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भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 100 वर्ष

(प्रारंभिक परीक्षा: भारत का इतिहास और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 1: 18वीं सदी के लगभग मध्य से लेकर वर्तमान समय तक का आधुनिक भारतीय इतिहास- महत्त्वपूर्ण घटनाएँ, व्यक्तित्व, विषय, स्वतंत्रता संग्राम- इसके विभिन्न चरण और देश के विभिन्न भागों से इसमें अपना योगदान देने वाले महत्त्वपूर्ण व्यक्ति/उनका योगदान)

संदर्भ 

इस वर्ष भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के गठन के 100 वर्ष पूरे हुए हैं। इसकी स्थापना की शुरुआत 26 दिसंबर, 1925 को हुए कानपुर सम्मेलन से मानी जाती है। इस शताब्दी समारोह ने भारत में साम्यवाद की उत्पत्ति, उसके वैचारिक प्रभाव, संगठनात्मक विकास तथा स्वतंत्रता आंदोलन में निभाई गई भूमिका पर एक बार फिर ध्यान केंद्रित किया है। 

भारतीय साम्यवाद की वैश्विक पृष्ठभूमि

  • साम्यवाद की वैचारिक जड़ें फ्रांसीसी क्रांति (1789) और नेपोलियन युद्धों (1796–1815) के बाद यूरोप में उत्पन्न राजनीतिक उथल-पुथल से जुड़ी हैं। इस दौर में समाज ‘राजशाही समर्थकों’ एवं ‘गणतंत्रवादी बदलाव’ के पक्षधर समूहों के बीच विभाजित हो गया। वस्तुतः औद्योगिक क्रांति ने सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को गहरा किया, जिससे समाजवादी विचारधारा के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बनीं।
  • 19वीं सदी में कार्ल मार्क्स ने पूंजीवाद से समाजवाद की ओर संक्रमण का सिद्धांत प्रस्तुत किया। यद्यपि मार्क्स को यह उम्मीद थी कि समाजवादी क्रांतियाँ उन्नत पूंजीवादी देशों में होंगी किंतु पहली सफल समाजवादी क्रांति 1917 में रूस जैसे अपेक्षाकृत पिछड़े ज़ारशाही साम्राज्य में हुई। रूसी क्रांति में सामंतवाद-विरोधी, पूंजीवाद-विरोधी और साम्राज्यवाद-विरोधी तत्वों का समावेश था, जिसने भारत जैसे उपनिवेशित देशों के लिए इसे विशेष रूप से आकर्षक बना दिया।

सी.पी.आई. के उदय के पीछे तीन प्रमुख धाराएँ

भारतीय साम्यवाद का विकास तीन अलग-अलग किंतु परस्पर जुड़ी राजनीतिक प्रवृत्तियों से हुआ।

1. एम.एन. रॉय–कॉमिन्टर्न धारा

  • अमेरिका, मैक्सिको, बर्लिन और बाद में सोवियत संघ में काम करने वाले क्रांतिकारी नेता एम.एन. रॉय भारतीय साम्यवाद के वैचारिक विकास में केंद्रीय भूमिका में रहे।
  • उन्होंने 1920 में भारत के प्रतिनिधि के रूप में कॉमिन्टर्न (कम्युनिस्ट इंटरनेशनल) की बैठक में भाग लिया। कॉमिन्टर्न ने औपनिवेशिक परिस्थितियों में साम्यवाद को ढालने के प्रश्न पर विचार किया, जिसका भारतीय कम्युनिस्टों पर गहरा प्रभाव पड़ा। 
  • इसी दौर में वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय के नेतृत्व में बर्लिन में तथा राजा महेंद्र प्रताप के नेतृत्व में काबुल में प्रवासी भारतीय क्रांतिकारियों के समूह भी सक्रिय थे।

2. भारत में स्वतंत्र वामपंथी समूह

  • लाहौर में गुलाम हुसैन, बंबई में एस. ए. डांगे, कलकत्ता में मुजफ्फर अहमद और मद्रास में सिंगारवेलु चेट्टियार के नेतृत्व में अलग-अलग वामपंथी संगठन उभरे।
  • ये संगठन स्वतंत्र रूप से कार्य कर रहे थे किंतु उनके लक्ष्य साम्राज्यवाद-विरोध और समाजवादी परिवर्तन को लेकर समान थे।

3. श्रमिक-किसान आंदोलन

  • ट्रेड यूनियनों और किसान संगठनों ने भारतीय साम्यवाद को व्यापक जनाधार प्रदान किया।
  • वर्ष 1920 में गठित अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) जैसे संगठनों ने समाजवादी विचारों को श्रमिक एवं कृषि संघर्षों से जोड़ा।

उत्पत्ति पर बहस: ताशकंद बनाम कानपुर

ताशकंद (1920) 

एम.एन. रॉय और अबानी मुखर्जी सहित चार भारतीय क्रांतिकारियों ने कॉमिन्टर्न के प्रभाव में ताशकंद में एक कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की पहल की। इसका उद्देश्य भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कर समाजवादी व्यवस्था की स्थापना करना था। हालांकि, इसे भारत के भीतर सक्रिय वामपंथी समूहों और प्रवासी भारतीयों का व्यापक समर्थन नहीं मिल सका।

कानपुर सम्मेलन (1925) 

कानपुर में आयोजित एक राष्ट्रीय सम्मेलन में विभिन्न भारतीय कम्युनिस्ट समूहों ने मिलकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गठन का संकल्प लिया। इसके प्रमुख उद्देश्य ब्रिटिश शासन का अंत, श्रमिक-किसान गणराज्य की स्थापना तथा उत्पादन एवं वितरण के साधनों का समाजीकरण थे।

वैचारिक मतभेद 

सी.पी.आई. (एम) ने अपनी उत्पत्ति ताशकंद (1920) से जोड़ते हुए अंतर्राष्ट्रीयतावाद पर बल दिया, जबकि सी.पी.आई. ने कानपुर (1925) को अपनी आधारशिला मानते हुए भारतीय संदर्भ में साम्यवाद की जड़ों को रेखांकित किया। 

सामाजिक सुधार और उत्पीड़न-विरोध

साम्यवादियों ने केवल राजनीतिक स्वतंत्रता की बात नहीं की, बल्कि सामाजिक बुराइयों पर भी प्रहार किया:

  • अस्पृश्यता और जातिवाद: एम. सिंगारवेलु ने कानपुर सम्मेलन में जातिगत उत्पीड़न की निंदा की। CPI सांप्रदायिक संगठनों के सदस्यों को प्रतिबंधित करने वाला पहला दल बना।
  • प्रमुख संघर्ष: 1929 का मेरठ षड्यंत्र मामला, 1940 के दशक का तेलंगाना विद्रोह और बंगाल के किसान आंदोलन इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
  • कांग्रेस के साथ संबंध: 1930 के दशक में ‘संयुक्त मोर्चे’ के तहत कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के साथ कार्य किया, जो बाद में वैचारिक मतभेदों के कारण टूट गया।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान (1925–1947)

  • 1925 से 1928 के बीच कम्युनिस्ट मजदूर और किसान आंदोलनों को संगठित करने में सक्रिय रहे। 
  • 1929 में मेरठ षड्यंत्र मामले के तहत कई नेताओं को रेलवे हड़ताल भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेजा गया या निर्वासित किया गया। 
  • 1930 के दशक में कम्युनिस्टों ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के साथ मिलकर साम्राज्यवाद-विरोधी संयुक्त मोर्चा बनाया, हालांकि 1939 में वैचारिक मतभेदों के कारण यह गठबंधन टूट गया।
  • द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, विशेष रूप से 1945 के पश्चात, कम्युनिस्टों ने बंगाल और तेलंगाना जैसे क्षेत्रों में बड़े किसान आंदोलनों का नेतृत्व किया। 

संविधान निर्माण और जन आंदोलन

  • संविधान सभा की बहसों में भूमि सुधार, श्रमिक अधिकारों और पिछड़े वर्गों के संरक्षण जैसे मुद्दों पर कम्युनिस्ट विचारों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। वस्तुतः तेलंगाना विद्रोह जैसे आंदोलनों ने कृषि न्याय के प्रति इस विचारधारा की प्रतिबद्धता को उजागर किया। 
  • सी.पी.आई. ने ए.आई.टी.यू.सी., अखिल भारतीय किसान सभा, अखिल भारतीय छात्र संघ और प्रगतिशील लेखक संघ जैसे संगठनों के माध्यम से समाज को संगठित किया और स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व व न्याय के मूल्यों को स्वतंत्रता के बाद के विमर्श का हिस्सा बनाया। 

स्वतंत्रता के बाद की दिशा

  • 1947 के बाद भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन ने विभिन्न रास्ते अपनाए। कुछ गुटों ने सशस्त्र और विद्रोही रणनीति को अपनाया, जबकि अन्य ने संसदीय लोकतंत्र के मार्ग पर चलते हुए चुनावी राजनीति के जरिए सत्ता प्राप्त करने का प्रयास किया।
  • इन मतभेदों ने अंततः आंदोलन में विभाजन को जन्म दिया, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण 1964 में हुआ सी.पी.आई. और सी.पी.आई. (एम) का विभाजन है। 
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