New
UPSC GS Foundation (Prelims + Mains) Batch | Starting from : 20 May 2024, 11:30 AM | Call: 9555124124

आज़ाद भारत के 75 वर्ष : नैतिकता, अर्थव्यवस्था और प्रतिमान

संदर्भ

  • कोविड-19 महामारी के कारण विश्व के तमाम देश एवं महाद्वीप मुश्किलों का सामना कर रहे हैं। 21वीं सदी की शुरुआत में अप्रत्याशित चुनौतियों और अभूतपूर्व व्यवधानों से जूझ रहे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को वर्ष 2020 के दशक में एक बेहतर और स्थायी शुरुआत की उम्मीद थी, किंतु कोविड-19 महामारी के कारण ये उम्मीदें साकारित न हो सकीं।
  • इस बदलते दौर में भारत अपनी ‘आर्थिक संरचना’ को नई वास्तविकताओं के अनुकूल बनाने तथा ‘महासागरों पर आधिपत्य को रोकने की अपनी प्रतिबद्धता’ को कैसे लागू करेगा, ये सभी कारक भारत की नेतृत्व क्षमता का निर्धारण करेंगे। भविष्य की विश्व व्यवस्था को आकार देने और आने वाले दशकों विभिन्न क्षेत्रों की दशा और दिशा तय करने में भारत की महत्त्वपूर्ण भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती है।

अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को नए विचारों की आवश्यकता

कोविड-19 महामारी के प्रवेश से पहले सत्ता संतुलन में आता पीढ़ीगत और भौगोलिक बदलाव, प्रौद्योगिकी आधारित नवाचारों में तेज़ी और वैश्विक अस्तित्व के लिये ख़तरा बन चुकी जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियों ने मिलकर अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों और संस्थानों की इनसे निपटने की क्षमता को कमज़ोर कर दिया था। महामारी के प्रभाव से अब ये अंतर्राष्ट्रीय मानदंड और संस्थान पूर्णतः कमज़ोर हो चुके हैं। वर्तमान में इन चुनौतियों से निपटने के लिये अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को नए विचारों और पथप्रदर्शकों की आवश्यकता है, जो भूमंडलीकरण और वैश्विक सहयोग को मज़बूत कर सकें। 

वैश्विक पटल पर भारत के संबंधों का आकार

  • कुछ विशेषज्ञों का अनुमान है कि भारत के लिये आगे की राह आसान हो सकती है, किंतु अधिकतर विषेशज्ञों का आकलन है कि भारत के लिये आने वाला समय अनिश्चितता और अशांति का होगा। वैश्विक मामलों में भारत को आगाह करते हुए विशेषज्ञों का मानना है कि वर्तमान में बहुपक्षीयवाद अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहा है। इस संकट को विभिन्न  राष्ट्रों के अंदर बहुपक्षीयवाद के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध उठते सवालों तथा बहुपक्षीय संगठनों के मध्य होने वाली वार्ताओं में विद्यमान गतिरोधों के रूप में देखा जा सकता है।
  • यद्यपि, तार्किक दृष्टि से यह वैश्विक संकट भारत के लिये भी अवसरों को भी जन्म देता है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह अवधि भारत को अकेले कार्य करने तथा सक्रिय रूप से नए गठबंधन बनाने एवं अन्य शक्तियों के साथ आम सहमति बनाने का अवसर प्रदान करती है। हालाँकि, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि भारत कितनी जल्दी अपने पारंपरिक वैश्विक दृष्टिकोण को नए सिरे से पुनर्गठित कर सकता है। 
  • विशेषज्ञों का मानना है कि भारत की वैश्विक दृष्टि अब परिवर्तित हो रही है क्योंकि विदेश नीति के कुछ मामलों में जो स्पष्टता पहले नहीं हुआ करती थी वह अब मज़बूत निर्णयन क्षमता के द्वारा साकारित हो जाती है। आंतरिक शक्ति के कारण ही भारत बाह्य मामलों में भी आत्मविश्वास के साथ अपने पक्ष को रखने में तत्पर और सक्षम दिखता है।  
  • जैसे-जैसे वैश्विक शक्ति की धुरी अटलांटिक व्यवस्था से हट रही है, ऐसे में प्राचीन तथा उभरती हुई शक्तियों के साथ भारत के संवाद में नए गुण दिखने लगे हैं। यहीं पर भारत की नई बाह्य साझेदारियाँ सक्रिय रूप से आकार ले रही हैं। इन बदलावों के केंद्र में विकसित हो रहा हिंद-प्रशांत क्षेत्र का विचार है, जो पूर्वी अफ्रीका से पूर्वी प्रशांत क्षेत्र तक के समुदायों, बाज़ारों और राष्ट्रों को एक रणनीतिक भूगोल में पिरोने का कार्य करेगा। 
  • किंतु, यहाँ नए भौगोलिक क्षेत्रों को आकार देने के लिये भारत को कुछ पुराने संबंधों को प्रबंधित करने की भी आवश्यकता होगी। इस संदर्भ में हिंद-प्रशांत क्षेत्र को अलग-थलग नहीं देखा जाना चाहिये, क्योंकि इसके बाज़ार और समुदाय भी यूरेशियाई महाद्वीप के साथ तेज़ी से जुड़ रहे हैं। यूरेशिया में लोकतांत्रिक और नियम-आधारित शासन को मज़बूत करने की क्षमता को देखते हुए भारत-यूरोपीय संघ के संबंधों ने कमज़ोर प्रदर्शन किया है। वहीं नाटो और भारत के मध्य संवाद की संभावना तलाशने के लिये किये गए मज़बूत प्रयास यह दर्शाते हैं कि विश्व के मानसिक मानचित्र कितनी तेज़ी से बदल रहे हैं। 
  • एक सामान्य सूत्र जो इन विश्लेषणों को बाँधता है, वह है अमेरिका और चीन के साथ भारत के विकसित होते संबंध। आखिरकार, ये तीनों देश इस सदी के मध्य तक विश्व की तीन सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के रूप में शामिल होंगे। 
  • अमेरिका, चीन की आक्रामक और विस्तारवादी नीति को बेअसर करने के अपने प्रयास में भारत को एक भागीदार के रूप में देखता है। चूँकि भारत, चीन के एशिया में सबसे महत्त्वपूर्ण सुरक्षा शक्ति के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका के स्थान लेने के प्रमुख रणनीतिक उद्देश्य को समझ गया है। ऐसे में, भारत के द्वारा लिये जाने वाले निर्णय निर्णय निस्संदेह रूप से अमेरिका और चीन के बीच शक्ति संतुलन को प्रभावित करेंगे, किंतु यह संभावना है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अपना अलग रास्ता स्वयं तय करेगा।

बहुपक्षीयवाद को तरज़ीह

  • बाह्य अंतरिक्ष पर अंतर्राष्ट्रीय वार्ता के साथ सरकारी विशेषज्ञों के संयुक्त राष्ट्र समूह से लेकर यूरोपीय संघ की आचार संहिता तक, प्रत्येक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया में भारत ने एक ओर बहुपक्षीयवाद को वरीयता दी है तो दूसरी ओर, बुनियादी तौर पर अस्थिर करने वाले’ व्यवहार का विरोध भी किया है। इस सूची में साइबर गवर्नेंस, विशेष रूप से उभरती प्रौद्योगिकियों पर भारत की भागीदारी को जोड़े जाने की आवश्यकता है। 
  • हालाँकि, तकनीकी प्रणालियाँ तेज़ी से बदल रही हैं, किंतु भारत ने अपनी डिजिटल अर्थव्यवस्था के लिये ऐसे नियम निर्धारित किये हैं, जो उसके विकास हितों को साधने के साथ अन्योन्याश्रयता अर्थात् परस्पर निर्भरता को को बनाए रख सकें। 
  • नई दिल्ली को इन बदलती भू-राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप आकार लेने के बजाय इन परिवर्तनों को स्वयं के अनुरूप तैयार करना चाहिये। भारत को आर.सी.ई.पी. से स्वयं को अलग करने के फ़ैसले से सबक़ लेते हुए पारंपरिक झिझक को दूर कर बहुपक्षीय व्यापार के अग्रणी समर्थक के तौर पर उभरने की आवश्यकता है।
  • वैश्विक हित में भारत का सबसे महत्वपूर्ण योगदान देश के नागरिकों को स्थायी आजीविका प्रदान करना और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटना है।  वैश्विक एस.डी.जी. एजेंडा को लागू करने में सफलता या विफलता लगभग पूरी तरह से भारत के अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने पर निर्भर करेगी । 
  • भारत पहले से ही वैश्विक टीकों की मांग का लगभग आधा उत्पादन कर रहा है और वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा के लिये आवश्यक बौद्धिक संपदा अधिकारों में सुधार की मांग करने वाले अग्रणी देशों में से एक है।
  • भारत पर कम कार्बन-उत्सर्जन करने के साथ-साथ विश्व में अपने तथा अन्य देशों के लिये आजीविका के लक्ष्यों को उपलब्ध कराने का दायित्व होगा। यही कारण है कि भारत अब विकास के लिये ‘कृषि से उद्योग’ वाले मॉडल के भरोसे नहीं रह सकता है।
  • भारत का 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का न्यायसंगत, समानतापूर्ण और समावेशी लक्ष्य, एस.डी.जी. एजेंडे को लागू करके ही संभव है। 
  • ये सभी लक्ष्य भारत के विशाल डिजिटल बुनियादी ढाँचे, नवाचार क्षमताओं और कुशल कार्यबल द्वारा प्राप्त किये जा सकते हैं, क्योंकि भारत चौथी औद्योगिक क्रांति का उपयोग अपने हितों को साधने के लिये कर रहा है। भारत के हरित परिवर्तन को आगे बढ़ाने का कार्य नागरिकों के निर्णयों तथा निजी क्षेत्र की ऊर्जा क्षमता से ही संभव है। सतत विकास और जलवायु परिवर्तन एजेंडा हासिल करने की अनिवार्यता, भारत को एक अलग प्रकार की ‘उभरती हुई शक्ति’ बनाते हैं।
  • इसकी प्रमुखता का मार्ग सैन्य प्रभुत्व या प्रतिरोधी (Coercive) आर्थिक क्षमताओं से परिभाषित नहीं होगा। इसकी बजाय भारत के उदय को, उभरते समुदायों को आर्थिक विकास और सामाजिक गतिशीलता के नए मॉडलों की तत्काल आवश्यकता के लिये समाधान, प्रौद्योगिकी और वित्त प्रदान करने की क्षमता की आवश्यकता होगी। यह ‘नई आर्थिक कूटनीति’ आने वाले दशक में भारत की विदेश नीति की प्राथमिकताओं को परिभाषित करेगी।
  • भारत की विदेश नीति का अंकन इसकी लोकतांत्रिक, मुक्त और बहुलतावादी ऐतिहासिक सभ्यता वाली पहचान से निर्धारित होगा। निश्चित रूप से भारत की विदेश नीति के कारकों का सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व सामाजिक एकजुटता को बनाए रखने के साथ आर्थिक उन्नति व विकास करते भारत की क्षमता से तय होगा। यह भारत को पूरे विश्व में अधिक समृद्धि और शांति की ओर ले जाने में मदद करेगा। 
Have any Query?

Our support team will be happy to assist you!

OR