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कोरोना वायरस का पर्यावरण पर प्रभाव (Coronavirus Impact on Environment)

(मुख्या परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 3 : विषय- पर्यावरण प्रदूषण एवं क्षरण , पर्यावरण प्रभाव का आकलन)

वैश्विक स्तर पर महामारी फैलने के मात्र कुछ महीनों के भीतर ही दुनिया की स्थिति बदल गई है। दिसम्बर 2019 में वुहान में महामारी की शुरुआत के बाद से अब तक लाखों लोगों कि मृत्यु हो चुकी है और लाखों लोग अभी भी इस महामारी से ग्रस्त हैं। एक अध्ययन के अनुसार विश्व की लगभग 70-80% आबादी के इस महामारी के चपेट में आने की सम्भावना है। इस बीमारी से बचने के लिये पूरे विश्व में अपनाए जा रहे सुरक्षा उपायों की वजह से सभी लोगों के जीने का तरीका पूर्णतः बदल गया है। अगर पर्यावरण की बात करें तो वैश्विक स्तर पर भी बहुत सुधार देखा जा सकता है। महामारी से जुड़े तमाम नकारात्मक तथ्यों के बीच में ये कुछ सकारात्मक बात सामने आई है।

  • चीन में, वर्ष की शुरुआत में प्रदूषित गैसों का उत्सर्जन 25% गिर गया था क्योंकि लोगों को घर पर रहने का निर्देश दिया गया था, कारखाने बंद हो गए थे और चीन के छह सबसे बड़े बिजली संयंत्रों में 2019 की अंतिम तिमाही के बाद से कोयले का उपयोग 40% तक गिर गया था। चीन के 337 शहरों में पिछले वर्ष के अनुपात में इस वर्ष, उन दिनों की संख्या 11.40 % बढ़ गई थी जब हवा की गुणवत्ता बहुत अच्छी थी।
  • यूरोप में, उपग्रह से प्राप्त चित्रों द्वारा उत्तरी इटली में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (NO2) का उत्सर्जन बहुत कम हो गया है। स्पेन और ब्रिटेन में भी कमोबेश यही स्थिति देखी गई है।
  • जीवाश्म ईंधन उद्योग से उत्सर्जित कार्बन की मात्रा में इस वर्ष रिकॉर्ड 2.5 बिलियन टन की गिरावट देखी जा सकती है, क्योंकि कोरोनोवायरस महामारी की वजह से वैश्विक स्तर पर जीवाश्म ईंधन की माँग में बहुत ज्यादा कमी आई है।
  • भारत सरकार द्वारा संचालित सिस्टम ऑफ़ एयर क्वालिटी एंड वेदर फोरकास्टिंग एंड रिसर्च- SAFAR के अनुसार , COVID-19 के लिये किये गए लॉकडाउन जैसे उपायों के कारण दिल्ली में PM2.5 (सूक्ष्म पार्टिकुलेट मैटर) के उत्सर्जन में 30% की गिरावट आई है।
  • वायुमंडल में नाइट्रोजन-डाइऑक्साइड के स्तर में लगभग 40% की कमी आई है।
  • नदियों के पानी की गुणवत्ता में व्यापक रूप से सुधार हुआ है, जिसमें गंगा और यमुना दोनों शामिल हैं, जो कि बहुत ही खराब स्थिति में थीं। इसके दो कारण हैं -
  1. पानी की माँग बहुत कम हो गई है क्योंकि उद्योग-धंधे अभी बंद होने की वजह से पानी का उपयोग नहीं कर रहे हैं, और
  2. क्योंकि सभी उद्योग बंद चल रहे हैं अतः उनके द्वारा जहरीला अपशिष्ट भी नदी निकायों में गिराया नहीं जा रहा है।
  • बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के अनुसार, 2019 से राजहंसों के प्रवास में 25% की वृद्धि हुई है। इसके आलावा भी विभिन्न क्षेत्रों से तमाम पक्षियों के दिखने एवं उनकी संख्या में बढ़ोत्तरी की खबरें हाल के दिनों में सुनाई दी हैं।

पर्यावरणीय प्रभाव से जुड़े विभिन्न कारक

यात्रा सम्बंधी रोक :

महामारी के दौरान कई देशों में लॉकडाउन एवं कम यात्राओं की वजह से उत्सर्जन में काफी कमी देखी गई है, जो भविष्य के साथ और कम  होगी। लेकिन अंततः रोक जब हटाई जाएगी है, तो सम्भव है कि स्थिति ऐसी ना रहे। विदित है कि नियमित रूप से यात्रा करने वाले लोगों की वजह से बड़ी मात्रा में प्रदूषण होता है अतः प्रदूषक गैसों का उत्सर्जन उसी मात्रा में शुरू हो सकता है यदि लोग अपनी पुरानी दिनचर्या पर वापस लौट आएँ। इसके आलावा जब ऑफिस/कार्यालय आदि खुलेंगे और लोग पूर्ववत नौकरी पर जाने लगेंगे तो प्रदूषण पुनः उच्च स्तर पर चले जाने की सम्भावना है।

ऐतिहासिक महामारी :

अगर ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो पूर्व में भी कई बार महामारी कि वजह से हनिकारक गैसों का उत्सर्जन कम हुआ है। औद्योगिक क्रांति के समय भी जब महामारी फैली थी तब भी ऐसा ही देखा गया था, यह पहली बार नहीं है।

  • 14 वीं शताब्दी में यूरोप में काली मृत्यु (Black Death) जैसी महामारी हो या 16 वीं शताब्दी में स्पेनिश विजेताओं द्वारा दक्षिण अमेरिका में लाई गई चेचक जैसी महामारी, दोनों की वजह से वायुमंडलीय कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन के स्तरों में कमी देखी गई थी।
  • अध्ययनों में यह पाया गया है कि इन बीमारियों की वजह से हुई मौतों के बाद खेतिहर भूमि का बड़ा हिस्सा ऐसे ही खुला छूट गया था जिसने बड़ी मात्रा में कार्बन डाई ऑक्साइड के लिये सिंक का काम किया था।

आज के समय में यह अंतर मुख्यतः औद्योगिक व व्यावसायिक गतिविधियों के बंद होने की वजह से आया है। ध्यातव्य है कि औद्योगिक प्रक्रियाओं, विनिर्माण और निर्माण का संयुक्त उत्सर्जन, वैश्विक मानव-जनित उत्सर्जन का 18.4% है। 2008-09 की वैश्विक मंदी के परिणामस्वरूप समग्र उत्सर्जन में 1.3% गिरावट आई थी। लेकिन वर्ष 2010 तक यह स्थिति बदल गई क्योंकि अर्थव्यवस्थाएँ पुनः मज़बूत हो गई थीं और उत्सर्जन पुनः उच्च स्तर पर पहुँच गया था।

स्वास्थ्य प्रणाली:

  • जलवायु परिवर्तन सहित स्वास्थ्य सुरक्षा खतरों से देश को सुरक्षित रखने के लिये एक मज़बूत स्वास्थ्य कार्यबल के साथ ही एक सु-विकसित स्वास्थ्य प्रणाली भी आवश्यक है।
  • वैश्विक स्तर पर भी अनेक देशों को उनकी राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणालियों में बड़े स्तर पर बदलाव की आवश्यकता है।
  • उदाहरण के लिये, ईरान में COVID-19 के प्रकोप के शुरुआती चरणों में कई स्थानीय लोगों की जान बचाई जा सकती थी, यदि स्वास्थ्य प्रणाली को भविष्य की आकस्मिक आपदा के लिये बेहतर तरीके से तैयार किया गया होता।

समाज में असमानता :

  • लोगों के कुशल स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने में असमानता एक प्रमुख बाधा है। उदाहरण के लिये नए कोरोनावायरस का खतरा शहरों में औसतन ज्यादा है लेकिन प्रदूषण से सबसे अधिक प्रभावित मलिन बस्तियों में रहने वाले दिहाड़ी मजदूर/कामगार/बेगार लोग हैं।
  • जहाँ शहर में लोग तमाम सुविधाओं के साथ जीवन यापन करते हैं वहीं मलिन बस्तियों में न सिर्फ ईंधन की दिक्कत होती है बल्कि मल-मूत्र त्याग करने से लेकर सफाई तक की अनेक दिक्कतें आती हैं। उदाहरण के लिये एशिया की सबसे बड़ी मलिन बस्ती कही जाने वाली मुम्बई की धारावी बस्ती में स्वास्थ्य सुविधाओं और सफाई की बड़े स्तर पर दिक्कत है तथा इस वजह से यह क्षेत्र कोरोना जैसी संक्रामक महामारी के लिये सबसे ज्यादा सुभेद्य है।

आदतों में बदलाव:

  • अक्सर परिवर्तन का समय कई स्थाई आदतों की शुरूआत का कारण बन सकता है और समाज में ऐसी कई आदतों को जन्म हो सकता है जो संयोग से जलवायु के लिये अच्छी हैं जैसे कम यात्रा करना या भोजन की बर्बादी कम करना या सफाई से रहना आदि।
  • यदि ग्रामीण स्तर पर देखा जाए तो कई समुदायों ने आगे आकर एक दूसरे को स्वास्थ्य संकट से बचाने के लिये बड़े कदम उठाए हैं। एक दूसरे से दूर रहकर भी सामुदायिक एकीकरण को इस महामारी के दौरान एक नया आयाम मिला है।

निष्कर्ष :

बड़े स्तर पर मृत्यु के आँकड़ों के अलावा इस महामारी की वजह से लाखों लोगों की नौकरियां जा चुकी हैं बहुत से व्यवसाय प्रतिबंध की वजह से पूर्णतः बंद हैं। आर्थिक गतिविधियाँ ठप हो गई हैं और कार्बन उत्सर्जन के साथ-साथ शेयर बाज़ारों में भी भारी गिरावट दर्ज की गई है। दशकों से इस सम्बंध में बात की जा रही थी लेकिन बहुत ही कम देश पर्यावरण को लेकर वास्तविकता में गम्भीर थे। यह सम्पूर्ण मानव जाति के लिये सचेत होने का और जागने का समय है यदि हम अब नहीं चेते तो भविष्य में स्थितियाँ बहुत गम्भीर हो सकती हैं।

आगे की राह :

  • पर्यावरण को विकास की राह में बाधा मानकर कभी भी कार्य नहीं करना चाहिये। सतत विकास की अवधारणा को मानक मानकर समाज को आगे बढ़ना चाहिये।
  • हमें प्राकृतिक संसाधनों के सम्मान और इनके संरक्षण के लिये एक व्यवस्थित रणनीति बनाने की आवश्यकता है।
  • जीवाश्मों पर निर्भरता को कम करने और नवीकरणीय ऊर्जा की ओर बढ़ने एवं ऊर्जा हस्तांतरण के नए तरीकों के विकास के लिये रणनीति बनाना अति आवश्यक है।
  • सतत विकास के लिये स्वच्छ ऊर्जा के विकल्पों के प्रति सरकार को उन्नत योजनाएँ बनाने के लिये और लोगों में इनके प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिये गम्भीर कदम उठाने होंगे।


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