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क्या केवल चुने हुए प्रतिनिधि ही मुख्यमंत्री बन सकते हैं?

संदर्भ 

हाल ही में, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने त्यागपत्र दे दिया। इसका कारण छह माह के भीतर विधायक के रूप में उनके निर्वाचन में संवैधानिक अड़चन को बताया जा रहा है। वर्तमान में पश्चिम बंगाल में भी अनिर्वाचित मुख्यमंत्री है। पूर्ववर्ती मिसालों और प्रक्रियाओं के माध्यम से इसे समझने के साथ-साथ भारत के चुनाव आयोग की प्रक्रिया पर भी नजर डालने की आवश्यकता है।

प्रश्न व चिंताएँ

  • क्या मुख्यमंत्रियों को अनिवार्य रूप से निर्वाचित विधायकों के पूल से ही चुना जाना चाहिये? अथवा क्या किसी संसद सदस्य को मुख्यमंत्री चुने जाने पर तुरंत सदन से इस्तीफा दे देना चाहिये? मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति को लेकर ऐसे संवैधानिक, सैद्धांतिक व राजनीतिक मुद्दों पर विचार करने की आवश्यकता है।
  • भारत में संसदीय लोकतंत्र है, जिसका आशय है कि जिसके पास लोकसभा में बहुमत है, वह प्रधानमंत्री होगा। सभी मंत्रियों का संसद सदस्य (सांसद) होना या छह महीने के भीतर निर्वाचित होना भी आवश्यक है। दूसरे शब्दों में, कोई भी मंत्री यदि छह महीने में सांसद नहीं बन पाता है, तो वह स्वतः ही शासन के अयोग्य हो जाता है।
  • यह दर्शाता है कि मुख्यमंत्री को भी सदन के सदस्यों द्वारा अपनी स्वतंत्र इच्छा से चुना जाना चाहिये। साथ ही, यह भी मान लिया जाता है कि मुख्यमंत्री सदन का सदस्य है। हालाँकि, मंत्रियों की नियुक्ति को लेकर कुछ असाधारण परिस्थितियों के उदाहरण मौजूद हैं। वर्ष 1991 में राष्ट्रहित व जनहित में डॉ मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया गया था।
  • यद्यपि मुख्यमंत्रियों के मामले में स्थिति थोड़ी अलग है। राष्ट्रीय दलों के मामले में पार्टी आलाकमान तय करता है कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा। ऐसी स्थिति में निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों द्वारा लोकप्रिय व्यक्ति (Popular Choice) की अवधारणा का पालन नहीं होता है और ‘मुख्यमंत्री प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदस्यों द्वारा परोक्ष रूप से निर्वाचित व्यक्ति’ होता है।
  • संविधान एक व्यक्ति से अपेक्षा करता है कि वह एक समय में एक से अधिक संवैधानिक पद धारण न करे। अनुच्छेद-101 के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति संसद के दोनों सदनों का सदस्य है, तो उसकी एक सदन की सदस्यता समाप्त हो जाती है। यदि कोई सांसद है और विधायक के रूप में निर्वाचित हो जाता है (या इसके विपरीत हो- Vice versa) तो उसके पास इस्तीफा देने के लिये लगभग 14 दिन होते हैं।
  • कोई सांसद जब मुख्यमंत्री बनता है, तो वह उस राज्य की कार्यकारिणी का मुखिया होता है। ऐसे में प्राथमिक भूमिका को लेकर प्रश्न उठता है कि क्या वह संसद सदस्य के रूप में मतदान करे या राज्य में रहकर राज्य-विधायिका में उपस्थित हो और उसके प्रति जवाबदेह रहे? इसके लिये संविधान में संशोधन करना चाहिये, जिससे कोई व्यक्ति एक-साथ दो संवैधानिक पदों पर आसीन न हो।

क्या महामारी जैसी असाधारण परिस्थितियों में संवैधानिक और विधायी समय-सीमा में लचीलापन होना चाहिये?

  • असाधारण परिस्थितियों के आधार पर यदि पाँच वर्षों में संसदीय चुनावों की संवैधानिक आवश्यकता को स्थगित किया जाता है, तो सरकारें अधिक से अधिक बार असाधारण परिस्थितियाँ पैदा करने का प्रयास करेंगी और ऐसी स्थितियाँ सामान्य हो जाएँगी।
  • लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 151 के अनुसार, यदि सदन के कार्यकाल में केवल एक वर्ष शेष है, तो उपचुनाव नहीं होगा किंतु इसका अपवाद चुनाव आयोग के विवेक पर निर्भर करता है। धारा 151 की एक उपधारा में प्रावधान है कि चुनाव आयोग केंद्र सरकार के परामर्श से प्रमाणित करता है कि निर्धारित अवधि के भीतर उपचुनाव कराना मुश्किल है।

संस्थागत लचीलापन और  भारतीय निर्वाचन आयोग : सुधार

  • स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के माध्यम से सरकार का गठन वैध है और अगर इस वैधता को कम किया जाता है, तो यह गंभीर संकट है। यह वैधता स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने वाले निर्वाचन आयोग में जनता के विश्वास व धारणा पर टिकी है।
  • निर्वाचन आयोग का एक संविधान है जिसे सरकार से अलग व स्वतंत्र रखने के लिये डिज़ाइन किया गया है। यही कारण है कि एक बार नियुक्त होने के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त को महाभियोग के अलावा अन्य किसी प्रकार से नहीं हटाया जा सकता है।
  • यद्यपि दो सुधारों की ओर प्रमुखता से ध्यान देने की आवश्यकता है। आयोग की नियुक्ति तत्कालीन सरकार द्वारा विपक्ष से परामर्श किये बिना की जाती है। दुनिया में कहीं भी ऐसी स्थिति नहीं है। कुछ देशों में संसद द्वारा उम्मीदवारों की जांच की जाती है, जबकि कुछ मामलों में संसद उनका साक्षात्कार करता है। आयोग की नियुक्तियां कॉलेजियम के जरिये होनी चाहिये और वरिष्ठता के आधार पर पदोन्नति स्वत: होनी चाहिये।
  • दूसरा सुधार दोनों चुनाव आयुक्तों को हटाने की प्रक्रिया से है। उनका पद संरक्षित नहीं हैं और वे सरकार के डर व इच्छा से प्रभावित हो सकते हैं। अत: उनको भी सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिये।
  • केंद्रीय जांच ब्यूरो के निदेशक को एक समिति द्वारा नियुक्त किया जाता है, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता शामिल होते हैं। चुनाव आयोग, सी.बी.आई. प्रमुख की तुलना में कहीं अधिक मौलिक व महत्त्वपूर्ण संस्था है और राजनीतिक विचार-विमर्श के बाद की गई नियुक्ति आयोग को अधिक अधिकार भी प्रदान करेगा। केंद्रीय सूचना आयोग एक संवैधानिक निकाय नहीं बल्कि एक वैधानिक निकाय है, फिर भी इसकी नियुक्तियाँ कॉलेजियम के माध्यम से होती हैं। सीबीआई एक संवैधानिक या वैधानिक निकाय भी नहीं है। अत: नियुक्तियों के संबंध में प्राथमिकताएँ तय करने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

  • अनिर्वाचित मुख्यमंत्री के लिये छह महीने के भीतर निर्वाचन की आवश्यकता एक अच्छा प्रावधान है किंतु ऐसे विकल्पों का इस्तेमाल पूरी समझदारी और ईमानदारी से करना चाहिये, न कि केवल राजनीतिक समीकरण के लिये।
  • निर्वाचन व चुनाव सुनिश्चित करना चुनाव आयोग का कार्य है, जिससे कोई संवैधानिक संकट न उत्पन्न हो, क्योंकि संविधान साधारण परिस्थितियों में राष्ट्रपति शासन जैसे विकल्प की अनुमति नहीं देता है। यदि संवैधानिक संकट उत्पन्न होता है तो यह संविधान की देन होने की बजाय मानवीय रूप से सृजित संकट होगा।
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