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मध्यस्थता विधेयक की आवश्यकता और प्रासंगिकता 

(प्रारंभिक परीक्षा- भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान, राजनीतिक प्रणाली)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: कार्यपालिका और न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्य)

संदर्भ 

विगत वर्ष ‘मध्यस्थता विधेयक, 2021’ को संसद में प्रस्तुत किया गया, जिसका उद्देश्य विवाद समाधान में मध्यस्थता (ऑनलाइन सहित) को बढ़ावा देना और सुलह समझौतों को लागू करना है। उल्लेखनीय है कि जुलाई 2021 में ‘भारत-सिंगापुर मध्यस्थता शिखर सम्मेलन’ के दौरान मुख्य न्यायाधीश ने भी विवाद समाधान से पूर्व मध्यस्थता को अनिवार्य करने तथा इस संबंध में कानून बनाने की बात कही थी।

मध्यस्थता विधेयक के मुख्य प्रावधान

  • इस विधेयक की धारा 7 के अनुसार, न्यायालय दीवानी या उससे जुड़े संज्ञेय अपराधों या वैवाहिक अपराधों से संबंधित किसी भी विवाद को मध्यस्थता के लिये संदर्भित करने के लिये सक्षम होगी।
  • विधेयक की धारा 44 में किसी क्षेत्र के निवासियों या परिवारों के मध्य शांति एवं सद्भाव को प्रभावित करने वाले किसी भी विवाद को सामुदायिक मध्यस्थता के माध्यम से हल करने का प्रावधान है।
  • हालाँकि, इस प्रकार किया गया कोई भी समझौता किसी दीवानी न्यायालय के निर्णय या डिक्री के रूप में प्रवर्तनीय नहीं होगा।
  • इस विधेयक के प्रावधान इन कानूनों पर लागू नहीं होंगे-
    • ‘माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम, 2007’
    • ‘कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध एवं निवारण) अधिनियम, 2013’
  • इसका तात्पर्य यह है कि यदि इन कानूनों से संबंधित मामलों को वर्तमान में मध्यस्थता के माध्यम से (या किसी दबाव में) सुलझा लिया जाता है, तो भी यह भविष्य में किसी अन्य आपराधिक कृत्य (जैसे- एसिड अटैक आदि) का कारण बन सकता है। यह देखा गया है कि कई गंभीर अपराध छोटे-छोटे विवादों के ही परिणाम होते हैं जिन्हें समय रहते या तो ठीक से सुलझाया नहीं जाता है या उन पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

      विधेयक की व्यापकता और मूल्यांकन 

      • प्रस्तुत विधेयक के अनुसार, सिविल और वाणिज्यिक विवादों को न्यायालय या न्यायाधिकरण में ले जाने से पूर्व मध्यस्थता के माध्यम से सुलझाने का प्रयास करना चाहिये।
      • हालाँकि, कुछ विवादों में मध्यस्थता मान्य नहीं है, जिनमें आपराधिक मामलें, गंभीर और विशिष्ट धोखाधड़ी के आरोपों से संबंधित विवाद, फर्जी दस्तावेजों का निर्माण और उनका प्रतिरूपण आदि शामिल है।
      • कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न के रोकथाम संबंधी कानून को इसके दायरे से इसलिये बाहर रखा गया है ताकि आंतरिक शिकायत समिति किसी तीसरे पक्ष और विस्तृत प्रक्रिया के आभाव में अपने स्तर पर ही मामले को निपटाकर बंद न कर सके।
      • माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण संबंधी मामलों को संज्ञेय अपराध की श्रेणी में शामिल किये जाने के कारण विधेयक के दायरे से बाहर रखा गया है।

      अन्य कानूनों में मध्यस्थता का प्रावधान 

      • गौरतलब है कि भारत में कुछ विशिष्ट कानूनों जैसे कि ‘नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908’, ‘मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996’, ‘कंपनी अधिनियम, 2013’, ‘वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015’ और ‘उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019’ में मध्यस्थता को वैधता तो प्रदान की गई है किंतु अभी तक मध्यस्थता को विनियमित करने से संबंधित कोई विस्तृत कानून नहीं है।
      • सर्वप्रथम वर्ष 2005 में मद्रास उच्च न्यायालय ने एक पहल के माध्यम से ‘तमिलनाडु मध्यस्थता एवं सुलह केंद्र’ की स्थापना के साथ प्रत्येक ज़िले में मध्यस्थता केंद्र की शुरुआत की। इससे संदर्भित और विचाराधीन मामलों में काफी कमी आई है।
      • दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा-320 में कुछ अपराधों के लिये सुलह का प्रावधान है।
      • शारीरिक क्षति से लेकर संपत्ति संबंधी विवादों तक लगभग 43 आपराधिक मामलों में सुलह की संभावना होती है और लगभग 13 अपराधों में (अपेक्षाकृत अधिक गंभीरता वाले) न्यायालय की अनुमति से सुलह की जा सकती है।

      न्यायपालिका का दृष्टिकोण 

      • उच्चतम न्यायालय का मानना है कि यदि जाँच के दौरान संबंधित पक्षों के मध्य सुलह हो जाती है तो भी वे न्यायालय या पुलिस के पास जा सकते हैं।
      • पुलिस सुलह की वास्तविकता, शामिल पक्षों और शर्तों के सत्यापन के आधार पर पीड़ित पक्ष का बयान दर्ज़ कर सकती है और मजिस्ट्रेट को अंतिम रिपोर्ट स्वीकार करने की सिफारिश कर सकती है।
      • मजिस्ट्रेट सुलह को स्वीकार करते हुए मामले में उचित निर्णय ले सकता है, जबकि अन्य मामलों में न्यायालय द्वारा उचित आदेश पारित किया जा सकता है। 
      • इस प्रकार, दोनों स्थितियों में, यदि किसी विवाद को मध्यस्थता सहित सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाया जाता है, तो यह सुलह सी.आर.पी.सी. के तहत मान्य हो सकती है।
      • सुलह के माध्यम से अधिक-से-अधिक मामलों और अपराधिक वादों को सुलझाया जा सकता है। विशेषकर संपत्ति से संबंधित मामलों को सुलह के माध्यम से सुलझाने की कोशिश की जानी चाहिये।
      • विधि आयोग की 243वीं रिपोर्ट की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के लिये भी मध्यस्थता या आपसी सहमति से विवाद के निपटारे का प्रावधान किया जा सकता है। 

      लाभ 

      • विधेयक में मध्यस्थता के माध्यम से मुख्यत: नागरिक और वाणिज्यिक विवादों को हल करने का प्रस्ताव है, इससे ‘कानून प्रवर्तन एजेंसियों’ पर दबाव कुछ कम हो सकता है। साथ ही, न्यायालय को विवाद समाधान का अंतिम विकल्प माना जाना चाहिये।
      • वैवाहिक विवादों को यदि मध्यस्थता के माध्यम से सुलझाया जाता है तो इसके सकारात्मक दूरगामी परिणाम सामने आ सकते हैं।
      • मध्यस्थता से विभिन्न पक्षों के मध्य शांति बहाल करके कानून की नीति को सार्थक किया जा सकता है।
      • उल्लेखनीय है कि सजा सुनाए जाने से पूर्व किसी भी समय मामले में सुलह की जा सकती है।

      चुनौती 

      • पुलिस कभी-कभी संज्ञेय अपराध को गैर-संज्ञेय अपराध में बदल कर अपराध की गंभीरता को कम कर देती है किंतु समय के साथ उनके परिणाम गंभीर हो सकते हैं।
      • कई नागरिक या व्यावसायिक विवादों को समय पर हल नहीं किये जा सकने के कारण उनको आपराधिक स्वरूप दे दिया जाता है ताकि गिरफ्तारी के डर से कोई न कोई पक्ष समझौता करने के लिये मजबूर हो जाएं।
      • हालाँकि, ‘सभी के लिये मध्यस्थता : भारत में मध्यस्थता की क्षमता को महसूस करना’ नामक विषय पर विचार व्यक्त करते हुए मुख्य न्यायाधीश ने इसे एक सस्ता और त्वरित विवाद समाधान तंत्र कहा है।

      निष्कर्ष 

      इस विधेयक के माध्यम से न केवल सामुदायिक हस्तक्षेप से कानून और व्यवस्था को मज़बूत किया जा सकता है, बल्कि कुछ आपराधिक मामलों में सुलह को सुगम भी बनाया जा सकता है। अंततः इसके द्वारा पुलिस पर पड़ने वाले अतिरिक्त दबाव के साथ-साथ न्यायालयों में मामलों की संख्या को भी कम किया जा सकता है।

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