New
GS Foundation (P+M) - Delhi: 30 July, 11:30 AM July Mega Offer UPTO 75% Off, Valid Till : 21st July 2025 GS Foundation (P+M) - Prayagraj: 14th July, 8:30 AM July Mega Offer UPTO 75% Off, Valid Till : 21st July 2025 GS Foundation (P+M) - Delhi: 30 July, 11:30 AM GS Foundation (P+M) - Prayagraj: 14th July, 8:30 AM

उच्चतम न्यायालय में वैवाहिक अधिकार को चुनौती

संदर्भ 

हाल ही में, हिंदू पर्सनल लॉ में पति-पत्नी के सहवास (साथ में रहना) की बाध्यता को न्यायालय में चुनौती दी गई है।

चुनौती के अंतर्गत प्रावधान

  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 वैवाहिक अधिकारों की बहाली से संबंधित है। इसके अंतर्गत प्रावधान किया गया है कि जब पति या पत्नी में से कोई भी 'बिना उचित कारण' के एक-दूसरे से अलग रहता है तो पीड़ित पक्ष ज़िला अदालत में याचिका द्वारा दांपत्य अधिकारों या वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिये आवेदन कर सकता है।
  • इस प्रकार की याचिका में दिये गए बयानों की सत्यता से संतुष्ट होकर न्यायालय वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिये आदेश जारी कर सकता है।

वैवाहिक अधिकार (Conjugal rights)

  • वैवाहिक अधिकार, विवाह द्वारा प्रदत्त अधिकार है। इसका आशय है कि पति या पत्नी के अधिकार समाज के अन्य सदस्यों की तरह हैं।
  • विवाह, तलाक आदि से संबंधित व्यक्तिगत कानूनों और आपराधिक कानून में पति या पत्नी को भरण-पोषण और गुजारा भत्ता के भुगतान की आवश्यकता को दोनों कानूनों में मान्यता प्रदान की गई है।
  • हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 वैवाहिक अधिकारों के एक पक्ष को संकाय के अधिकार के रूप में  मान्यता देती है और पति या पत्नी को इस अधिकार को लागू कराने के लिये अदालत जाने की अनुमति देकर इस अधिकार की रक्षा भी करती है।
  • वैवाहिक अधिकारों की बहाली की अवधारणा को अब हिंदू पर्सनल लॉ में संहिताबद्ध किया गया है, लेकिन इसकी उत्पत्ति 'औपनिवेशिक कानून' और 'चर्च कानून' से हुई है।
  • मुस्लिम पर्सनल लॉ के साथ-साथ 'तलाक अधिनियम, 1869' में भी इसी तरह के प्रावधान मौजूद हैं, जो ईसाई परिवार कानून को नियंत्रित करते हैं
  • संयोग से, वर्ष 1970 में यूनाइटेड किंगडम ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली पर प्रवर्तित कानून को निरस्त कर दिया था

धारा 9 के तहत मामले का प्रावधान

  • यदि पति या पत्नी में से कोई एक पक्ष एक-साथ रहने से मनाही करते हैं तो दूसरा पक्ष परिवार अदालत में एक-साथ रहने के लिये आदेश की माँग कर सकता है।
  • अदालत के आदेश का पालन नहीं होने पर अदालत संपत्ति कुर्क कर सकता है। हालाँकि, इस फैसले के विरुद्ध उच्च न्यायालय तथा उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकती है।
  • आम तौर पर, जब एक पक्ष एकतरफा तलाक के लिये ये आवेदन करता है, तो दूसरा पक्ष यदि तलाक से सहमत नहीं है तब वह वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिये न्यायालय में आवेदन कर सकते हैं।
  • इस प्रावधान को पति-पत्नी के मध्य सुलह कराने के लिये कानून के माध्यम से एक हस्तक्षेप के रूप में देखा जाता है।

कानूनी प्रावधान को चुनौती देने का कारण

  • इस प्रावधान को इस आधार पर चुनौती दी जा रही है कि यहनिजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघनकरता है।
  • याचिकाकर्ता के अनुसार, वैवाहिक अधिकारों की अदालत द्वारा अनिवार्य बहाली राज्य की ओर से एकबलात कानून है, जो किसी की यौन और निर्णयात्मक स्वयत्तता, गोपनीयता तथा गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करता है।
  • ध्यातव्य है कि वर्ष 2019 में उच्चतम न्यायालय की नौ-न्यायाधीशों की पीठ नेनिजता के अधिकारकोमौलिक अधिकारके रूप में मान्यता दी थी।
  • हालाँकि, वैवाहिक अधिकारों की बहाली के प्रावधान को उच्चतम न्यायालय ने पहले भी बरकरार रखा है। 
  • कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार, गोपनीयता के मामले में नौ-न्यायाधीशों की पीठ के ऐतिहासिक फैसले ने कई कानूनों के समक्ष संभावित चुनौतियों के लिये मंच तैयार किया है जैसे कि समलैंगिकता का अपराधीकरण, वैवाहिक बलात्कार, दाम्पत्य अधिकारों की बहाली, बलात्कार की जाँच में टू-फिंगर टेस्ट।
  • यद्यपि कानून पूर्व-दृष्टया लिंग-तटस्थ है क्योंकि यह पत्नी और पति दोनों को वैवाहिक अधिकारों की बहाली की अनुमति देता है यह प्रावधान महिलाओं को असमान रूप से प्रभावित करता है।
  • महिलाओं को अक्सर इस प्रावधान के तहत विवाहित घर में वापस बुलाया जाता है और यह देखते हुए कि वैवाहिक बलात्कार एक अपराध नहीं है, उन्हें इस तरह के बलात सहवास के लिये अतिसंवेदनशील उपेक्षा की तरह छोड़ दिया जाता है।

न्यायालय के पूर्ववर्ती मामले

  • वर्ष 1984 में, उच्चतम न्यायालय नेसरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढाके मामले में हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 को बरकरार रखा था, जिसमें कहा गया था कि यह प्रावधानविवाह के टूटने की रोकथाम के लिये एक सहायता के रूप में एक सामाजिक उद्देश्य को पूरा करता है
  • उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद दो उच्च न्यायालयों, आंध्र प्रदेश और दिल्ली ने भी इस मुद्दे पर अलग-अलग फैसला सुनाया था।
  • वर्ष 1983 में, आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय की एकल-न्यायाधीश वाली पीठ ने पहली बारटी. सरिता बनाम टी. वेंकटसुब्बैयाके मामले में इस प्रावधान को रद्द करते हुए इसे शून्य घोषित कर दिया था।
  • न्यायमूर्ति पी. चौधरी ने अन्य कारणों के साथ निजता के अधिकार का हवाला दिया। साथ ही, अदालत ने यह भी माना किपत्नी या पति से इतने घनिष्ठ रूप से संबंधित मामले में पक्षकारों को राज्य के हस्तक्षेप के बिना अकेला छोड़ दिया जाता है
  • अदालत ने यह भी माना था कियौन सहवासको मजबूर करने केमहिलाओं के लिये गंभीर परिणामहोंगे।
  • हालाँकि, इसी वर्ष दिल्ली उच्च न्यायालय की एकल-न्यायाधीश वाली पीठ ने इस कानून के बिल्कुल विपरीत दृष्टिकोण अपनाय और 'हरविंदर कौर बनाम हरमंदर सिंह चौधरी' मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने प्रावधान को बरकरार रखा।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अवध बिहारी रोहतगी ने आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले की आलोचना करते हुए कहा कि "यह राज्य के हित में है कि पारिवारिक जीवन को बनाए रखा जाए और यह कि माता-पिता के विवाह के विघटन से घर नहीं टूटना चाहिये।
  • उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण को बरकरार रखा और आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले को खारिज कर दिया।
« »
  • SUN
  • MON
  • TUE
  • WED
  • THU
  • FRI
  • SAT
Have any Query?

Our support team will be happy to assist you!

OR