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भारत में महापाषाणिक जार 

(प्रारंभिक परीक्षा- भारत का इतिहास)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 1 : भारतीय संस्कृति के प्राचीन काल से आधुनिक काल तक के कला के रूप, साहित्य और वास्तुकला के मुख्य पहलू)

संदर्भ

असम के दीमा हसाओ (Dima Hasao) ज़िले में महापाषाणिक पत्थर के जारों (Megalithic Stone Jars) की खोज ने दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. में भारत के पूर्वोत्तर और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच संभावित संबंधों पर ध्यान केंद्रित किया है।

महापाषाणिक जार का इतिहास

  • ‘एशियन आर्कियोलॉजी’ के एक अध्ययन के अनुसार, ये बर्तन एक ‘अद्वितीय पुरातात्विक परिघटना’ है। केवल लाओस तथा इंडोनेशिया ही ऐसी दो अन्य साइटें है, जहाँ पर इस प्रकार के जार पाए गए हैं। 
  • असम के महापाषाणिक जार को सर्वप्रथम वर्ष 1929 में ब्रिटिश सिविल सेवक जेम्स फिलिप मिल्स और जॉन हेनरी हटन ने देखा था, जिन्होंने दीमा हसाओ जिले में छह साइटों पर इसकी उपस्थिति दर्ज की थी।
  • असम में इसी प्रकार के अन्य स्थलों की ख़ोज वर्ष 2016 तथा वर्ष 2020 में की गई। शोधकर्ताओं ने इन स्थलों से तीन अलग-अलग जार आकृतियों (शंक्वाकार सिरे के साथ बल्बनुमा शीर्ष; द्विभुज; बेलनाकार) का अवलोकन किया।

समानताएँ एवं महत्त्व

  • असम के इन स्थलों से प्राप्त जारों की तिथियों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाना शेष है। कार्बन डेटिंग से पता चलता है कि लाओस साइट पर पाए गए जार दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. के थे।
  • इस स्थानों के शवाधान प्रथाओं और जारों के बीच भी समानता दिखाई पड़ती है। यद्यपि इंडोनेशिया में पाए गए जारों का प्रयोजन स्पष्ट नहीं है, हालांकि कुछ विद्वान लाओस व पूर्वोत्तर भारत के समान यहाँ भी शवाधानों में इनके उपयोग की पुष्टि करते हैं।

महापाषाणिक संस्कृति

  • पाषाणकालीन संस्कृति के दौरान दक्षिण भारत में शवों को बड़े-बड़े पत्थरों से ढक दिया जाता था। ऐसी संरचनाओं को ‘महापाषाण’ कहा जाता था।
  • ये महापषाणिक स्थल डोलमेनोइड सिस्ट (बॉक्स के आकार के पत्थर के दफन कक्ष), केयर्न स्टोन सर्कल (परिभाषित परिधि वाले पत्थर के घेरे) और कैपस्टोन (मुख्य रूप से केरल में पाए जाने वाले विशिष्ट मशरूम के आकार के दफन कक्ष) के रूप में पाए गए हैं।
  • इस संस्कृति का आरंभ 1000 ई.पू. से माना जा सकता है, जो ईसा की शुरूआती शताब्दियों तक प्रचलित रही। इसकी सर्वाधिक प्रमुख विशेषता लौह धातु तथा काले एवं लाल मृद्भांडों की प्राप्ति है।   

निष्कर्ष 

  • पूर्वोत्तर के अतिरिक्त भारत में किसी अन्य स्थान पर ऐसे स्थल नहीं पाए गए हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि किसी समय समान प्रकार के सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले लोगों का समूह लाओस और पूर्वोत्तर भारत के बीच के भौगोलिक स्थान पर निवास करता था।
  • हालाँकि, असम और लाओस व इंडोनेशिया के बीच ‘संभावित सांस्कृतिक संबंध’ को समझने के लिये अधिक शोध की आवश्यकता है क्योंकि इन तीनों स्थलों पर पाए जाने वाले जारों के मध्य प्रतीकात्मक और रूपात्मक (Typological and Morphological) समानताएँ हैं।
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