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चीन की तीन बच्चों की नीति

(प्रारंभिक परीक्षा : राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ)
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 - भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव)

संदर्भ

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी नेएक बच्चे की नीति’ (वर्ष 1979) को त्यागने के छह वर्ष उपरांत अबतीन बच्चों की नीतिप्रस्तुत की है। पार्टी के अनुसार, इस कदम से चीन की जनसंख्या संरचना में सुधार होगा, वृद्ध आबादी के सापेक्ष नए मानव संसाधन का सृजन होगा तथा देश के मानव संसाधन से संबधित लाभों को भी संरक्षित किया जा सकेगा।

परिवर्तन की आवश्यकता क्यों?

  • चीन की एक बच्चे की नीति को वर्ष 1979 में तत्कालीन राष्ट्रपति देंग जियाओपिंग द्वारा लागू किया गया था, जो वर्ष 2015 तक बरकरार रही। हालाँकि, आर्थिक विकास को कम करने वाली तेज़ी से बढ़ती वृद्ध आबादी के डर ने सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी कोप्रति विवाहित युगलको दो बच्चों की अनुमति देने के लिये मजबूर किया।
  • उक्त ढील से देश में युवा आबादी के अनुपात में कुछ सुधार तो हुआ, किंतु नीति परिवर्तन कोआसन्न जनसांख्यिकीय संकटको टालने के लिये अपर्याप्त माना गया।
  • मई 2021 के आरंभ में जारी जनगणना आँकड़ों ने नवीनतम बदलाव को प्रेरित किया है। वर्ष 2020 में 12 मिलियन नए जन्म दर्ज किये गए हैं, जो वर्ष 1961 के पश्चात् से सबसे कम हैं।
  • जनगणना के अनुसार 60 वर्ष और अधिक आयु के व्यक्तियों की कुल संख्या 264 मिलियन है, जिसमें वर्ष 2010 से 5.44 प्रतिशत की वृद्धि हुई है तथा यह कुल जनसंख्या का 18.70 प्रतिशत है। एक बच्चे की नीति के बाद से चीन की कुल प्रजनन दर वर्ष 1979 के 2.75 की तुलना में वर्ष 2018 में 1.69 हो गई है।

एक बच्चे की नीति 

  • इस नीति को शहरी क्षेत्रों में अधिक प्रभावी ढंग से क्रियान्वित किया गया था, जिसमें वित्तीय प्रोत्साहन, गर्भ-निरोधकों की व्यापक उपलब्धता तथा इसका उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई शामिल थी।
  • चीनी सत्ताधीशों ने लंबे समय से इस नीति को एक सफलता के रूप में प्रचारित करते हुए दावा किया कि इससे 400 मिलियन नए जन्म को रोककर, भोजन और जल जैसी गंभीर समस्याओं को दूर करने में सफलता मिली है।
  • हालाँकि, एक बच्चे की सीमा भी असंतोष का एक प्रमुख कारण था, क्योंकि राज्य ने ज़बरन गर्भपात और नसबंदी जैसी क्रूर रणनीति को अपनाया था।
  • मानवाधिकारों के उल्लंघन तथा गरीब चीनियों के साथ अन्याय के कारण इस नीति की कटु आलोचना भी हुई साथ ही, अमीरों द्वारा नीति का उल्लंघन करने पर आर्थिक प्रतिबंधों का भुगतान करने संबंधी प्रावधानों के कारण यह बेहद विवादास्पद भी रहा।
  • इसके अतिरिक्त, चीन के शासकों पर सामाजिक नियंत्रण के एक उपकरण के रूप मेंप्रजनन सीमाओंको लागू करने का आरोप भी लगा।उइगर नृजातीय मुस्लिमइसके उदाहरण हैं, जिन्हें अपनी जनसंख्या वृद्धि को प्रतिबंधित करने के उद्देश्य से कम बच्चों को जन्म देने के लिये मजबूर किया गया।
  • उक्त नीति केकथित लाभोंपर सवाल भी उठाया गया है। इस नीति के कारण जन्म दर में गिरावट आई तथा लिंगानुपात पुरुषों के पक्ष में चला गया। यह लड़के के जन्म को पारंपरिक तौर पर प्राथमिकता प्रदान करने के कारण हुआ, इसी के परिणामस्वरूप कन्या-भ्रूण के गर्भपात तथा अनाथालयों में रखी गई या छोड़ी गई लड़कियों की संख्या में भी वृद्धि हुई।

तीन बच्चों की नीति से संबंधित आशंकाएँ

  • संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2030 के पश्चात् चीन की जनसंख्या में गिरावट आने लगेगी, लेकिन कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह आगामी एक या दो वर्षों में ही हो सकता है। 
  • इसके अतिरिक्त, वर्ष 2025 तक चीन, भारत से कुल जनसंख्या के मामले में पीछे हो जाएगा। वर्ष 2020 में भारत की अनुमानित जनसंख्या 138 करोड़ थी, जो चीन से मात्र 1.5 प्रतिशत ही कम है।
  • विशेषज्ञों का कहना है कि केवल प्रजनन अधिकारों संबंधी ढील देने से ही अवांछित जनसांख्यिकीय परिवर्तन को नहीं टाला जा सकता है। उनका कहना है कि कम बच्चों को जन्म देने का मुख्य कारण जीवन-यापन की बढ़ती लागत, शिक्षा आदि कारकों को प्रोत्साहित करना है।
  • लंबेवर्किंग-ऑवरके चलन ने इस समस्या को और भी बद्तर बना दिया है। दशकों तक एक बच्चे की नीति लागू रही है, इससे एक सांस्कृतिक रूपांतरण भी हुआ है, इस कारण कई युगल का मानना है कि एक बच्चा ही पर्याप्त है। साथ ही, कुछ युगल संतानोत्पत्ति के ही पक्षधर नहीं हैं।

भारत के लिये सबक

  • भारत दो-बच्चे के मानदंड के माध्यम से जनसंख्या नियंत्रण संबंधी उपायों के विचार से जूझ रहा है। जनसंख्या नियंत्रण का उल्लेख दो वर्ष पूर्व, प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में किया था।
  • भारत कठोर जनसंख्या नीतियों को लागू करने के चीन के असफल अनुभव से सीख सकता है। कठोर जनसंख्या नियंत्रण उपायों ने चीन को एक ऐसे मानवीय संकट में डाल दिया है, जिससे बचा जा सकता था।
  • यदि दो बच्चों की सीमा जैसे बलपूर्वक प्रावधान लागू किये जाते हैं, तो भारत की स्थिति और खराब हो सकती है। तीन दशकों के भीतर वृद्ध आबादी के और उनकी देखभाल करने के लिये बहुत कम आबादी, जैसे मुद्दों के साथ भारत की भी स्थिति चीन के समान ही हो जाएगी।
  • सिक्किम और लक्षद्वीप अभी वृद्ध आबादी के साथ-साथ सिकुड़ते कार्यबल की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, क्योंकि उनकी प्रजनन दर कम है।
  • भारत लंबे समय सेजनसंख्या विस्फोटपर अंकुश लगाने के लिये प्रयासरत है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि उसे इसकी जगहजनसंख्या स्थिरीकरणपर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
  • भारत ने अपनेपरिवार नियोजनउपायों के संबंध में सराहनीय कार्य किया है, और अब प्रजनन दर 2.1 के प्रतिस्थापन दर पर हैं, जो वांछनीय है।
  • भारत को जनसंख्या स्थिरीकरण को बनाए रखने की आवश्यकता है क्योंकि सिक्किम, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, केरल और कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों में कुल प्रजनन दर, प्रतिस्थापन दर से काफी नीचे है, जिसका अभिप्राय है कि भारत में आगामी 30-40 वर्षों में भी वही परिस्थिति होगी, जिसका अनुभव अभी चीन कर रहा है।

प्रतिस्थापन दर- प्रतिस्थापन दर, प्रजनन दर का वह स्तर है, जिस पर जनसंख्या एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अपने आप को प्रतिस्थापित कर लेती है। 2.1 से कम दर की प्रत्येक नई पीढ़ी, पुरानी और पिछली पीढ़ी की तुलना में कम आबादी वाली होती है।

  • संयुक्त राष्ट्र कीइंडिया एजिंग रिपोर्ट, 2017’ के अनुसार, भारत में, 60 वर्ष से अधिक आयु की जनसंख्या का हिस्सा वर्ष 2015 के 8 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2050 तक 19 प्रतिशत हो जाएगा। सदी के अंत तक, वृद्धों की संख्या कुल जनसंख्या का लगभग 34 प्रतिशत हो जाएगी।
  • इस सदी के मध्य तक वृद्धों की वार्षिक वृद्धि दर 3 प्रतिशत से अधिक होगी, जो अन्य आयु वर्गों की तुलना में वृद्धि की तीव्र गति को प्रदर्शित करती है। इसके विपरीत, युवा आयु वर्ग की वृद्धि दर पहले से ही नकारात्मक है।

निष्कर्ष

  • चीन का अनुभव, राज्य के नेतृत्व वाले जनसांख्यिकीय हस्तक्षेपों के अनपेक्षितसामाजिक और आर्थिकपरिणामों की याद दिलाता रहेगा।
  • भारत को सबसे अधिक आबादी वाला देश होने के बारे में चिंतित होने की बजाय आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिये उत्पादकता में सुधार की आवश्यकता है।
  • इसके अतिरिक्त, जनसांख्यिकीय लाभांश को व्यर्थ करने की बजाय युवाओं की रोज़गार क्षमता में सुधार की भी आवश्यकता है।
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