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संसदीय प्रणाली में स्पीकर की भूमिका

(प्रारंभिक परीक्षा :  भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान, राजनीतिक प्रणाली)
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 - संसद और राज्य विधायिका- संरचना, कार्य, कार्य-संचालन, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार और इनसे उत्पन्न होने वाले विषय।)

संदर्भ

  • राज्य विधानसभाओं में होने वाले ‘हंगामे और कोलाहल’ की प्रवृत्ति संसद तक पहुँच चुकी है। इस बार संसद के मानसून सत्र में इस प्रवृत्ति को पुनः देखा गया। विशेषज्ञों का मानना है कि विगत तीन दशकों से संसद को बाधित करना विपक्ष का ‘स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसिज़र’ बन गई है।  
  • ‘स्पीकर की स्वतंत्रता और निष्पक्षता में कमी’, संसद और राज्य विधानसभाओं के कामकाज में गिरावट का एक प्रमुख कारण है।

स्पीकर के पद का महत्त्व

  • संविधान सभा के सदस्यों ने व्यापक बहस के बाद ‘शासन के वेस्टमिंस्टर मॉडल’ को अपनाया था। लोकसभा सदस्यों को भी वही ‘शक्तियाँ, विशेषाधिकार तथा उन्मुक्तियाँ’ प्रदान की गईं, जो ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ को प्राप्त थीं।
  • लोकसभा का स्पीकर भी ब्रिटिश संसद के स्पीकर की तरह प्रतिनिधि सदन का सर्वोच्च प्राधिकारी है। उसके पास सदन से संबंधित व्यापक शक्तियाँ हैं, जिनके तहत सदन के कामकाज को व्यवस्थित रूप से संचालित करना उसका प्राथमिक कर्तव्य माना गया है।
  • संवैधानिक कानून की प्रत्येक पाठ्य पुस्तक किसी भी स्पीकर के दो आवश्यक गुणों की ओर इशारा करती है, वे हैं- ‘स्वतंत्रता और निष्पक्षता’।
  • लोकसभा के प्रथम स्पीकर जी.वी. मावलंकर ने कहा था कि जब एक बार कोई व्यक्ति स्पीकर के पद पर निर्वाचित हो जाता है, तो उससे राजनीतिक दल और राजनीति से ऊपर उठने की अपेक्षा की जाती है।
  • वह न्याय के सभी मानकों को समान रूप से धारण करता है, भले ही वह किसी भी दल का व्यक्ति क्यों न हो।
  • पंडित नेहरू ने स्पीकर के पद को ‘देश की स्वतंत्रता और स्वाधीनता के प्रतीक’ (Symbol of the Nation’s Freedom and Liberty) के रूप में संदर्भित किया था और इस बात पर ज़ोर दिया था कि स्पीकर को ‘उत्कृष्ट क्षमता और निष्पक्षता’ वाला व्यक्ति होना चाहिये।
  • एम.एन. कौल और एस.एल. शकधर ने अपनी पुस्तक ‘संसदीय पद्धति और प्रक्रिया’ में स्पीकर को ‘सदन के अंतःकरण और संरक्षक’ के रूप में संदर्भित किया है। इस पुस्तक में कहा गया है कि वह लोकसभा के प्रमुख प्रवक्ता के रूप में इसकी ‘सामूहिक आवाज़’ का प्रतिनिधित्व करता है।

स्पीकर की भूमिका

  • स्पीकर का यह कर्तव्य है कि वह निर्धारित करे कि सदन में किन मुद्दों पर चर्चा की जाएगी। यदि मामला अत्यधिक सार्वजनिक महत्त्व का है, तो ‘स्थगन प्रस्ताव’ प्रस्तुत करने या ‘ध्यानाकर्षण नोटिस’ को स्वीकार करने का पूर्ण विवेकाधिकार उसके पास होता है।
  • ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के संबंध में संबंधित मंत्री को बयान देना पड़ता है या बाद में बयान देने के लिये समय मांगना पड़ता है।
  • जी.वी. मावलंकर ने कहा था कि अगर कोई मामला अत्यधिक गंभीर प्रकृति का है, जिससे देश प्रभावित हो सकता है, तो सदन को उस पर तुरंत ध्यान देना चाहिये।
  • उल्लेखनीय है कि संविधान के अनुच्छेद 75(3) में ‘संसद की सर्वोच्चता’ पर ज़ोर दिया गया है। इसके अनुसार, मंत्रिपरिषद् लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप उत्तरदायी होगी।

स्पीकर के निर्णयों पर प्रश्नचिह्न

  • उच्चतम न्यायालय ने ‘दल-बदल विरोधी’ कानून पर कई निर्णय दिये हैं। इन निर्णयों से एकसमान प्रतिरूप प्रदर्शित होता है कि विधायिका के अध्यक्षों ने किस प्रकार पक्षपातपूर्ण आचरण करते हुए अपने पद का दुरूपयोग किया है।
  • दुखद तथ्य यह है कि विगत एक दशक से भी अधिक समय से स्पीकर्स ने किस प्रकार निष्पक्ष और स्वतंत्र होने की बजाय एक विरोधाभासी भूमिका निभाई है।
  • वस्तुतः यह अनिवार्य किया जाना चाहिये कि स्पीकर अपने दल की सदस्यता से इस्तीफा दे तथा संविधान के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करते हुए सदन की गरिमा को बरक़रार रखे।
  • वर्तमान प्रथाओं के तहत स्पीकर के सत्ताधारी दल के सदस्य बने रहने का अपरिहार्य परिणाम यह है कि वह ऐसी किसी भी बहस या चर्चा को अनुमति देने से इनकार कर सकता है, जो राष्ट्रीय हित में आवश्यक हो। हालाँकि, उसकी यह भूमिका सत्ताधारी दल के लिये शर्मिंदगी का कारण भी बन सकती है।
  • स्पीकर की ये भूमिका अनिवार्यतः विपक्ष द्वारा संसद को लगातार बाधित करने की ओर ले जाती है। दरअसल, एक अध्यक्ष जो सत्ताधारी दल का सदस्य बना रहता है, वह क्रिकेट में बल्लेबाज़ी करने वाली टीम की तरफ से नियुक्त किये जाने वाले ‘अंपायर’ की तरह होता है।
  • संसदीय कार्यवाही में लगातार व्यवधान से न केवल सदन की प्रतिष्ठा को चोट पहुँचती है, बल्कि उसका प्राथमिक कार्य भी बाधित होता है। उल्लेखनीय है कि संसद का प्राथमिक कार्य सावधानीपूर्वक बहस और विचार-विमर्श के पश्चात् देश के लिये कानून निर्मित करना है।
  • यही कारण है कि प्रत्येक अधिनियमित कानून को ‘संसद के ज्ञान’ का प्रतिनिधित्व करने के रूप में संबोधित किया जाता है। इसी आलोक में यह भी ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि संसदीय लोकतंत्र में ‘विवादास्पद कानूनों’ पर बहस के दौरान सदन में कुछ बेहतरीन भाषण दिये गए हैं।

हालिया उदाहारण

  • संसदीय कार्यवाहियों के ठप होने के कारण महत्त्वपूर्ण विधेयकों को बिना किसी चर्चा के पारित कर दिया जाता है। हाल ही में संपन्न हुए मानसून सत्र, 2021 में एक भी विधेयक को जाँच के लिये किसी भी प्रवर समिति को नहीं भेजा गया।
  • विगत दिनों भारत के मुख्य न्यायाधीश ने भी महत्त्वपूर्ण विधेयकों के पारित होने के दौरान पर्याप्य चर्चा नहीं होने के हानिकारक प्रभावों पर प्रकाश डाला था।

कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि

  • संसद की प्रभाविता में कमी का सबसे खतरनाक परिणाम यह है कि कार्यपालिका - नौकरशाही - शक्तियों को नियंत्रित करना आरंभ कर देती है।
  • वर्ष 1951 में उच्चतम न्यायालय की 9 न्यायाधीशों की पीठ ने अभिनिर्धारित किया था कि ‘आवश्यक विधायी कार्यों’ को नौकरशाही (प्रशासन) के हवाले नहीं किया जा सकता है क्योंकि कानून बनाना विधायिका का विशेषाधिकार है।
  • इस संवैधानिक आदेश का व्यापक तौर पर उल्लंघन करते हुए वर्तमान में ‘दूरगामी परिणाम’ वाले विभिन्न ‘नियमों और अधिसूचनाओं’ को जारी किया जा रहा है।
  • हाल ही में, केंद्र सरकार द्वारा जारी सूचना प्रौद्योगिकी तथा इलेक्ट्रॉनिक कॉमर्स से संबंधित नियम उक्त उल्लंघन के ताज़ा उदाहरण हैं। सम्यक् रूप से इन दोनों नियमों को संसद के द्वारा अधिनियमित किया जाना चाहिये।

भावी राह

  • ‘शक्तियों का पृथक्करण’ हमारे संविधान के बुनियादी ढाँचे का भाग है। यदि संसद की प्रासंगिकता ऐसे ही कम की जाएगी, तो हमारे लोकतंत्र की नींव उत्तरोत्तर कमज़ोर होते जाएगी।
  • स्पीकर के पद को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाए रखने तथा संवैधानिक दायित्वों के निर्वहन के लिये यह आवश्यक है कि स्पीकर अपनी पार्टी की सदस्यता से त्यागपत्र दें।
  • उदाहरणार्थ, वर्ष 1967 में नीलम संजीव रेड्डी ने स्पीकर के पद पर निर्वाचित होने के पश्चात् अपनी पार्टी की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था।
  • इस सुझाव को केंद्र और प्रत्येक राज्य, दोनों स्तर पर प्रत्येक सत्ताधारी दल द्वारा ज़िम्मेदारीपूर्वक स्वीकार किया जाना चाहिये। साथ ही, इस प्रकार की एक ‘संवैधानिक परंपरा’ भी स्थापित जानी चाहिये।

निष्कर्ष

कानून निर्माताओं को संसद और राज्य विधानसभाओं के स्पीकर के पद को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाने के लिये एकमत से निर्णय करना चाहिये, ताकि सदन में सार्वजनिक महत्त्व के मामलों पर और कानून बनाते समय पर्याप्त विचार-विमर्श हो सके।

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