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भारत में अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद

भारत में जल संसाधन एक अत्यंत संवेदनशील और मूल्यवान प्राकृतिक संपदा है, विशेषतः तब जब इसका स्रोत एक से अधिक राज्यों में फैला हो। भारत की अधिकांश नदियाँ – जैसे गंगा, ब्रह्मपुत्र, गोदावरी, कावेरी, कृष्णा – अंतर्राज्यीय हैं, जिनका जल कई राज्यों के लिए कृषि, पेयजल, उद्योग और ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है। परंतु जल की सीमित उपलब्धता, राज्यों की बढ़ती आवश्यकताओं और राजनीतिक दबावों ने समय-समय पर इन नदियों को विवाद का केंद्र बना दिया है। 

प्रमुख अंतर्राज्यीय जल विवादों के उदाहरण

  • कावेरी जल विवाद (तमिलनाडु बनाम कर्नाटक)
  • कृष्णा जल विवाद (महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना)
  • रवि-ब्यास विवाद (पंजाब, हरियाणा और राजस्थान)
  • गोदावरी विवाद (आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, ओडिशा)
  • महादयी नदी विवाद (गोवा बनाम कर्नाटक)

संवैधानिक और कानूनी प्रावधान:-

(क) संविधान में जल से संबंधित प्रविष्टियाँ:

  • राज्य सूची (सूची-2, प्रविष्टि 17):  जल आपूर्ति, सिंचाई, नहर, जल निकासी, तटबंध, जल भंडारण और जल विद्युत राज्य का विषय है।
  • संघ सूची (सूची-1, प्रविष्टि 56): संसद को यह अधिकार है कि वह सार्वजनिक हित में घोषित करके अंतर्राज्यीय नदियों और नदी घाटियों के नियमन एवं विकास के लिए कानून बनाए।

(ख) अनुच्छेद 262:- नदी जल विवाद से संबंधित प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 262 में मौजूद हैं:

  • अनुच्छेद 262 (1): संसद को यह शक्ति प्राप्त है कि वह संसद द्वारा बनाए गए विधि द्वारा यह प्रावधान कर सकती है कि किसी अंतर्राज्यीय नदी या नदी घाटी के जल के प्रयोग, वितरण या नियंत्रण से उत्पन्न किसी विवाद का न्यायालय द्वारा निर्णय न किया जाए।
  • अनुच्छेद 262 (2): संसद यह भी प्रावधान कर सकती है कि ऐसे विवादों का निपटारा केवल संसद द्वारा बनाई गई विधि के माध्यम से हो।

अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद समाधान हेतु संसद द्वारा बनाए गए प्रमुख अधिनियम:-

  • नदी बोर्ड अधिनियम, 1956:-
    • उद्देश्य: अंतर्राज्यीय नदियों पर समन्वय एवं योजनाओं के लिए केंद्र सरकार राज्य सरकारों के साथ मिलकर बोर्ड बना सके।
    • यथार्थ: आज तक इस अधिनियम के अंतर्गत कोई भी नदी बोर्ड गठित नहीं किया गया है।
  • अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम, 1956 (Inter-State River Water Disputes Act, 1956)
    • उद्देश्य: जल विवादों के समाधान के लिए न्यायाधिकरण का गठन करना।
    • प्रक्रिया:
      • जब कोई राज्य केंद्र सरकार से न्यायाधिकरण की मांग करता है, तो केंद्र संबंधित राज्यों से परामर्श कर पहले विवाद सुलझाने की कोशिश करता है।
      • यदि असफल रहता है, तो केंद्र एक अंतर्राज्यीय जल विवाद न्यायाधिकरण (Tribunal) का गठन करता है।
  • 2002 का संशोधन: सरकारिया आयोग की सिफारिशों को शामिल किया गया। इसमें दो प्रमुख बदलाव किए गए:
    • न्यायाधिकरण के गठन के लिए एक वर्ष की सीमा।
    • निर्णय देने के लिए तीन वर्षों की समय-सीमा।

भारत में अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद के न्यायाधिकरण की स्थापना की प्रक्रिया:

  • यदि किसी राज्य को किसी अंतर्राज्यीय नदी के जल के उपयोग में अन्य राज्य द्वारा हानि हो रही है, तो वह केंद्र सरकार से शिकायत कर सकता है।
  • केंद्र सरकार, Central Water Commission से परामर्श करने के बाद, यदि यह तय करती है कि वास्तव में विवाद है, तो वह एक अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद न्यायाधिकरण की स्थापना करती है।
  • न्यायाधिकरण का निर्णय अंतिम होता है और उस पर न्यायालय में पुनर्विचार नहीं किया जा सकता (अनुच्छेद 262 के अनुसार)।

भारत में अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद से संबंधित अब तक गठित प्रमुख न्यायाधिकरण:-

न्यायाधिकरण

स्थापना वर्ष

संबंधित राज्य / नदी

गोदावरी ट्रिब्यूनल

1969

महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, ओडिशा

नर्मदा ट्रिब्यूनल

1969

गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान

कावेरी ट्रिब्यूनल

1990

कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, पुडुचेरी

कृष्णा ट्रिब्यूनल-I

1969

महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक

कृष्णा ट्रिब्यूनल-II

2004

आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र

रवि-ब्यास ट्रिब्यूनल

1986

पंजाब, हरियाणा, राजस्थान

महादायी ट्रिब्यूनल

2010

गोवा, कर्नाटक, महाराष्ट्र

वंशधारा ट्रिब्यूनल

2010

ओडिशा, आंध्र प्रदेश

महानदी ट्रिब्यूनल

2018

छत्तीसगढ़, ओडिशा

भारत में अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद न्यायाधिकरण प्रणाली की प्रमुख समस्याएँ और चुनौतियाँ:

  • लंबी न्यायिक प्रक्रिया: न्यायाधिकरणों द्वारा निर्णय देने में अक्सर 10-20 वर्षों तक का समय लग जाता है। उदाहरण: कावेरी ट्रिब्यूनल ने निर्णय देने में 17 वर्ष लिए।
  • निर्णय लागू करने में कठिनाई: निर्णयों को लागू करने के लिए कोई ठोस प्रवर्तन तंत्र (enforcement mechanism) नहीं है।
  • राज्यों की असहमति: न्यायाधिकरण के फैसले के बाद भी कई राज्य उसे मानने से इनकार कर देते हैं, जिससे टकराव और बढ़ता है।
  • राजनीतिकरण: जल विवादों को कई बार राजनीतिक लाभ के लिए भड़काया जाता है, जिससे समस्या और जटिल हो जाती है।

जल विवादों के समाधान हेतु सुधार और नवीन पहल:-Inter-State River Water Disputes (Amendment) Bill, 2019:

  • यह एक महत्वपूर्ण प्रस्तावित सुधार है। इसके तहत:
    1. स्थायी जल विवाद प्राधिकरण (Permanent Tribunal) की स्थापना का प्रस्ताव है, जिसमें अनेक पीठ (Benches) होंगी।
    2. फैसला देने की समय सीमान्यायाधिकरण को 1 वर्ष (विस्तारण सहित अधिकतम 2 वर्ष) में निर्णय देना होगा।
    3. निर्णयों के प्रवर्तन की व्यवस्था केंद्र को यह शक्ति दी जाएगी कि वह निर्णय लागू करवाए।
    4. सुलह की प्राथमिकताविवाद को न्यायाधिकरण के पास भेजने से पहले अमाइकस/सुलह समिति के माध्यम से समाधान की कोशिश की जाएगी।
  • हालांकि, यह संशोधन बिल अभी तक पारित नहीं हुआ है।

जल विवादों के समाधान हेतु सुझाव

  • अंतर्राज्यीय परिषद की भूमिका को बढ़ाना (अनुच्छेद 263 के तहत):
    • जल विवादों को चर्चा और संवाद से सुलझाने के लिए एक प्रभावशाली मंच बनाना।
  • जल उपयोग दक्षता में सुधार:
    • ड्रिप इरिगेशन, जल पुनर्भरण, वर्षा जल संचयन को प्रोत्साहन।
  • एकीकृत जल प्रबंधन एजेंसी का निर्माण:
    • जो वैज्ञानिक रूप से जल वितरण, भंडारण, संरक्षण और उपयोग की निगरानी करे।
    • संघ, नदी बेसिन, राज्य और जिला स्तर पर तकनीकी सलाह और डेटा संग्रहण।
  • फास्ट-ट्रैक न्यायाधिकरण:
    • जिसमें बहु-विषयक विशेषज्ञ शामिल हों, निर्णय समयबद्ध हों और लागू करने का स्पष्ट तंत्र हो।
  • राष्ट्रीय जल डेटा भंडार (Central Water Data Repository):
    • जिससे निर्णय आधारित तथ्यों और आंकड़ों पर आधारित हो सकें।
  • केंद्र सरकार की सक्रिय भूमिका:
    • राजनीतिक हस्तक्षेप से हटकर वैज्ञानिक और तकनीकी समाधान को प्राथमिकता देना।
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