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राइस-फिश फॉर्मिंग: पर्यावरण अनुकूल व गहन कृषि प्रणाली

(मुख्य परीक्षा: प्रश्नपत्र-3: मुख्य फसलें, फसलों का पैटर्न, सिंचाई के विभिन्न प्रकार, संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण)

पृष्ठभूमि

खाद्यान्न संकट तथा पर्यावरण पर बढ़ते दबाव को दूर करने हेतु कृषि उत्पादन प्रणालियों की धारणीय गहनता (Sustainable intensification) अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती जा रही है। इसी संदर्भ में चावल उत्पादन के साथ-साथ जलीय जीव पालन एक अद्वितीय कृषि परिदृश्य का निर्माण करती है।

चावल की खेती:  प्रमुख चिंताएँ

  • विश्व स्तर पर चावल का प्रयोग एक मुख्य खाद्यान्न के रूप में होता है। वैश्विक जनसंख्या के लगभग 50 % लोगों को चावल से भोजन प्राप्त होता है।
  • यह एक ऐसी फसल है, जिसमें जल संसाधन का अधिक मात्रा में उपयोग होता है।
  • इसके अलावा, धान के खेतों से अत्यधिक मात्रा में हरित गृह गैसों (GHGs)का उत्सर्जन होता हैं। उत्सर्जित होने वाली इन हरित गृह गैसों में मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड प्रमुख है।
  • मीथेन का उत्सर्जन जलमग्न परिस्थितियों में कार्बनिक या जैविक पदार्थों के अवायवीय क्षरण (Anaerobic Degradation) पर निर्भर करता है, क्योंकि ऐसी स्थिति में ऑक्सीजन की कमी होती है। इसमें पौधों के अवशेष, कार्बनिक पदार्थ तथा जैविक खाद शामिल होते हैं।
  • वायुमंडल में कुल 10 से 20 प्रतिशत मेथेन धान के खेतों से उत्सर्जित होती है। यह इसलिये और महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि मीथेन के वैश्विक तापन की क्षमता (Global Warming Potential- GWP) कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में 25 गुना अधिक होती है।
  • फलस्वरुप चावल की खेती का पर्यावरण पर प्रभाव अत्यधिक चिंता का विषय है। इस प्रकार, वैश्विक जलवायु परिवर्तन कृषि उत्पादन से भी निकटता से जुड़ा हुआ है। अत: चावल उत्पादन प्रणालियों के प्रबंधन में सुधार हेतु समाधानों की आवश्यकता है।

राइस-फिश फॉर्मिंग: एक नज़र

  • राइस-फिश फॉर्मिंग प्रणाली चावल उत्पादन के साथ-साथ जलीय जीवों के पालन की साझा कृषि (Co-Culture) है। इसमें धान के साथ-साथ जलीय जीवों जैसे- मछली, शेलफिश (Shellfish), केकड़ा, झींगा और बत्तख का भी पालन व उत्पादन  किया जाता है।
  • इस प्रणाली को खाद्यान्न तथा खाद्य के रूप में जीव जनित प्रोटीन प्राप्त करने हेतु भूमि व जल संसाधनों के अधिकतम उपयोग की तकनीक के रूप में प्रस्तावित किया गया है। यह प्रणाली अब कृषि-उत्पादन (Agro-Production) का ही नहीं बल्कि कृषि-पालन (Agro-Culture) का भी एक स्वरूप है।
  • यह कृषि प्रणाली, विशेषकर उष्णकटिबंधीय (Tropical) और उप-उपोष्ण कटिबंधीय (Sub-Subtropical) एशिया के साथ-साथ वैश्विक स्तर पर भी एक अद्वितीय कृषि परिदृश्य की सम्भावना का निर्माण करती है।
  • सम्भवत: इस विधि का प्रारम्भ उत्तर-पूर्व भारत में चावल की खेती के शुरुआत के साथ जोड़ा जाता है। इसका कारण यह है कि जलयुक्त चावल के खेत मछलियों के लिये प्राकृतिक आवास का निर्माण करते हैं।

राइस-फिश फॉर्मिंग प्रणाली के लाभ

आर्थिक लाभ

  • राइस-फिश फॉर्मिंग प्रणाली में अल्प मात्रा में ही कीटनाशकों व उर्वरकों की आवश्यकता होती है, अतः लागत मूल्य कम आती है। जिससे इस प्रणाली को अपनाने से किसानों की आर्थिक दक्षता में सुधार हुआ है।
  • बांग्लादेश इसका एक अच्छा उदाहरण है। वहाँ सामान्य रूप से केवल चावल उत्पादन की अपेक्षा राइस-फिश फॉर्मिंग उत्पादन प्रणाली से कुल शुद्ध आय लाभ (Net Income Return) 50% से अधिक थी। इस कृषि प्रणाली से चावल उत्पादन में 10% से लेकर 26% तक वृद्धि दर्ज की गई। इसके अलावा, श्रम लागत में 19% से लेकर 22% तक की गिरावट के साथ-साथ सामग्री लागत में भी 7% की कमी दर्ज की गई। इसके अतिरिक्त, मत्स्य उत्पादन से शुद्ध आय में भी वृद्धि हुई।
  • इंडोनेशिया में भी केवल चावल की फसल की अपेक्षा राइस-फिश फॉर्मिंग प्रणाली से मछली के साथ-साथ 27% अधिक शुद्ध आय लाभ प्राप्त हुआ।
  • यह विधि सामाजिक रूप से जलीय-कृषि (Aquaculture) उद्योग को कृषि उद्योग के साथ जोड़ती है, जोकि एकल कृषि (Monoculture) के मामले में सम्भव नहीं है।
  • इस प्रकार यह विभिन्न हितधारकों के बीच सम्पर्क को बढ़ाता है जो उपयोगी कौशल और तकनीकी ज्ञान प्रदान करते हैं या उसे साझा करते हैं।

पर्यावरणीय लाभ

  • राइस-फिश फॉर्मिंग प्रणाली मेथेन व अन्य हरित गृह गैसों के उत्सर्जन को कम करने में सक्षम है। जलीय जीव, विशेष रूप से तलहटी से भोजन प्राप्त करने वाले (Bottom Feeders) जीव जैसे- केकड़े और कार्प (विशेष प्रकार की मछलियाँ) आदि अपने आवागमन या कभी-कभी भोजन की खोज में मिट्टी की परतों में संचलन पैदा करते हैं। इससे मीथेन उत्पादन प्रक्रियाओं पर प्रभाव पड़ता हैं।
  • सम्भावित रूप से, जलीय जीव खेत के पानी और मिट्टी में तनु ऑक्सीजन की मात्रा में वृद्धि करते हैं। अंतत:, अवायवीय प्रक्रिया को यह वायवीय प्रक्रिया में बदल देता है, जो मेथेन उत्सर्जन को कम करने में मदद करता है।
  • एकल रूप से चावल की कृषि की अपेक्षा राइस-फिश फॉर्मिंग प्रणाली से मीथेन का उत्सर्जन 34.6 % कम होता है।
  • इसके अलावा, मिट्टी की उर्वरता को सुधारने और एक प्रमुख वैश्विक पर्यावरणीय मुद्दा जैसे: मृदा-क्षरण को कम करने के लिये भी यह प्रणाली लाभकारी है।
  • इस प्रकार, इस प्रणाली की बहु-पारिस्थितिक प्रक्रियाएँ जैव विविधता, खाद्य सुरक्षा, मृदा सम्वर्धन और उत्सर्जन में कमी को प्रभावित करती हैं।

भारत में इसकी सम्भावना

  • भारत में कुल 46.5 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल भूमि चावल उत्पादन के लिये उपलब्ध है। इसमें से अनुमानत: 20 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल मुख्य रूप से वर्षा आधारित मध्यम भूमि व जलभराव वाले क्षेत्रों के लिये राइस-फिश फॉर्मिंग प्रणाली को अपनाये जाने हेतु उपयुक्त है।
  • यद्यपि वर्तमान में केवल 0.23 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल राइस-फिश फॉर्मिंग प्रणाली के अंतर्गत आता है। इस प्रणाली को निम्न स्तर पर अपनाने तथा उपज में कमी का मुख्य कारण उच्च उपज वाले (HYV) चावल की किस्मों की शुरुआत है।
  • साथ ही कीटनाशकों के लगातार प्रयोग ने राइस-फिश फॉर्मिंग प्रणाली को प्रभावित किया है। भारत में इस प्रणाली के लिये पूर्वोत्तर क्षेत्र में विशेष रूप से बहुत विस्तृत क्षेत्र उपलब्ध है।

आगे की राह

चावल और मछली दोनों भारत के प्रमुख भोजन हैं। भारत की समृद्ध पारम्परिक आदिम कृषि इस दोहरी कृषि प्रणाली के जितनी ही पुरानी है। इस उच्च क्षमता वाले क्षेत्र का आकलन कमतर स्तर पर किया गया है। इससे उच्च उत्पादकता प्राप्त करने की तत्काल आवश्यकता व सम्भावना है। इसके अलावा, राइस-फिश फॉर्मिंग इको-सिस्टम पर आधारभूत अनुसंधान को भी बढ़ावा देना आवश्यक है। इसमें राइस-फिश फॉर्मिंग की बुनियादी तकनीकों के साथ-साथ अभियांत्रिकी उपयोग के लिये भी तकनीक की आवश्यकता है। कृषक अनुकूल नीतियों, आसान ऋण योजनाओं आदि के साथ-साथ शुरुआती निवेश में भी सहायता की आवश्यकता है।

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