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घृणापूर्ण भाषण से निपटने की आवश्यकता

(प्रारंभिक परीक्षा: भारतीय राज्यतंत्र और शासन, मुख्य परीक्षा: सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2;  शासन व्यवस्था, संविधान, शासन प्रणाली)

संदर्भ

केरल स्थित सीरो-मालाबार चर्च के एक बिशप ने अपने एक भाषण में ‘नारकोटिक जिहाद’ पद का उल्लेख किया। कई विधि विशेषज्ञों ने उनके इस भाषण को ‘घृणापूर्ण भाषण’ (Hate Speech) की श्रेणी में रख रहे हैं तथा उनके विरुद्ध कार्रवाई की माँग कर रहे हैं।

घृणापूर्ण भाषण

  • उक्त विवाद ने ‘घृणापूर्ण भाषण’ के विनियमन को लेकर कई पेचीदा सवालों को उत्पन्न कर दिया है। यह विचार करना महत्त्वपूर्ण है कि घृणापूर्ण भाषण को प्रतिबंधित करने के ‘दार्शनिक और नैतिक’ औचित्य क्या हैं।
  • ‘चैपलिंस्की बनाम न्यू हैम्पशायर वाद, 1942’ में संयुक्त राज्य अमेरिका के उच्चतम न्यायालय ने माना था कि उनका संविधान ‘अपमानजनक या उकसाने’ वाले शब्दों को संरक्षण प्रदान नहीं करता है। अर्थात् ऐसे शब्द, जिनके उच्चारण से किसी वर्ग को चोट पहुँचती हो या जिनके द्वारा शांति भंग का खतरा हो।
  • यह सोचना आवश्यक है कि उदार लोकतंत्र में कुछ विशेष प्रकार के भाषणों को इस आधार पर प्रतिबंधित क्यों किया जाए क्योंकि वे 'हानिकारक या अहितकर' हैं।
  • इसका उत्तर व्यक्तियों की ‘गरिमा और समानता’ पर आधारित है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति बुनियादी ‘मानवीय गरिमा और सभ्य व्यवहार’ का हकदार है।
  • ब्रिटिश शिक्षाविद लॉर्ड भीखू पारेख के अनुसार, "घृणापूर्ण भाषण लक्षित समूह के सदस्यों को एक दुश्मन के रूप में देखता है और उन्हें समाज के वैध और समान सदस्यों के रूप में स्वीकार करने से इनकार करता है तथा साझा जीवन के आधार पर उनकी सामाजिक स्थिति को कम करने का प्रयास करता है।”
  • इसके अतिरिक्त, यह व्यक्तियों और समूहों के मध्य अविश्वास और शत्रुता उत्पन्न कर सामान्य संबंधों को प्रभावित करता है तथा सामूहिक जीवन से संबंधित आचरण पर एक क्षयकारी प्रभाव (Corrosive Influence) भी डालता है। 

न्यायिक निर्णय

  • ‘प्रवासी भलाई संगठन बनाम भारत संघ वाद, 2014’ में भारतीय उच्चतम न्यायालय ने कनाडा के उच्चतम न्यायालय के ‘सस्केचेवान बनाम व्हाटकॉट वाद, 2013’ के निर्णय को संदर्भित किया था।
  • न्यायालय ने इस मामले में कहा था कि “घृणापूर्ण भाषण किसी संरक्षित समूह की जवाब देने की क्षमता को प्रभावित करता है, जिससे हमारे लोकतंत्र में उनकी पूर्ण भागीदारी के समक्ष एक गंभीर बाधा उत्पन्न होती है।"
  • यह विचार भारत के राजनीतिक संदर्भ में अच्छी तरह से प्रतिध्वनित होता है क्योंकि बहुसंख्यक राजनीतिक माहौल में अल्पसंख्यकों को नफरती बयानबाजी के विरुद्ध रक्षाहीन छोड़ दिया गया है।
  • इस प्रकार की बयानबाजी से न केवल अल्पसंख्यकों में भय उत्पन्न होता है, बल्कि उनकी पहचान के आधार पर हिंसा को भी बढ़ावा मिलता है।

कानूनी प्रावधान

  • संविधान का अनुच्छेद 19(2) भारत के सभी नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है।  परंतु यह अनुच्छेद भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्य के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या नैतिकता अथवा न्यायालय की अवमानना, मानहानि से संबंधित कतिपय निर्बंधनों के अधीन रहते हुए है।
  • उल्लेखनीय है कि घृणापूर्ण भाषण को भारत की किसी विधि में परिभाषित नहीं किया गया है। तथापि कतिपय विधानों में कानूनी प्रावधान भाषण की स्वतंत्रता के अपवादों को प्रतिषेधित करते हैं, इनमें शामिल हैं-

1. भारतीय दंड संहिता की धारा 124क

  • इस धारा के अंतर्गत जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्यरुपण द्वारा या भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान उत्पन्न करता या उत्पन्न करने का प्रयत्न करता है, तो उसे दंडित किया जाएगा।

2. भारतीय दंड संहिता की धारा 153क

  • इसके अनुसार धर्म, मूलवंश, जन्मस्थान, निवास स्थान, भाषा आदि के आधारों पर विभिन्न समूहों के मध्य शत्रुता को बढ़ावा देने और सौहार्द्र बने रहने पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला कार्य करने पर दंडित करने का प्रावधान है।

3. भारतीय दंड संहिता की धारा 153ख

  • इसके अनुसार राष्ट्रीय अखंडता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले लांछन व प्रख्यान को दंडित करने का प्रावधान है।

4. भारतीय दंड संहिता की धारा 295क

  • इस धारा के अनुसार, विमर्शित और विद्वेषपूर्ण कार्य, जो किसी वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करके उसकी धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आशय से किये गए हों, को दंडित करने का प्रावधान है।

5. भारतीय दंड संहिता की धारा 505 (1) और (2)

  •  इसके अंतर्गत विभिन्न समुदायों के बीच शत्रुता, घॄणा या वैमनस्यता उत्पन्न करने के आशय से असत्य कथन, जनश्रुति या रिपोर्ट के प्रकाशन या परिचालन को दंडित करने का प्रावधान है।

6. लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 

  • इस अधिनियम की धारा 8 ऐसे किसी व्यक्ति को चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित करती है , जो भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अवैध प्रयोग में संलिप्त होने के लिये दोषी ठहराया गया हो।
  • इसी अधिनियम की धारा 123(3क) और धारा 125 निर्वाचन के संबंध में धर्म, मूलवंश, जाति, समुदाय या भाषा के आधारों पर शत्रुता की भावनाओं को बढ़ाने को भ्रष्ट निर्वाचन आचरण के रूप में प्रतिषेध करती है।  

भावी राह

  • कानून समकालीन राजनीति में अव्यवहार और दुरूपयोग से ग्रस्त है। इसके परिचालन स्तर पर समस्याएँ हैं, जैसे कानून को कैसे प्रवर्तित और क्रियान्वित किया जाए।
  • एक तरफ, जहाँ नफरत और हिंसा की प्रवृत्ति वाले बयानों को नजरअंदाज किया जाता है, दूसरी ओर अक्सर इनके प्रावधानों अस्पष्ट या ग़लत रूप में संदर्भित भी किया जाता है।
  • दुर्भाग्य से केरल की घटना इकलौती नहीं है। इसलिये नफरत या घृणा को रोकने के लिये राजनीतिक और न्यायिक तरीकों से मुकाबला करने की ज़रूरत है।
  • भारत में घृणापूर्ण भाषण को संविधान या दंड विधियों में परिभाषित नहीं किया गया है और न ही इस पर कोई विशेष कानून ही है। इस कारण इसके दुरुपयोग क्षमता को देखते हुए एक सटीक ‘घृणापूर्ण भाषण विरोधी कानून’ तैयार करना आसान नहीं है।
  • अतः इस खतरे के राजनीतिक और शैक्षणिक समाधान ढूँढने की ज़रूरत है। इसके लिये ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ के संवैधानिक विचारों को सार्वजनिक शिक्षा का विषय बनाने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि जब कभी भी घृणापूर्ण भाषा फलता-फूलता है, तो राज्य को ऐसे मामलों में मौजूदा कानून के द्वारा विवेकपूर्ण तरीके से निपटने की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त, सरकार को कानून के शासन पर आधारित एक पंथनिरपेक्ष रुख अपनाकर नागरिकों को शिक्षित करने की भी आवश्यकता है।

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