सोवा-रिग्पा तिब्बत की प्राचीन चिकित्सा पद्धति है। इसे 'मेन सी खांग' और 'आमची' पद्धति के नाम से भी जाना जाता है। सोवा रिग्पा के अधिकांश सिद्धांत एवं अभ्यास ‘आयुर्वेद’ के समान हैं। इस चिकित्सा का मौलिक ग्रंथ ग्युद-जी (चार तंत्र) को माना जाता है। भारत सरकार द्वारा सितंबर 2010 में इस पद्धति को मान्यता प्रदान की गई थी।
इसमें उपचार के लिये जड़ी-बूटियों का प्रयोग किया जाता है। इस पद्धति से लगभग प्रत्येक बीमारी का इलाज किया जाता है। इसमें रोग को जड़ से खत्म करने का प्रयास किया जाता है, जिससे उपचार लंबा चलता है। मेडिटेशन भी इसका एक हिस्सा है।
इसमें नब्ज, जीभ, आँखों, यूरिन टेस्ट व मरीज़ से बातचीत के आधार पर रोग का पता लगाया जाता है। आयुर्वेद की तरह इस पद्धति में भी तीन दोषों को माना जाता है, जिन्हें लूंग, खारिसपा और बैडकन कहते हैं।
इसमें रोग के उपचार हेतु दी जाने वाली औषधि मुख्यतः हिमालय क्षेत्र में उगने वाली जड़ी-बूटियों के अर्क से तैयार होती है। कैंसर, डायबिटीज़, हृदय रोगों और आर्थराइटिस जैसी गंभीर बीमारियों में इनका अधिक प्रयोग होता है। कुछ औषधियों में सोना-चांदी और मोतियों की भस्म भी मिलाई जाती है।
हाल ही में, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) द्वारा निर्दिष्ट डिग्री के तहत 'बैचलर ऑफ सोवा रिग्पा मेडिसिन एंड सर्जरी' (BSRMS) को मान्यता प्रदान की गई है। विदित है कि वर्तमान में केवल दो डीम्ड विश्वविद्यालय; केंद्रीय बौद्ध अध्ययन संस्थान, लेह और केंद्रीय उच्च तिब्बती अध्ययन संस्थान, सारनाथ ही सोवा रिग्पा चिकित्सा में डिग्री प्रदान कर रहे हैं।