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क्यूराइल द्वीप विवाद

संदर्भ

हाल ही में, जापान ने अपनी ‘कूटनीतिक ब्लूबुक’ के नए संस्करण में क्यूराइल द्वीप समूह को रूस के ‘अवैध कब्जे’ के तहत वर्णित किया है। लगभग दो दशकों में यह पहली बार है जब जापान ने क्यूराइल द्वीप समूह विवाद का वर्णन करने के लिये इस वाक्यांश का उपयोग किया है। 

क्यूराइल द्वीप समूह

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  • ये चार द्वीपों का एक समूह है जो जापान के सबसे उत्तरी प्रांत ‘होक्काइडो’ (Hokkaido) के उत्तर में ओखोटस्क सागर और प्रशांत महासागर के बीच स्थित है। रूस  और जापान दोनों इन द्वीपों पर अपनी संप्रभुता का दावा करते हैं।
  • हालाँकि, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ये द्वीप रूसी नियंत्रण में हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में सोवियत संघ ने इन द्वीपों पर कब्जा कर लिया और वर्ष 1949 तक जापानी निवासियों को निष्कासित कर दिया था। जबकि टोक्यो का दावा है कि 19वीं सदी के प्रारंभ से ही ये द्वीप जापान का हिस्सा रहे हैं।

विवाद के कारण

  • जापान इन द्वीपों पर अपनी संप्रभुता की पुष्टि ‘शिमोडा संधि’ (1855), क्यूराइल- सखालिन की अदला-बदली के लिये ‘सेंट पीटर्सबर्ग की संधि’ (1875) और 1904-05 का रूस-जापान युद्ध के बाद हुई ‘पोर्ट्समाउथ संधि’ (1905) के द्वारा करता है। 
  • वहीं दूसरी ओर, रूस याल्टा समझौते (1945) और पॉट्सडैम घोषणा (1945) को अपनी संप्रभुता के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करता है। रूस का तर्क है कि वर्ष 1951 की सैन फ्रांसिस्को संधि के तहत जापान ने द्वीपों पर रूसी संप्रभुता को स्वीकार किया था। इस संधि के अनुच्छेद 2 के तहत जापान ने क्यूराइल द्वीप समूह के सभी अधिकार, शीर्षक और दावे को त्याग दिया था।
  • हालाँकि, जापान का तर्क है कि सैन फ्रांसिस्को संधि का उपयोग यहाँ नहीं किया जा सकता क्योंकि सोवियत संघ ने कभी भी शांति संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये। जापान ने यह मानने से भी इनकार कर दिया कि चार विवादित द्वीप वास्तव में क्यूराइल शृंखला का हिस्सा थे।
  • वस्तुतः जापान और रूस तकनीकी रूप से अभी भी युद्धरत हैं क्योंकि उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शांति संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। वर्ष 1956 में, जापानी प्रधानमंत्री की सोवियत संघ की यात्रा के दौरान यह सुझाव दिया गया था कि शांति संधि पर हस्ताक्षर होने के बाद चार में से दो द्वीप जापान को वापस कर दिये जाएँगे। 
  • हालाँकि लगातार मतभेदों के कारण शांति संधि पर हस्ताक्षर नहीं हुए। वहीं दोनों देशों ने जापान-सोवियत संयुक्त घोषणा पर हस्ताक्षर किये, जिसने दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंधों को बहाल किया। 
  • कालांतर में सोवियत संघ ने अपनी स्थिति सख्त कर ली, यहाँ तक ​​कि उसने यह मानने से इनकार कर दिया कि उसका जापान के साथ क्षेत्रीय विवाद मौजूद है। वर्ष 1991 में मिखाइल गोर्बाचेव की जापान यात्रा के दौरान सोवियत संघ ने माना कि द्वीप एक क्षेत्रीय विवाद का विषय थे।

विवाद अभी क्यों 

  • जापान संभवतः रूस-चीन गठबंधन से भयभीत है क्योंकि जापान के दोनों देशों के साथ ही क्षेत्रीय विवाद तथा एक असहज इतिहास रहा है।
  • जापान के पास वर्तमान समय में रूस को अलग-थलग करने और उसे अंतर्राष्ट्रीय कानून के आदतन अपराधी के रूप में चित्रित करने का यह एक अच्छा अवसर है।

द्वीपीय विवाद सुलझाने के प्रयास

  • वर्ष 1991 के बाद से विवाद को सुलझाने और शांति संधि पर हस्ताक्षर करने के कई प्रयास हुए हैं। सबसे हालिया प्रयास प्रधानमंत्री शिंजो आबे के कार्यकाल के दौरान किया गया जब विवादित द्वीपों के संयुक्त आर्थिक विकास पर चर्चा की गई।
  • वास्तव में, दोनों देश वर्ष 1956 के जापान-सोवियत संयुक्त घोषणा के आधार पर द्विपक्षीय वार्ता करने पर सहमत हुए थे। इस घोषणा के अनुसार शांति संधि के बाद रूस, जापान को दो द्वीप शिकोटन और हाबोमाई द्वीप वापस देने के लिये तैयार था। 
  • रूस के साथ संबंधों में सुधार करने के जापान के प्रयास ऊर्जा स्रोतों में विविधता लाने और रूस को अपना निर्यातक बनाने और विदेशी निवेश लाने की आवश्यकता से प्रेरित थे, लेकिन दोनों पक्षों की राष्ट्रवादी भावनाओं ने विवाद के समाधान को रोक दिया।

निष्कर्ष 

क्यूराइल द्वीप समूह पर जापान की नीति में बदलाव रूस के साथ द्विपक्षीय संबंधों को और नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा। साथ ही यह इसके दो पड़ोसियों चीन और रूस के एक साथ आने की संभावना को और आगे बढ़ाएगा।

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