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भारतीय चिकित्सा शिक्षा में सुधार

(प्रारंभिक परीक्षा : आर्थिक-सामाजिक विकास, सतत् विकास, गरीबी, समावेशन, जनसांख्यिकी, सामाजिक क्षेत्र में की गई पहलें इत्यादि)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 : स्वास्थ्य से संबंधित सामाजिक क्षेत्र या सेवाओं के विकास और प्रबंधन से संबंधित मुद्दे; सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 3 : आपदा प्रबंधन से संबंधित विषय)

संदर्भ

भारत वर्तमान में गंभीर स्वास्थ्य संकट के दौर से गुजर रहा है। इन संकटों से निपटने के लिये हमें अपनी स्वास्थ्य प्रणाली को मज़बूत करना अति आवश्यक है।

मानव संसाधन की कमी

  • ‘मानव संसाधन’ स्वास्थ्य प्रणाली का महत्त्वपूर्ण घटक है। कुछ उत्तरी राज्यों में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, विशेषकर डॉक्टरों की गंभीर कमी स्वास्थ्य संबंधी सतत् विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में एक बड़ी बाधा है।
  • स्वास्थ्य कार्यकर्ता न केवल स्वास्थ्य प्रणाली के सुचारू संचालन में, बल्कि कोविड-19 जैसी अनपेक्षित बीमारियों से उत्पन्न खतरों को नियंत्रित करने, उनका पता लगाने और उनका उपचार करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।India is currently undergoing a serious health crisis. To deal with these crises, we need to strengthen our health system.
  • ऐसे में, यदि मानव संसाधन की कमी को पूरा करने के लिये तत्काल कदम नहीं उठाए गए, तो भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली और अधिक कमज़ोर हो जाएगी।
  • देश में ‘डॉक्टर-जनसंख्या अनुपात’ अत्यंत दयनीय स्थिति में है। उदाहरणार्थ, उत्तरी राज्यों में यह अनुपात आवश्यक मानदंड से बहुत कम है, जबकि तेलंगाना को छोड़कर शेष दक्षिणी राज्यों में डॉक्टरों की पर्याप्त संख्या मौजूद है। इसके अलावा, ग्रामीण क्षेत्रों में भी स्वास्थ्य कर्मियों का नितांत अभाव है। 

सरकार का दृष्टिकोण

  • चिकित्सा शिक्षा के प्रति सरकार द्वारा बाज़ारोन्मुख दृष्टिकोण अपनाए जाने से स्वास्थ्य क्षेत्र में उपस्थित चुनौतियों में काफी हद तक कमी आएगी। उत्तर भारत में योग्य डॉक्टरों की कमी को पूरा करने के लिये चिकित्सा शिक्षा को बढ़ावा दिये जाने की आवश्यकता है।
  • हालाँकि नीति आयोग ने सुझाव दिया था कि निजी अस्पतालों को ज़िला अस्पताल का आधा हिस्सा देकर उन्हें शिक्षण अस्पतालों में परिवर्तित कर दिया जाना चाहिये तथा उसमें कम से कम 150 एम.बी.बी.एस. सीटें आवंटित की जानी चाहियें। यद्यपि यह सुझाव आकर्षक था किंतु इसके साथ विभिन्न चिंताएँ भी जुड़ी थीं, इसलिये इसे गंभीरतापूर्वक नहीं लिया गया। 

पी.पी.पी. मॉडल आधारित चिकित्सा शिक्षा का विकल्प

  • चिकित्सा शिक्षा में पी.पी.पी. मॉडल के समावेशन से इसके निजीकरण को प्रोत्साहन मिलेगा। इससे स्वास्थ्य प्रक्रियाओं के निगमीकरण में वृद्धि होगी।
  • सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली बेशक कम संसाधनों की समस्या से जूझ रही है, लेकिन इसे पी.पी.पी. मॉडल आधारित बनने से यह और अधिक क्षतिग्रस्त हो जाएगी। अभी जो सार्वजनिक अस्पताल गरीबों की स्वास्थ्य समस्या सुलझाने के अंतिम उपाय माने जाते हैं, यह स्थिति बदल जाएगी।
  • चिकित्सा शिक्षा का निगमीकरण स्वास्थ्य सेवाओं को बहुत महँगा बना देगा तथा स्वास्थ्य क्षेत्र में मानव संसाधन की कमी को पूरा करने की दृष्टि से भी यह वांछित परिणाम नहीं दे सकेगा।
  • निजी संस्थान चिकित्सा शिक्षा को एक व्यवसाय के रूप में देखते हैं। अतः यह बड़ी संख्या में चिकित्सा उम्मीदवारों के लिये दरवाजे बंद कर देगा क्योंकि वे वित्त की कमी के कारण इन संस्थान में दाखिला नहीं ले सकेंगे।
  • इसके अतिरिक्त, इन चिकित्सा शिक्षण संस्थानों से पासआउट होने वाले मेडिकल स्नातक अपने निवेश को पुनः प्राप्त करने के लिये ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं, बल्कि शहरी क्षेत्रों में स्थित अस्पतालों में रोज़गार को प्राथमिकता देंगे। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्यकर्मियों की कमी की समस्या जस-की-तस बनी रहेगी।
  • अतः यह विकल्प भारत की ‘सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल और स्वास्थ्य समानता’ सुनिश्चित करने की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के लक्ष्यों के अनुरूप नहीं है।

आगे की राह

  • डॉक्टर की कमी को दूर करने के लिये एक दीर्घकालिक सोच और राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाने की आवश्यकता है। सरकार को सार्वजनिक-निजी-भागीदारी (PPP) के अपने पिछले अनुभवों से सीखना चाहिये, जिसमें सरकार ने निजी संस्थाओं के माध्यम से गरीबों तक प्राथमिक और तृतीयक स्वास्थ्य सेवा पहुँचाने का प्रयास किया था, लेकिन वह प्रभावी सिद्ध नहीं हो सका था।
  • वस्तुतः पूर्व में पी.पी.पी. मॉडल आधारित कई परियोजनाओं को इसलिये स्थगित करना पड़ा था क्योंकि निजी क्षेत्र ने समझौते की शर्तों का पालन नहीं किया था।
  • सबसे बढ़कर, ‘चिकित्सा शिक्षा’ एक सार्वजनिक वस्तु है क्योंकि इसका उद्देश्य जन-स्वास्थ्य में सुधार करना होता है। अतः इसके दुरुस्तीकरण के लिये एक सधी हुई रणनीति अपनाने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

महामारी ने एक बार फिर हमें चिकित्सा शिक्षा में सुधार करने के लिये चेताया है तथा इसके अधिकाधिक सार्वजनीकरण करने पर बल दिया है। वस्तुतः चिकित्सा शिक्षा में सार्वजनिक निवेश में वृद्धि होनी चाहिये, नए मेडिकल कॉलेज स्थापित किये जाने चाहियें, संस्थानों में सीटों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिये और चिकित्सा शिक्षा तक सभी की समान पहुँच सुनिश्चित की जानी चाहिये। तभी चिकित्सा शिक्षा के माध्यम से स्वास्थ्य सेवाओं का वास्तविक लक्ष्य प्राप्त किया जा सकेगा।

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