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नार्को टेस्ट की वैधानिक स्थिति    

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2 : कार्यपालिका और न्यायपालिका) 

संदर्भ

हाल ही में, नई दिल्ली की एक अदालत ने दिल्ली पुलिस को मृत्यु के एक आरोपी का नार्को टेस्ट (Narco Test) कराने की अनुमति दे दी है। इस मामले में अभियुक्त ने इस परीक्षण के परिणामों से अवगत होते हुए अपनी सहमती जताई है। उल्लेखनीय है कि नियमों के मुताबिक नार्को टेस्ट कराने के लिये भी व्यक्ति की सहमति आवश्यकता है।

क्या है नार्को टेस्ट

प्रक्रिया 

Narco-Test

  • नार्को विश्लेषण ग्रीक शब्द नार्को से लिया गया है जिसका अर्थ एनेस्थीसिया या टॉरपोर होता है। इसका उपयोग नैदानिक ​​​​और मनोचिकित्सा तकनीक का वर्णन करने के लिये किया जाता है। 
  • नार्को टेस्ट के दौरान सोडियम पेंटोथल, स्कोपोलामाइन और सोडियम एमाइटल जैसी दवा को आरोपी के शरीर में इंजेक्ट किया जाता है।
  • परीक्षण के दौरान इंजेक्शन में दिये जाने वाले पदार्थ की मात्रा व्यक्ति के लिंग, आयु, स्वास्थ्य और शारीरिक स्थिति के अनुसार तय की जाती है।

क्रियाविधि 

  • यह दवा व्यक्ति को एक कृत्रिम निद्रावस्था (Hypnotic) या अचेतन अवस्था (Sedated State) में ले जाती है, जिसमें व्यक्ति की कल्पना निष्प्रभावी हो जाती है।
  • इस कृत्रिम निद्रावस्था में अभियुक्त का संकोच कम हो जाता है और सत्य सूचनाएं तथा जानकारी प्रकट करने की संभावना होती है।
  • इसके बाद जांच एजेंसियों द्वारा संबंधित व्यक्ति से डॉक्टरों की मौजूदगी में पूछताछ की जाती है और उसकी विडियो रिकॉर्डिंग की जाती है।

सोडियम पेंटोथल

  • सोडियम पेंटोथल या सोडियम थायोपेंटल कम अवधि में तेजी से काम करने वाला एनेस्थेटिक है।
  • इसका अधिक मात्रा में उपयोग सर्जरी के दौरान रोगियों को बेहोश करने के लिये किया जाता है।
  • यह दवाओं के बार्बिट्युरेट (Barbiturate) वर्ग से संबंधित है जो केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर प्रभाव डालती है।
  • चूँकि यह दवा झूठ बोलने के संकल्प को कमज़ोर करती है इसलिये इसे ‘ट्रुथ सीरम’ भी कहते हैं।
  • ऐसा माना जाता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान खुफिया अधिकारियों ने इसका इस्तेमाल किया था।

पॉलीग्राफ परीक्षण से भिन्नता

  • पॉलीग्राफ परीक्षण इस धारणा पर आधारित होता है कि जब कोई व्यक्ति झूठ बोल रहा होता है तो उस समय उसकी शारीरिक प्रतिक्रियाएं सामान्य की तुलना में भिन्न होती हैं।
  • इस परीक्षण में शरीर में दवाओं को इंजेक्ट नहीं किया जाता है बल्कि कार्डियो-कफ्स (Cardio-Cuffs) या संवेदनशील इलेक्ट्रोड जैसे उपकरण संदिग्ध के शरीर से जोड़े जाते हैं। 
  • साथ ही, प्रश्न पूछे जाने के दौरान विभिन्न शारीरिक गतिविधियों, जैसे- रक्तचाप, नाड़ी दर, श्वसन दर, पसीने की ग्रंथि गतिविधि में परिवर्तन, रक्त प्रवाह आदि को मापते हैं।
    • इस प्रक्रिया में व्यक्ति के सत्य, असत्य, धोखे और अनिश्चितता का मूल्यांकन करने के लिये प्रत्येक प्रतिक्रिया को एक संख्यात्मक मान प्रदान किया जाता है।
  • यह परीक्षण पहली बार 19वीं शताब्दी में इतालवी अपराध विज्ञानी ‘सेसारे लोम्ब्रोसो’ द्वारा किया गया था, जिन्होंने पूछताछ के दौरान आपराधिक संदिग्धों के रक्तचाप में परिवर्तन को मापने के लिये एक मशीन का प्रयोग किया था।

परीक्षणों का औचित्य

  • हाल के दशकों में, जांच एजेंसियों ने इन परीक्षणों के इस्तेमाल की मांग की है, जिन्हें कभी-कभी यातना (Torture) या थर्ड डिग्री (Third Degree) का बेहतर विकल्प माना जाता है।
  • हालाँकि, इनमें से किसी भी विधि की सफलता दर 100% नहीं है और ये विषय चिकित्सा क्षेत्र में भी विवादास्पद बने हुए हैं।
  • जब अन्य साक्ष्य किसी मामले की स्पष्ट तस्वीर नहीं प्रस्तुत करते हैं तो जांच एजेंसियां ​​इस परीक्षण का उपयोग करती हैं। साक्ष्य एकत्र करने की प्रक्रिया में विशेषज्ञ द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट का उपयोग किया जाता है। 

परीक्षणों पर अंकुश

न्यायालय का मत 

  • वस्तुत: इन परीक्षणों पर न्यायपालिका ने कई प्रतिबंध भी आरोपित किये हैं। वर्ष 2010 में ‘सेल्वी एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य' मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी कि कोई भी लाई डिटेक्टर टेस्ट (Lie detector test) अभियुक्त की सहमति के आधार पर ही किया जाना चाहिये।
  • न्यायालय के अनुसार, वर्ष 2000 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा प्रकाशित 'अभियुक्त पर पॉलीग्राफ टेस्ट के क्रियान्वयन के लिये दिशानिर्देश' का सख्ती से पालन किया जाना चाहिये। यह सहमति न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज़ की जानी चाहिये।

परीक्षण बनाम व्यक्तिगत स्वतंत्रता

  • सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, किसी भी व्यक्ति की सहमति के बिना नार्को विश्लेषण, ब्रेन मैपिंग और पॉलीग्राफ टेस्ट नहीं किया जा सकता है। 
    • सर्वोच्च न्यायालय ने इस तरह के परीक्षणों को अवैध और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन माना है।
  • हालाँकि, नार्को परीक्षण के दौरान दिये गए बयान न्यायालय में स्वीकार्य नहीं हैं, सिवाय कुछ परिस्थितियों को छोड़कर जब अदालत को लगता है कि मामले के तथ्य और प्रकृति इसकी अनुमति देते हैं। 
  • इसके अतिरिक्त परीक्षण किये जाने वाले व्यक्ति की वकील तक पहुंच सुलभ होनी चाहिये तथा पुलिस एवं वकील द्वारा उसे परीक्षण के शारीरिक, भावनात्मक व कानूनी निहितार्थों के बारे में समझाया जाना चाहिये।

परीक्षण परिणामों की स्थिति

  • चूँकि परीक्षण के दौरान व्यक्ति अचेतन अवस्था में होता है और पूछे गए प्रश्नों का जवाब देने के विकल्प का उपयोग करने में समर्थ नहीं होता है, इसीलिये इस दौरान दिये गए वक्तव्यों को बयान के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है।
  • उच्चतम न्यायालय के अनुसार, स्वेच्छा से लिये गए परीक्षण से प्राप्त किसी भी जानकारी या सामग्री को साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
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