(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र-2: विभिन्न घटकों के बीच शक्तियों का पृथक्करण, विवाद निवारण तंत्र तथा संस्थान) |
संदर्भ
जून 2025 में सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2011 के नंदिनी सुंदर मामले के अपने निर्णय के संदर्भ में एक अवमानना याचिका को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कोई भी कानून, जब तक कि वह संवैधानिक रूप से अमान्य या विधायी अधिकार क्षेत्र से बाहर न हो, न्यायालय की अवमानना नहीं माना जा सकता है।
नंदिनी सुंदर मामले का अवलोकन (2011)
- पृष्ठभूमि
- छत्तीसगढ़ में माओवादी/नक्सल हिंसा का मुकाबला करने के लिए सलवा जुडूम एवं कोया कमांडो जैसे समूह बनाए गए, जिनमें स्थानीय आदिवासियों को विशेष पुलिस अधिकारियों (SPOs) के रूप में नियुक्त किया गया।
- इन SPOs को न्यूनतम प्रशिक्षण एवं कम वेतन पर माओवादी गतिविधियों के खिलाफ तैनात किया गया, जिसे याचिकाकर्ताओं ने मानवाधिकारों का उल्लंघन माना।
- मुख्य मुद्दा : SPOs की नियुक्ति एवं सलवा जुडूम जैसे समूहों का संचालन संवैधानिक प्रावधानों (अनुच्छेद 14 एवं 21) के विरुद्ध था।
- याचिकाकर्ता : नंदिनी सुंदर एवं अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं ने 2007 में सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की, जिसमें सलवा जुडूम और SPOs के उपयोग को चुनौती दी गई।
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
- मुख्य निर्देश
- छत्तीसगढ़ राज्य को SPOs का उपयोग माओवादी गतिविधियों को नियंत्रित करने, रोकने या समाप्त करने के लिए, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बंद करना होगा।
- SPOs को जारी सभी हथियार वापस लेने का आदेश।
- सलवा जुडूम एवं कोया कमांडो सहित किसी भी समूह के संचालन को रोकने के लिए उचित कदम उठाने का निर्देश।
- केंद्र सरकार को SPOs की भर्ती के लिए किसी भी प्रकार के वित्तीय समर्थन को रोकने का आदेश, जो माओवाद के खिलाफ उग्रवाद-रोधी गतिविधियों में शामिल हों।
- संवैधानिक आधार : अपर्याप्त प्रशिक्षण व कम वेतन पर SPOs की नियुक्ति अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन करती है।
- आदेश का प्रभाव : यह आदेश माओवादी हिंसा के खिलाफ छत्तीसगढ़ में गैर-संवैधानिक एवं असुरक्षित प्रथाओं को समाप्त करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।
छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम, 2011
- पृष्ठभूमि: सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 2011 के आदेश के बाद छत्तीसगढ़ सरकार ने छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम, 2011 पारित किया।
- प्रमुख प्रावधान :
- एक सहायक सशस्त्र पुलिस बल के गठन का प्रावधान, जो सुरक्षा बलों को सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने और माओवादी/नक्सल हिंसा को रोकने में सहायता करेगा।
- सहायक बल के सदस्यों को फ्रंट-लाइन ऑपरेशंस में तैनात नहीं किया जाएगा और वे हमेशा सुरक्षा बलों की निगरानी में कार्य करेंगे।
- न्यूनतम 6 महीने का अनिवार्य प्रशिक्षण और स्क्रीनिंग समिति के माध्यम से पात्र SPOs की भर्ती।
- उद्देश्य : सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उठाई गई चिंताओं (अपर्याप्त प्रशिक्षण, कम वेतन एवं मानवाधिकार उल्लंघन) को संबोधित करना।
- याचिकाकर्ताओं की आपत्ति : याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि यह अधिनियम सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का पालन नहीं करता है और अवमानना के समान है।
अवमानना याचिका ख़ारिज होने के कारण (2025)
- सर्वोच्च न्यायालय का तर्क
- अनुपालन: छत्तीसगढ़ सरकार ने वर्ष 2011 के आदेश के सभी निर्देशों का पालन किया और आवश्यक रिपोर्ट प्रस्तुत की।
- विधायी शक्ति: राज्य विधानमंडल को पूर्ण विधायी अधिकार है और कोई भी कानून, जब तक वह संवैधानिक रूप से अमान्य या विधायी अधिकार क्षेत्र से बाहर न हो, अवमानना नहीं माना जा सकता है।
- शक्तियों का पृथक्करण: संवैधानिक लोकतंत्र में विधायिका को कानून पारित करने, किसी निर्णय के आधार को हटाने या संवैधानिक न्यायालय द्वारा रद्द किए गए कानून को वैध करने का अधिकार है।
- कानूनी चुनौती का आधार: किसी कानून को केवल दो आधारों पर चुनौती दी जा सकती है : विधायी सक्षमता (Legislative Competence) या संवैधानिक वैधता (Constitutional Validity)
- निर्णय : सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम, 2011 संवैधानिक रूप से वैध है और यह नंदिनी सुन्दर मामले में दिए गए आदेश की अवमानना नहीं है।
अन्य संबंधित मामला
- भारतीय एल्यूमिनियम कंपनी बनाम केरल राज्य (1996) : इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने विधायी निरसन (Legislative Abrogation) के सिद्धांत पर फैसला सुनाया। न्यायालय ने कहा कि विधायिका न्यायिक निर्णयों को निरस्त कर सकती है किंतु ऐसा करते समय, उसे संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।
निष्कर्ष
नंदिनी सुंदर मामला संवैधानिक लोकतंत्र में शक्तियों के पृथक्करण और मानवाधिकारों के संरक्षण का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय संविधान में तीन स्तरीय शासन व्यवस्था और अलग-अलग शक्तियों का संतुलन बनाए रखने की महत्वपूर्ण बात करता है। राज्य विधानमंडल के पास यह अधिकार है कि वह अपने क्षेत्र में आवश्यक कानून पारित कर सके, बशर्ते वह संविधानिक रूप से वैध हो।