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दल-बदल विरोधी कानून में बदलाव का प्रस्ताव

(प्रारंभिक परीक्षा :  भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान, राजनीतिक प्रणाली)
(मुख्य परीक्षा, प्रश्न पत्र 2: संघ एवं राज्यों के कार्य तथा उत्तरदायित्व, संघीय ढाँचे से संबंधित विषय एवं चुनौतियाँ)

संदर्भ

हाल ही में, गोवा विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष द्वारा विधानसभा के अगले सत्र मेंदल-बदल विरोधी कानूनमें आवश्यक बदलाव के लिये एकनिज़ी विधेयकपेश करने की बात कही गई है।

प्रस्तावित बदलाव

  • पहला विकल्प यह है कि ऐसे मामलों को सीधे उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय को एक स्पष्ट निर्णय हेतु भेजा जाए, जो निर्णय 60 दिनों की अवधि के भीतर हो जाना चाहिये।
  • दूसरा विकल्प यह है कि अगर किसी दल या दल नेतृत्व के संबंध में कोई मतभेद है, तो उसे इस्तीफा देने और लोगों को नया जनादेश देने का अधिकार हो।

दल-बदल विरोधी कानून

  • वर्ष 1985 में ‘52वें संविधान संशोधनके माध्यम से सांसदों तथा विधायकों के दल-बदल को नियंत्रित करने के लिये संविधान मेंदसवीं अनुसूचीको शामिल किया गया।
  • दल-बदल विरोधी कानून के अंतर्गत निरर्हता के आधार:
    • यदि कोई सदस्य स्वेच्छा से ऐसे राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है, या
    • यदि सदस्य अपने राजनीतिक दल के निर्देशों के विपरीत मतदान करते हैं या मतदान से अनुपस्थित रहते हैं।
  • इस कृत्य के लिये यदि सदस्य को अपने दल से 15 दिनों के भीतर क्षमादान ना दिया गया हो।
  • यदि कोईनिर्दलीय निर्वाचित सदस्यकिसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
  • यदि कोई मनोनीत सदस्य ‘6 माह की समाप्तिके पश्चात् किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
  • वर्ष 1985 के 52वें संशोधन के अनुसार, यदि किसी राजनीतिक दल के निर्वाचित सदस्यों में सेएक-तिहाई सदस्यदल छोड़कर दूसरे दल में शामिल हो जाते हैं, तो उसेदल-बदलना मानकरविलयमाना जाएगा।
  • लेकिन, वर्ष 2003 के ‘91वें संविधान संशोधनके माध्यम से दल-बदल की शर्त कोएक-तिहाई से बढ़ाकर दो-तिहाईकर दिया गया है।
  • दल-बदल के आधार पर अयोग्यता का निर्धारण सदन के सभापति या अध्यक्ष के द्वारा किया जाता है।

      दल-बदल से संबंधित न्यायालय के मामले

      • वर्ष 1987 में पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल एवं अन्य विधायकों ने दल-बदल कानून की वैधता को उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी।
      • पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने 52वें संविधान संशोधन को वैध ठहराया, लेकिन इस अधिनियम की धारा 7 के प्रावधान को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया।
      • धारा 7 में प्रावधान था कि सदस्य को अयोग्य ठहराए जाने के निर्णय को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
        • ऐसा ही निर्णय उच्चतम न्यायालय के द्वारा भी दिया गया, जिसमें उच्चतम न्यायालय द्वारा कहा गया कि सभापति या अध्यक्षन्यायाधिकरण के रूप मेंकार्य करते हैं, इसलिये न्यायाधिकरणों के निर्णयों की तरह ही उनके निर्णयों की भी समीक्षा की जा सकती है।
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