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न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व

(प्रारम्भिक परीक्षा : भारतीय राज्यतंत्र और शासन– लोकनीति तथा अधिकार सम्बंधी मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : न्यायपालिका तथा अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र)

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, भारत के महान्यायवादी ने सर्वोच्च न्यायलय में कहा कि संवैधानिक अदालातों में लैंगिक संवेदनशीलता में सुधार के लिये महिला न्यायाधीशों को उचित प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिये।

पृष्ठभूमि

सामान्यतः लैंगिक भेदभाव का प्रमुख कारण महिलाओं के लिये अवसरों की कमी, हिंसा, बहिष्कार तथा कार्यस्थलों पर शोषण आदि हैं। सार्वजानिक जीवन में महिलाओं की पर्याप्त भागीदारी लैंगिक न्याय का एक मूल घटक है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये सार्वजानिक संस्थाओं में महिलाओं की भागीदारी को सतत् विकास लक्ष्य एजेंडा 2030 में भी शामिल किया गया है।

न्यायपालिका में महिलाओं की स्थिति

सर्वोच्च न्यायलय में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 34 हैं जिनमें वर्तमान में केवल 2 महिला न्यायाधीश ही कार्यरत हैं, जबकि उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय में समग्र रूप से 1,113 न्यायाधीशों की अधिकतम सीमा है। इनमें से न्यायाधीश के रूप में केवल 80 महिलाएँ ही कार्यरत हैं। ध्यातव्य है कि भारत में अब तक कोई भी महिला सर्वोच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश नहीं रही है।

न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व से लाभ

  • न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में सुधार होने से महिलाओं के प्रति यौन हिंसा से सम्बंधित मामलों में अधिक संतुलित तथा सशक्त दृष्टिकोण विकसित हो सकेगा।
  • न्यायलयों में महिला न्यायाधीशों के प्रतिनिधित्व से अधिक समावेशी तथा सहभागी न्यायपालिका का निर्माण हो सकेगा।
  • वैश्विक स्तर पर शोध से पता चलता है कि न्यायपलिका में महिलाओं की उपस्थिति से महिलाओं के लिये न्यायलयों में अनुकूल वातावरण निर्मित होता है तथा न्यायिक निर्णयों की गुणवत्ता में सुधार होता है।

आगे की राह

  • संवैधानिक तथा वैधानिक न्यायलयों का यह दायित्व है कि वे स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायिक तंत्र के माध्यम से महिलाओं के अधिकारों को संरक्षित करें।
  • सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम के पास होता है इसलिये न्यायपालिका में महिलाओं को उचित प्रतिधिनित्व देने की शुरुआत स्वयं सर्वोच्च न्यायालय से होनी चाहिये।
  • पितृसत्तात्मक सोच के कारण न्यायाधशों तथा वकीलों का व्यवहार महिलाओं के प्रति रुढ़िवादी हो सकता है। इसलिये न्यायाधीशों तथा वकीलों के लिये लैंगिक संवेदनशीलता से सम्बंधित एक अनिवार्य प्रशिक्षण कार्यक्रम लागू किया जाना चाहिये।
  • नकारात्मक संस्थागत नीतियों तथा प्रथाओं को चुनौती देने के लिये एक मज़बूत महिला समर्थित पहल की आवश्यकता है। उदाहरणस्वरूप जॉर्डन, ट्यूनीशिया और मोरक्को जैसे देशों में महिला न्यायाधीशों के संघों ने न्यायिक प्रणाली को अधिक संवेदनशील बनाने के लिये सक्रिय रूप से एक संगठित पहल की शुरुआत की है।

निष्कर्ष

न्यायपलिका में महिलाओं और पुरूषों के समान प्रतिनिधित्व से न्यायिक भेदभाव के सभी रूपों को समाप्त करने में सहायता मिलेगी, जिससे देश में मज़बूत, पारदर्शी, स्वंतत्र तथा समावेशी न्यायिक संस्थानों का निर्माण हो सकेगा।


प्री फैक्ट्स :

  • वर्ष 1987 में केरल की एम. फातिमा बीवी को सर्वोच्च न्यायालय में प्रथम महिला न्यायाधीश के रूप नियुक्त किया गया था।
  • एस.डी.जी.– 5 (लैंगिक समानता और सभी महिलाओं तथा लड़कियों को सशक्त बनाना) तथा एस.डी.जी.- 16 (स्थायी विकास के लिये शांतिपूर्ण और समावेशी समाज को बढ़ावा देना)
  • महिला अधिकारों पर बीजिंग घोषणा (महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के भेदभावों को समाप्त करने से सम्बंधित)।
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