाधीशों की कुछ टिप्पणियाँ हमारे लोकतंत्र के लिये शुभ नहीं हैं क्योंकि ये शक्तियों के पृथक्करण और अपेक्षित न्यायिक व्यवहार की संवैधानिक संकल्पना के अनुरूप नहीं हैं।

Source:

  1. The Hindu- Unfortunate ideological shift in the judiciary
  2. HC Allahabad website: Ancient pillars of Judicial System
  3. IGNOU Notes Unit 1: Kautilya for ‘Principle of accountability’
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