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फार्मा क्षेत्र पर भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग का बाज़ार अध्ययन

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधनों से संबंधित सामाजिक क्षेत्र/सेवाओं के विकास और प्रबंधन से संबंधित विषय)

संदर्भ

भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (The Competition Commission of India: CCI) ने भारत में जेनेरिक दवाओं के बीच मूल्य प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने के लिये एक ‘राष्ट्रीय डिजिटल ड्रग्स डाटाबैंक’ के निर्माण और औषधि गुणवत्ता मानकों को कड़ाई से लागू करने की सिफारिश की है।

सी.सी.आई. के प्रमुख निष्कर्ष 

  • सी.सी.आई. के अनुसार, जेनेरिक दवाओं का बाज़ार ‘मूल्य प्रतिस्पर्धा’ की बजाय ‘ब्रांड प्रतिस्पर्धा’ से प्रेरित होता है, जबकि ऐसी दवाएँ कार्यात्मक और रासायनिक रूप से समान होती हैं। जेनेरिक दवाएँ रासायनिक रूप से उन दवाओं के समान ही होती हैं जिन्हें कभी (पूर्व में) पेटेंट संरक्षण प्राप्त था।
  • सी.सी.आई. के अध्ययन के अनुसार, भारत में स्वास्थ्य देखभाल पर होने वाले ‘आउट-ऑफ़-पॉकेट’ व्यय में जेनेरिक दवाओं सहित फार्मास्यूटिकल्स का हिस्सा लगभग 43.2% है और यह देश के कुल स्वास्थ्य खर्च का लगभग 62.7% है।

आउट-ऑफ़-पॉकेट व्यय

  • स्वास्थ्य बीमा होने के बाद भी किसी बीमारी के इलाज में जिन लागतों का भुगतान स्वयं करना पड़ता हैं, उसे ‘आउट-ऑफ़-पॉकेट’ व्यय (‘जेब पर पड़ने वाला खर्च’) कहा जाता है अर्थात् ऐसी दवाएँ और सेवाएँ जो स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी के अंतर्गत कवर नहीं होती हैं। इस प्रकार, आउट-ऑफ-पॉकेट भुगतान किसी रोगी द्वारा सीधे वहन किया जाने वाला व्यय होता है।
  • भारत में उच्च स्वास्थ्य बीमा कवरेज के साथ-साथ वित्तीय सुरक्षा भी आवश्यक है। उदाहरणस्वरूप, आंध्र प्रदेश में सार्वजनिक स्वास्थ्य बीमा लगभग 70% होने के बावजूद देश के कुल ‘आउट ऑफ़ पॉकेट’ व्यय में इसका हिस्सा काफी अधिक है, जबकि हिमाचल प्रदेश का सार्वजनिक स्वास्थ्य बीमा में योगदान काफी कम होने के बावजूद भी ‘आउट ऑफ़ पॉकेट’ व्यय में इसका योगदान काफी कम है।
  • बजट के अनुसार, राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017 में उल्लिखित आउट ऑफ़ पॉकेट खर्च को 65% से घटाकर 30% तक लाना है।

मूल्य प्रीमियम (Price Premium)

मूल्य प्रीमियम (सापेक्ष मूल्य) वह प्रतिशत है जिसके द्वारा किसी उत्पाद का विक्रय मूल्य एक बेंचमार्क मूल्य से अधिक (या कम) हो जाता है। प्रीमियम मूल्य निर्धारण एक व्यवसायिक प्रथा है जिसके तहत उत्पादों में विशिष्टता या उच्च गुणवत्ता उत्पन्न करके कीमतों को कृत्रिम रूप से अधिक किया जाता है। प्रतिस्पर्धी मूल्य निर्धारण रणनीतियों के प्रारंभिक संकेतकों के रूप में ‘मूल्य प्रीमियम’ की निगरानी करने की आवश्यकता होती है।

ब्रांड भेदभाव (Brand Differentiation)

ब्रांड भेदभाव वह साधन है जिसके द्वारा किसी ब्रांड को कई अन्य ग्राहक संबंधी लाभों और बेहतर प्रदर्शन वाले पहलूओं से जोड़कर प्रतिस्पर्धा से अलग किया जाता है। यह ब्रांड मार्केटिंग रणनीति का एक अनिवार्य पहलू है।

जेनेरिक दवाओं के बाज़ार में ‘मूल्य प्रतिस्पर्धा’ पर ‘ब्रांड प्रतिस्पर्धा’ के हावी होने का कारण

  • अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि गुणवत्ता के विभिन्न स्तरों और औषधि-विक्रेताओं (केमिस्ट) के लिये प्रस्तुत व्यापार मार्जिन के संदर्भ में ब्रांड भेदभाव जेनेरिक दवाओं के लिये ब्रांड प्रतिस्पर्धा के प्रमुख संचालक थे।
  • रिपोर्ट में पाया गया कि ऐसे दवा निर्माता, जो ‘ब्रांड इमेज’ और ‘ब्रांड मार्केटिंग’ के लिये अधिक प्रयासरत रहते हैं, वे चिकित्सकों (Prescribing Physicians) के माध्यम से रासायनिक रूप से समान दवाओं पर भी ‘मूल्य प्रीमियम’ को निर्धारित करने में सक्षम होते हैं क्योंकि जो रोगी दवाओं के गुणधर्मों और उसके अन्य विकल्पों से अनभिज्ञ होते हैं, वे चिकित्सकों द्वारा निर्धारित और केमिस्ट द्वारा दी जाने वाली दवाएँ ही खरीदते हैं। 
  • सी.सी.आई. के अनुसार, विभिन्न निर्माताओं द्वारा प्रस्तुत दवाओं की गुणवत्ता में अंतर की धारणा भी ब्रांड भेदभाव को प्रभावित करती है। मूल्यों और बाज़ार हिस्सेदारी पर सूत्रीकरण-स्तर के आँकड़ों (Formulation-level Data) से पता चलता है कि बाज़ार नेतृत्वकर्ता की स्थिति का लाभ प्राय: उन ब्रांडों को मिलता है जो उच्चतम या अपेक्षाकृत अधिक मूल्यों को प्रदर्शित करते हैं। उदाहरणस्वरूप, सर्वाधिक बिकने वाली मधुमेह-रोधी दवा की कीमत 9.97 रुपए प्रति टैबलेट है, जो न्यूनतम बाज़ार हिस्सेदारी वाली रासायनिक रूप से समान दवा की कीमत से छह गुना अधिक है।
  • रिपोर्ट में कहा गया है कि अन्य निर्माता खुदरा विक्रेताओं के लिये व्यापार मार्जिन को बढ़ाकर बिक्री बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

सी.सी.आई. की सिफारिशें 

  • जेनरिक दवाओं के क्षेत्र में प्रभावी मूल्य प्रतिस्पर्धा उपभोक्ताओं को लाभान्वित कर सकती है और सस्ती स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच में सुधार कर सकती है।
  • सी.सी.आई. के अनुसार, गुणवत्ता विनियमों का प्रवर्तन और उनकी व्याख्या राज्यों और विभिन्न नियामकों व परीक्षण क्षमताओं में एक समान नहीं थी, जिससे गुणवत्ता मानकों में भिन्नता देखी गई।
  • केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (Central Drugs Standard Control Organisation: CDSCO) के तत्वावधान में एक तंत्र तैयार किया जा सकता है ताकि गुणवत्ता मुद्दों पर जागरूकता का प्रसार करने के साथ-साथ क्षमता-निर्माण भी किया जा सके। इसके अतिरिक्त, गुणवत्ता मानकों के एकसमान और सुसंगत अनुप्रयोग को सुनिश्चित करने के लिये देश भर में प्रशिक्षण और प्रथाओं में सामंजस्य स्थापित किया जा सके।
  • सी.सी.आई. ने इस क्षेत्र में सूचना विषमता को दूर करने के लिये एक राष्ट्रीय डिजिटल ड्रग्स डाटाबैंक बनाने और इसे नियामकों, उद्योगों, चिकित्सकों व उपभोक्ताओं के लिये उपलब्ध कराने की अनुशंसा भी की है।

अन्य प्रमुख निष्कर्ष

  • प्रतिस्पर्धा आयोग ने ऑनलाइन फार्मेसियों की बढ़ती बाज़ार हिस्सेदारी और फार्मेसियों द्वारा एकत्रित किये गए रोगियों के डाटा के संकेंद्रण संबंधी चिंताओं पर भी ध्यान दिया।
  • सी.सी.आई. के अनुसार, यद्यपि वर्ष 2018 में ऑनलाइन फार्मेसीज़ की हिस्सेदारी 2.8% थी, जबकि महामारी के दौरान ऑनलाइन फार्मेसी की पहुँच 8.8 मिलियन परिवारों तक हो गई, जो महामारी से पूर्व 3.5 मिलियन परिवारों तक ही सीमित थी।
  • रोगी की गोपनीयता और संवेदनशील व्यक्तिगत चिकित्सा डाटा की सुरक्षा के लिये आवश्यक नियमों को लागू करने और इससे संबंधित डाटा संरक्षण कानून बनाने की भी आवश्यकता है। 
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