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राजद्रोह कानून की प्रासंगिकता 

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : शासन व्यवस्था, संविधान, शासन प्रणाली, सामाजिक न्याय)

संदर्भ

हाल ही में, सर्वोच्च न्यायलय ने राजद्रोह कानून (Sedition Law) को निलंबित कर दिया है और केंद्र व राज्य सरकारों को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124ए के तहत राजद्रोह का कोई मामला दर्ज न करने का आदेश दिया है। इसने राजद्रोह के आरोपों से संबंधित लंबित मुकदमे, अपील और कार्यवाही को भी निलंबित कर दिया है। न्यायालय के अनुसार जिन लोगों पर राजद्रोह की धारा 124ए के तहत मामलें दर्ज हैं, वे राहत के लिये न्यायालय जा सकते हैं।

वर्तमान घटनाक्रम 

  • न्यायलय ने इस पर सरकार से जवाब मांगा है और सरकार को आई.पी.सी. की धारा 124ए के प्रावधानों पर समीक्षा की अनुमति भी दी। हालाँकि, राजद्रोह कानून की समीक्षा होने तक धारा 124ए के अंतर्गत न कोई मामला दर्ज किया जा सकता है और न ही इसमें कोई जांच की जा सकती है।
  • एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया और मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) एस.जी. वोम्बटकेरे द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि यह कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर 'नकारात्मक प्रभाव' डालता है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक अनुचित प्रतिबंध है, जोकि एक मौलिक अधिकार है।

देशद्रोह कानून : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

परिभाषा 

  • इस कानून का मसौदा वर्ष 1837 में ब्रिटिश इतिहासकार व राजनेता थॉमस बबिंगटन मैकाले ने तैयार किया था। इसके तहत राजद्रोह को परिभाषित किया गया था।
  • इसके अनुसार- 'यदि कोई भी, शब्दों द्वारा या तो मौखिक या लिखित या संकेतों के माध्यम से या दृश्य निरूपण द्वारा या अन्य प्रकार से भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा फैलाता है या उसकी अवमानना करता है या उत्तेजना व असंतोष को प्रेरित करता है या ऐसा करने का प्रयास करता है तो उस पर राजद्रोह का कानून आरोपित किया जा सकता है।

ब्रिटिशकालीन स्थिति 

  • मूल रूप से भारतीय दंड सहिंता, 1860 में राजद्रोह की धारा नहीं थी। मैकॉले के 1837 के मसौदे को वर्ष 1870 में संशोधन कर आई.पी.सी. में धारा 124ए के रूप में जोड़ा गया था। 
  • वर्ष 1898 में संशोधन के द्वारा 'असंतोष' शब्द को अधिक परिभाषित किया गया और इसमें 'विश्वासघात' और 'शत्रुता की भावना' को भी शामिल किया गया।
  • ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार द्वारा प्राथमिक तौर पर इसका प्रयोग प्रमुख भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के लेखन कार्यों और भाषणों को प्रतिबंधित करने के लिये किया गया था। 
  • इसके तहत महात्मा गांधी (वर्ष 1922), लोकमान्य तिलक (वर्ष 1898) और जोगेंद्र चंद्र बोस (वर्ष 1892) जैसे नेताओं पर ब्रिटिश शासन पर उनकी टिप्पणियों के लिये राजद्रोह कानून के तहत मुकदमा चलाया गया।

दंड की वर्तमान स्थिति 

  • धारा 124ए के अनुसार राजद्रोह एक गैर-जमानती अपराध है। इसमें जुर्माने के साथ तीन वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है। इस कानून के तहत आरोपित व्यक्ति को सरकारी नौकरी से भी वंचित कर दिया जाता है और सरकार उसका पासपोर्ट जब्त कर लेती है। 
  • उल्लेखनीय है कि यूनाइटेड किंगडम ने वर्ष 2010 में राजद्रोह को समाप्त कर दिया था। हालाँकि, इसके कुछ हिस्से राजद्रोह से संबंधित अन्य कानूनों में मौजूद हैं।

देशद्रोह पर विधि आयोग का विचार

  • भारत के विधि आयोग की वर्ष 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, संविधान सभा ने तत्कालीन अनुच्छेद 13 के तहत वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध के रूप में राजद्रोह को शामिल करने का विरोध किया था। 
  • आयोग के अनुसार लोगों को अपने तरीके से देश के प्रति स्नेह दिखाने के लिये स्वतंत्र होना चाहिये। सरकारी नीतियों की कमियों को उजागर करना, रचनात्मक आलोचना या बहस करना भी इसमें शामिल है।
  • आयोग के अनुसार धारा 124ए को केवल उन मामलों में लागू किया जाना चाहिये जहां किसी कार्य के पीछे की मंशा सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करना या हिंसा और अवैध साधनों से सरकार को अस्थिर करने की कोशिश करना है।
  • आयोग ने आई.पी.सी. (राजद्रोह) की धारा 124ए को न हटाने और 'राजद्रोह' शब्द को किसी अन्य उपयुक्त शब्द से प्रतिस्थापित करने का सुझाव दिया है। 
  • साथ ही, आयोग ने राजद्रोह एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच संतुलन स्थापित करने और राजद्रोह कानून के दुरुपयोग के खिलाफ उचित सुरक्षात्मक उपाय का भी आग्रह किया है।

सर्वोच्च न्यायालय का रुख

  • वर्ष 2021 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि राजद्रोह एक औपनिवेशिक कानून है और यह स्वतंत्रता का दमन करता है।
  • उनके अनुसार ‘आई.पी.सी. की इस धारा के अंतर्गत दोषसिद्धि की दर बहुत कम है और कार्यकारी एजेंसियों द्वारा इसका दुरुपयोग किया जाता है।
  • हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1962 के केदार नाथ सिंह बनाम बिहार सरकार मामले में आई.पी.सी. की धारा 124ए की संवैधानिकता को बरकरार रखा था। बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य (वर्ष 1995) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि बिना किसी विद्वेषपूर्ण इरादे के केवल ‘खालिस्तान जिंदाबाद’ जैसे नारे लगाना देशद्रोह नहीं है।
  • उल्लेखनीय है कि आई.पी.सी. की धारा 124ए को हटाने या उसमें संशोधन करने को लेकर संसद में विधेयक प्रस्तुत किये जा चुके हैं।

देश में राजद्रोह के मामलों की स्थिति 

  • राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB)- 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2018 में देशद्रोह के 70 मामले दर्ज किये गए किंतु किसी भी व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया गया।
  • वर्ष 2019 में 93 मामले दर्ज किये गए, जिसमें से केवल दो को दोषी ठहराया गया। वर्ष 2020 में दर्ज किये गए 73 मामलों में से किसी को भी देशद्रोह का दोषी नहीं पाया गया।
  • वर्ष 2020 में राजद्रोह के सर्वाधिक मामले मणिपुर (15 ) में दर्ज किये गये।

निष्कर्ष

विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के कारण भारत में वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। अतः देश विरोधी अभिव्यक्तियों/विचारों और सरकारी नीतियों के विरुद्ध अभिव्यक्तियों/विचारों में अंतर किया जाना आवश्यक है। जीवंत लोकतंत्र के लिये सार्वजनिक बहस आवश्यक तत्व है। अत: धारा 124ए का दुरुपयोग वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोकने के लिये नहीं किया जाना चाहिये। बदलती हुई परिस्थितियों में इसकी आवश्यकता की समीक्षा और राजद्रोह की परिभाषा में संशोधन की ज़रूरत है। साथ ही, इस तरह की गतिविधियों से निपटने के लिये ‘विधिविरूद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम’ (UAPA) जैसे क़ानूनों के प्रयोग पर भी विचार किया जा सकता है।

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