शॉर्ट न्यूज़: 15 जून, 2022
चीता पुनर्वास के प्रयास
नोरो वायरस
ऑस्ट्रेलिया एवं अमेरिका से प्राप्त हुई प्राचीन मूर्तियां
चीता पुनर्वास के प्रयास
चर्चा में क्यों
केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार, भारत इस वर्ष अगस्त तक दक्षिण अफ्रीका से मध्य प्रदेश के कुनो-पालपुर राष्ट्रीय उद्यान में चीतों को लाने की तैयारी कर रहा है। इसके लिये राष्ट्रीय उद्यान में 10 वर्ग किमी. का घेरा तैयार किया गया है।
प्रमुख बिंदु
- इसे भारत में किसी बड़े माँसाहारी जीव का पहला अंतर-महाद्वीपीय स्थानांतरण माना जा रहा है। हालाँकि, स्वतंत्र भारत में विशेष रूप से चिड़ियाघरों के लिये चीतों का कम संख्या में लाया जाता रहा है।
- चीता, भारत से विलुप्त होने वाला एकमात्र बड़ा मांसाहारी जीव है। इसकी विलुप्ति का मुख्य कारण अवैध शिकार तथा वासस्थान की क्षति है। जलवायु परिवर्तन और बढ़ती मानव आबादी ने इस समस्या को और अधिक बढ़ा दिया है।
- भारत सरकार ने वर्ष 1952 में आधिकारिक तौर पर चीता को विलुप्त घोषित कर दिया था।
मानसोल्लास
- भारत में चीतों के शिकार का सर्वप्रथम उपलब्ध रिकॉर्ड 12वीं शताब्दी के संस्कृत साहित्य ‘मानसोल्लास’ (Manasollasa) में मिलता है।
- इसे ‘अभिलाषितार्थ चिंतामणि’ के नाम से भी जाना जाता है। इसकी रचना कल्याणी चालुक्य शासक सोमेश्वर III ने की थी।
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वैश्विक स्थिति
- वर्तमान में चीतों की दो मान्यता प्राप्त उप-प्रजातियाँ- एशियाई चीता (Acinonyx jubatus venaticus) और अफ्रीकी चीता (Acinonyx jubatus jubatus) मौजूद हैं। यह प्रजाति मुख्यत: अफ्रीका के सवाना में पाई जाती है।
- चीता को 1 जुलाई, 1975 से ‘लुप्तप्राय वन्यजीव एवं वनस्पति प्रजाति अंतर्राष्ट्रीय व्यापार अभिसमय’ (CITES) के परिशिष्ट-I के तहत संरक्षित किया गया है, अर्थात् वाणिज्यिक प्रयोग के लिये इसका अंतर्राष्ट्रीय व्यापार निषिद्ध है।
- चीता को आई.यू.सी.एन. (IUCN) की लाल सूची में सुभेद्य (Vulnerable) के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
चीते पुनर्वास के लाभ
- चीतों के संरक्षण से घास के मैदानों और उनके पारिस्थितिक तंत्र (बायोम एवं आवास) को पुनर्जीवित करना।
- एक प्रजाति के रूप में चीता संरक्षण की दिशा में वैश्विक प्रयास में योगदान करना।
- आसपास के स्थानीय समुदायों की आजीविका के विकल्प पैदा होंगे और उनके जीवन स्तर में वृद्धि।
- इकोटूरिज्म और संबंधित गतिविधियों को बढ़ावा।
चिंताएँ
- भारत के पारिस्थितिकी तंत्र में उसके व्यवहार का अध्ययन करना।
- जलवायु के अनुकूल सामंजस्य स्थापित करना।
नोरो वायरस
संदर्भ
हाल ही में, केरल के एक प्राथमिक विद्यालय में मिड-डे-मील के कारण दो छात्रों में नोरोवायरस से संक्रमित होने के मामले सामने आए हैं।
नोरोवायरस
- नोरोवायरस एक अत्यधिक संक्रामक वायरस है जिसे कभी-कभी 'स्टमक फ्लू' या 'विंटर वोमिटिंग बग' के रूप में भी जाना जाता है।
- इस वायरस का संक्रमण दूषित भोजन, जल और सतहों के माध्यम से होता है। इस वायरस का प्राथमिक मार्ग मौखिक-मल (Oral Faecal) है।
ओरल-फेकल रूट (Oral-Faceal Route)
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ओरल-फेकल रूट, किसी बीमारी के संचरण में उस विशेष मार्ग का वर्णन करता है जिसमें संक्रमित व्यक्ति का दूषित मल किसी अन्य व्यक्ति द्वारा निगला जाता है।
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- यह डायरिया-उत्प्रेरण रोटावायरस के समान है और सभी आयु समूहों के लोगों को संक्रमित करता है। इस रोग का प्रकोप आमतौर पर क्रूज जहाजों पर, नर्सिंग होम, डॉर्मिटरी और अन्य बंद स्थानों में होता है।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, नोरोवायरस संक्रमण आंतों की सूजन एवं कुपोषण से संबंधित है। प्रतिवर्ष नोरोवायरस से संक्रमित होने वालों की संख्या के लगभग 685 मिलियन हैं, जिसमें 5 वर्ष से कम उम्र के लगभग 200 मिलियन बच्चे शामिल हैं।
- एक व्यक्ति कई बार नोरोवायरस से संक्रमित हो सकता है क्योंकि वायरस के अलग-अलग प्रकार होते हैं। नोरोवायरस कई कीटाणुनाशकों के लिये प्रतिरोधी है और 60 ℃ तक तापमान सहन कर सकते हैं। इसलिये, केवल भोजन को भाप देने या पानी को क्लोरीनेट करने से वायरस नष्ट नहीं होते हैं। यह वायरस कई आम हैंड सैनिटाइज़र से भी बच सकता है।
लक्षण
- इस वायरस के शुरुआती लक्षण उल्टी या दस्त हैं, जो वायरस के संपर्क में आने के एक या दो दिन बाद दिखाई देते हैं।
- मरीजों को मिचली भी आती है और पेट दर्द, बुखार, सिरदर्द एवं शरीर में दर्द होता है। चरम स्थिति में, तरल पदार्थ के नुकसान से निर्जलीकरण भी हो सकता है।
सावधानियाँ
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- बार-बार साबुन से हाथ धोना
- खाना खाने या बनाने से पहले हाथों को सावधानी से धोना
- संक्रमित लोगों को दूसरों के संपर्क में आने से बचना
- लक्षणों के बंद होने के दो दिन बाद तक दूसरों के लिये खाना बनाने से बचना
- सतहों को हाइपोक्लोराइट के घोल से कीटाणुरहित करना
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उपचार
- सामान्यतः इसका संक्रमण दो या तीन दिनों तक रहता है तथा अधिकांश व्यक्ति, जो बहुत बूढ़े या कुपोषित नहीं हैं, वे पर्याप्त आराम और जलयोजन के साथ इस संक्रमण से मुक्त हो सकते हैं।
- निदान रीयल-टाइम रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन-पोलीमरेज़ चेन रिएक्शन द्वारा किया जाता है। हालाँकि वर्तमान में इस रोग का कोई टीका उपलब्ध नहीं है।
- इसके तीव्र चरण में जलयोजन बनाए रखना महत्त्वपूर्ण है। चरम स्थिति में, रोगियों को अंतःस्रावी रूप से पुनर्जलीकरण तरल पदार्थ देने की आवश्यकता होती है।
ऑस्ट्रेलिया एवं अमेरिका से प्राप्त हुई प्राचीन मूर्तियां
चर्चा में क्यों
हाल ही में ऑस्ट्रेलिया और संयुक्त राज्य अमेरिका से तमिलनाडु के दस पुरावशेषों (मूर्तियों) को प्राप्त किया गया है।
प्राप्त की गई कुछ प्रमुख मूर्तियाँ
- वर्ष 2020 में ऑस्ट्रेलिया से द्वारपाल नामक पत्थर की मूर्ति प्राप्त हुई, जो 15वीं-16वीं शताब्दी की विजयनगर काल की मूर्ति है। यह मूर्ति एक हाथ में गदा पकड़े हुए है और एक पैर उसके घुटने के स्तर तक उठा हुआ है। विदित है कि वर्ष 1994 में तिरुनेवेली के मूंदरीश्वरमुदयार मंदिर से इस मूर्ति को चुरा लिया गया था।
- वर्ष 2021 में अमेरिका से नटराज की मूर्ति प्राप्त की गई। इसमें शिव का चित्रण त्रिभंग मुद्रा में है जो कमल के आसन पर खड़े हैं। 11वीं-12वीं शताब्दी की इस मूर्ति को वर्ष 2018 में तंजावुर के पुन्नैनल्लुर अरुलमिगु मरियम्मन मंदिर से चुराया गया था।
- वर्ष 2021 में अमेरिका से प्राप्त कंकलामूर्ति मूर्ति में भगवान शिव और भैरव के भयावह रूप को दर्शाया गया है। यह मूर्ति चार भुजाओं वाली है जिसमें ऊपरी हाथों में डमरू और त्रिशूल है। यह 12वीं-13वीं शताब्दी की मूर्ति है, जो 1985 में नरसिंगनधर स्वामी मंदिर, तिरुनेलवेली से चोरी हो गई थी।
- वर्ष 2021 में अमेरिका से नंदिकेश्वर की एक कांस्य प्रतिमा प्राप्त की गई, जो कि 13वीं शताब्दी की एक मूर्ति है। यह मूर्ति त्रिभंग मुद्रा में है, जो हाथ जोड़कर खड़ी है।
- चार भुजाओं वाले विष्णु की मूर्ति को वर्ष 2021 में अमेरिका से प्राप्त किया गया, जो 11वीं सदी के चोल काल से संबंधित है। इस मूर्ति में भगवान विष्णु एक पद्मासन पर खड़े हैं जिसमें दो हाथों में शंख और चक्र हैं जबकि निचला दाहिना हाथ अभय मुद्रा में है।
- स्टैंडिंग चाइल्ड सांबंदर नामक इस मूर्ति को वर्ष 2022 में ऑस्ट्रेलिया से प्राप्त किया गया। 7वीं शताब्दी के लोकप्रिय बाल संत- सांबंदर दक्षिण भारत के तीन प्रमुख संतों में से एक हैं। यह 11वीं शताब्दी की मूर्ति है। यह मूर्ति संत के बाल-समान गुण को प्रदर्शित करने के साथ ही उसे एक आध्यात्मिक नेता की परिपक्वता के साथ प्रस्तुत करती है। इसे 1965-75 के बीच सयावनेश्वर मंदिर, नागपट्टिनम से चुराया गया था।