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प्राकृतिक पोषक

संदर्भ

  • वर्ष 1990 के दशक के उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण सुधारों ने देश के कृषि क्षेत्र को भी प्रभावित किया। उच्च उत्पादन लागत, ऋण दरों, अस्थिर बाजार कीमतों और जीवाश्म ईंधन आधारित आदानों के कारण कर्ज में डूबे छोटे किसानों और कृषि श्रमिकों के लिये बीज, इनपुट्स और बाजार तक पहुँच में कमी आई है।
  • इसलिये, वर्ष 2000 के दशक की शुरुआत में भारत ने रासायनिक मुक्त जैविक खेती और शून्य बजट प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना शुरू किया। इससे मिट्टी की उर्वरता में सुधार होता है। हालाँकि कृषि उपज पर इनके प्रभाव संबंधी विचार परस्पर विरोधी है।

उत्पादकता बढ़ाने हेतु सुझाव 

  • इस समस्या का समाधान करने और उत्पादकता बढ़ाने के लिये कृषि क्षेत्र सूक्ष्मजीवों के प्रयोग को बढ़ावा दे सकता है। वैज्ञानिक अनुसंधान से पता चलता है कि जीवाणु, कवक और शैवालों के रचनात्मक और लागत प्रभावी उपयोग से भी फसल की पैदावार पर सकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। सूक्ष्मजीवों का प्रयोगशाला में संवर्धित जैव उर्वरकों, बायोस्टिमुलेंट्स और जैव कीटनाशकों के रूप में उपयोग किया जा सकता है।
  • मिट्टी में कई तरह के प्राकृतिक रोगाणु पाए जाते हैं, जो पौधों की जैव उर्वरक को अवशोषित और संशोधित करने में मदद करते हैं। प्लांट साइंस स्टडी के अनुसार, ये पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि करके उपज में 10-25% की वृद्धि करते हैं।

जैव-उर्वरक की उपयोगिता 

  • जैव-उर्वरक पेड़ों की जड़ों को समृद्ध बनाते हैं और कार्बनिक पदार्थों को विघटित करते हैं। वे मिट्टी में वायुमंडलीय नाइट्रोजन और फसलों की जड़ों को मज़बूती प्रदान करके हार्मोन एंटीमेटाबोलाइट्स का उत्पादन करने में मदद करके ऐसा करते हैं। वे मिट्टी की परतों से फॉस्फेट का परिमार्जन करते हैं और उसे घुलनशील बनाते हैं। साथ ही ये मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में मदद करते हैं।
  • नाइट्रोजन-स्थिरीकरण के लिये जैव-उर्वरक के रूप में तीन जीवाणुओं का उपयोग किया जाता है। इनमें सबसे अधिक प्रचलित राइजोबियम है, जो फलीदार फसलों में सबसे बेहतर तरिके से कार्य करता है।
  • दूसरी ओर, एज़ोस्पिरिलम का उपयोग ऊँचाई वाले पौधों या मोटे अनाज जैसे- ज्वार, मक्का, बाजरा और चारा घास में किया जाता है। एक अन्य सामान्य मृदा जीवाणु एज़ोटोबैक्टर है। मृदा में अक्रोकोकम प्रजाति व्यापक रूप में पाई जाती है।
  • नील हरित शैवाल जैसे- टॉलीपोथ्रिक्स, नॉस्टिक, स्किज़ोथ्रिक्स, कैलोथ्रिक्स, एनोबोनोइसिस और पेलेटोनिमा का भी जैव उर्वरक के रूप में उपयोग किया जाता है। जैव उर्वरक के रूप में संवर्धित किये जा रहे कुछ रोगाणुओं का उपयोग जैव उत्तेजक के रूप में भी किया जा सकता है।
  • माइक्रोबियल बायोस्टिमुलेंट्स में एज़ोटोबैक्टर, राइज़ोबियम और एज़ोस्पिरिलम बैक्टीरिया और यहाँ तक ​​कि माइकोरिज़ल कवक की एक या कई प्रजातियाँ शामिल हो सकती हैं।
  • बायोस्टिमुलेंट्स के उपयोग और प्रगति से पता चलता है कि इनके नकारात्मक प्रभाव भी हो सकते हैं। इसलिये, भारत और यूरोपीय संघ के देशों ने ‘सकारात्मक’ और ‘नकारात्मक’ माइक्रोबियल बायोस्टिमुलेंट की सूची विकसित की है। भारत में इस प्रकार की सूचियाँ CIBRC (Central Insecticide Board and Registration Committee) और DPPQS (Directorate of Plant Protection, Quarantine & Storage) द्वारा बनाई जाती है। 
  • सूक्ष्मजीव भी रासायनिक कीटनाशकों का एक हरित विकल्प हैं। भारत केवल दुनिया में कीटनाशकों के सबसे बड़े उपभोक्ताओं में से एक है, बल्कि उनके उत्पादन में भी 12वें स्थान पर है।

उपयोग को बढ़ावा देना 

  • हालाँकि कृषि क्षेत्र में जीवाणुओं का विभिन्न प्रकार से उपयोग किया जाता हैं, तथापि इनके प्रचार में बाधाएँ आती है, क्योंकि इनका विभिन्न प्रकार की जलवायु और मिट्टी में भिन्न प्रभाव दिखाई देता है।
  • हाल के वर्षों में शोधकर्ताओं ने उत्पादन में सुधार के लिये लाभकारी जीवाणुओं के कृत्रिम समुदायों का गठन किया है। इसके अलावा, जैविक और प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिये मौजूदा राष्ट्रीय योजनाओं में माइक्रोबियल इनोकुलेंट्स के उपयोग को बढ़ावा देने के उपायों पर भी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिये।
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