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नागरिक विवादों का अपराधीकरण

(सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2; विभिन्न घटकों के बीच शक्तियों का पृथक्करण, विवाद निवारण तंत्र तथा संस्थान।)

संदर्भ 

हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने उत्तर प्रदेश सरकार की सामान्य नागरिक  विवादों को आपराधिक मामलों में बदलने की बढ़ती प्रवृत्ति को लेकर कड़ी आलोचना की। 

नागरिक विवाद व आपराधिक मामलों में अंतर 

  • भारतीय न्यायिक व्यवस्था में नागरिक (civil) और आपराधिक (criminal) मामलों के बीच स्पष्ट अंतर है। 

न्यायिक प्रणाली

civil-disputes

  • नागरिक विवाद सामान्यतः संपत्ति, अनुबंध, पारिवारिक विवाद आदि से संबंधित होते हैं, जबकि आपराधिक मामले राज्य बनाम व्यक्ति होते हैं, जिसमें दंडात्मक प्रक्रिया शामिल होती है। 

नागरिक विवादों के अपराधीकरण के कारण

त्वरित समाधान की लालसा

कई बार पक्षकार आपराधिक शिकायत दर्ज करवा कर न्यायिक प्रक्रिया में दबाव बनाना चाहते हैं, जिससे दूसरे पक्ष को जेल, जमानत या पुलिस जांच जैसी प्रक्रियाओं से डराकर जल्दी समझौते के लिए मजबूर किया जा सके।

पुलिस और जाँच एजेंसियों का दुरुपयोग

राजनीतिक या व्यक्तिगत उद्देश्य से धारा 420 (धोखाधड़ी), 406 (आपराधिक न्यासभंग) जैसी धाराओं का प्रयोग कर नागरिक विवादों को आपराधिक रूप दिया जाता है।

विधिक जानकारी का अभाव

पुलिस और कभी-कभी न्यायालयों कोभी नागरिक और आपराधिक मामलों के अंतर की सही समझ नहीं होती है, जिससे सामान्य व्यापारिक या संविदात्मक विवादों को भी FIR में दर्ज कर लिया जाता है।

न्यायिक विलंब

सिविल कोर्ट में फैसले में वर्षों लग जाते हैं। इसलिए वादीगण आपराधिक मामला दर्ज करवा कर दबाव बनाना चाहते हैं जिससे सिविल विवाद जल्दी सुलझे।

प्रभाव और चुनौतियाँ

न्यायपालिका पर भार

अपराध की श्रेणी में न आने वाले मामलों का आपराधिक न्याय व्यवस्था में प्रवेश न्यायालयों और पुलिस बल पर अनावश्यक बोझ डालता है।

मानवाधिकार उल्लंघन

किसी व्यक्ति को गलत तरीके से आपराधिक प्रक्रिया में फँसाना उसके जीवन और स्वतंत्रता के मूल अधिकारों (Article 21) का उल्लंघन करता है।

व्यापारिक वातावरण पर प्रतिकूल प्रभाव

व्यावसायिक और अनुबंधीय विवादों को आपराधिक रंग देने से ‘Ease of Doing Business’ और निवेशकों के विश्वास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

पुलिस की कार्यप्रणाली पर असर

वास्तविक आपराधिक मामलों की जांच के बजाय नागरिक विवादों में उलझाव से पुलिस की प्राथमिकता और संसाधन का मुख्य विवादों से विचलन होता है।

न्यायालयों का दृष्टिकोण

जी. सागर सूरी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य वाद, 2000

  • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय  ने चेतावनी दी थी कि यह देखा जाना चाहिए कि क्या कोई मामला, जो अनिवार्य रूप से सिविल प्रकृति का है, उसे आपराधिक अपराध का जामा पहना दिया गया है। 
  • आपराधिक कार्यवाही कानून में उपलब्ध अन्य उपायों का शॉर्टकट नहीं है। 

सी. सुब्बैया @ कदम्बुर जयराज बनाम पुलिस अधीक्षक वाद, 2024 

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सिविल और आपराधिक विवादों के बीच अंतर करने की जटिलताओं पर बारीकी से विचार किया था, जिसमें धोखाधड़ी के आरोप शामिल थे।

विभिन्न न्यायालयों की टिप्पणियाँ

  • सर्वोच्च न्यायालय (2014): आपराधिक कार्यवाही का उपयोग दबाव डालने और दीवानी विवादों को निपटाने के लिए नहीं किया जा सकता।
  • न्यायिक दिशा-निर्देश: विभिन्न न्यायालयों ने यह टिपण्णी की है कि जहां सिविल विवाद का तत्व प्रमुख हो, वहां आपराधिक मामला नहीं बनता।

समाधान और सुझाव

  • पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षण : नागरिक और आपराधिक मामलों में अंतर की स्पष्ट समझ देना।
  • FIR की जाँच में सतर्कता : एफ.आई.आर. दर्ज करने से पहले प्राथमिक जांच और काउंटर-वेरिफिकेशन का प्रावधान।
  • वैकल्पिक विवाद समाधान: मध्यस्थता (mediation), पंचाट (arbitration) जैसे विकल्पों को बढ़ावा देना।
  • विधिक साक्षरता : नागरिकों और व्यवसायियों को संविदा कानून और न्याय प्रणाली की जानकारी देना।

निष्कर्ष

नागरिक विवादों का अपराधीकरण न्याय व्यवस्था के दुरुपयोग के साथ ही  संवैधानिक मूल्यों, नागरिक स्वतंत्रता और विधिक प्रक्रिया की पवित्रता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है। एक सतर्क, सुसंगत और न्यायिक दृष्टिकोण से ही इस प्रवृत्ति पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

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