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भारत का डीप ओशन मिशन

(प्रारम्भिक परीक्षा : सामान्य विज्ञान और पर्यावरण ; मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 3 : विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में भारतीयों की उपलब्धियाँ; देशज रूप से प्रौद्योगिकी का विकास और नई प्रौद्योगिकी का विकास।)

सागरों, महासागरों के जल के नीचे की दुनिया के खनिज, ऊर्जा और समुद्री विविधता की खोज के उद्देश्य से भारत जल्द ही एक महत्वाकांक्षी 'डीप ओशन मिशन' की शुरुआत करने वाला है। ध्यातव्य है कि महासागरों के नीचे की दुनिया का एक बड़ा भाग अभी तक गैर-अन्वेषित है, जिसके बारे में व्यापक शोध और अध्ययन किया जाना अभी बाकी है।

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डीप ओशन मिशन (DOM)

नोडल एजेंसी: पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES)

  • अंडरवाटर रोबोटिक्स (Underwater robotics) और 'मानवयुक्त' सबमर्सिबल (manned’ submersibles), डीप ओशन मिशन के प्रमुख घटक हैं जो विभिन्न संसाधनों (जल, खनिज और ऊर्जा) का सीबेड और गहरे पानी से दोहन करने में भारत की मदद करेंगे।
  • इस दौरान किये जाने वाले कार्यों में गहरे समुद्र में खनन (deep-sea mining), सर्वेक्षण, ऊर्जा स्रोतों की खोज और अपतटीय विलवणीकरण शामिल हैं।
  • इस प्रकार की तकनीकी विकास से जुड़ी अभिक्रियाओं को सरकार की अम्ब्रेला योजना- ओ-स्मार्ट (Ocean Services, Technology, Observations, Resources Modelling and Science) के तहत वित्त पोषित किया जाता है।

पॉलीमेटालिक नोड्यूल्स (Polymetallic Nodules- PMN)

  • मिशन का एक प्रमुख उद्देश्य पॉलीमेटालिक नोड्यूल्स (PMN) का अन्वेषण और निष्कर्षण (Extraction) करना है।
  • पी.एम.एन. संरचना में छोटे आलू के सामान होते हैं और मुख्यतः मैंगनीज़, निकल, कोबाल्ट, कॉपर और आयरन हाइड्रॉक्साइड जैसे खनिजों से बने होते हैं।
  • ये हिंद महासागर में लगभग 6000 मीटर की गहराई पर बिखरे हुए हैं और इनका आकार कुछ मिमी. से कुछ सेमी. तक का हो सकता है।
  • पी.एम.एन. से प्राप्त धातुओं का प्रयोग इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, स्मार्टफोन, बैटरी और सौर पैनलों में भी किया जाता है।

समुद्री अन्वेषण और उत्खनन

  • अंतर्राष्ट्रीय समुद्रतल अधिकरण (International Seabed Authority - ISA), एक स्वायत्त अंतर्राष्ट्रीय संगठन है, जो वर्ष 1982 में समुद्री कानून पर संयुक्त राष्ट्र के अभिसमय (United Nations Convention on the Law of the Sea) के तहत स्थापित किया गया था। यह संगठन गहरे समुद्र में खनन के लिये 'क्षेत्रों' को आवंटित करता है।
  • भारत वर्ष 1987 में 'पायनियर इंवेस्टर' का दर्जा प्राप्त करने वाला पहला देश था। नोडल अन्वेषण के लिये भारत को मध्य हिंद महासागर बेसिन (Central Indian Ocean Basin - CIOB) में लगभग 1.5 लाख वर्ग किमी का क्षेत्र दिया गया था।
  • वर्ष 2002 में, भारत ने आई.एस.ए. के साथ एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किये और समुद्री क्षेत्र के सम्पूर्ण संसाधनों के अध्ययन के बाद भारत ने 50% क्षेत्र को छोड़ दिया और केवल 75,000 वर्ग किमी. के क्षेत्र को अन्वेषण के लिये रखा।

समुद्री उत्खनन की दौड़ में शामिल अन्य देश

  • सी.आई.ओ.बी. के अलावा, केंद्रीय प्रशांत महासागर में भी पॉलीमेट्रिक नोड्यूल्स को पाया गया है। इसे क्लेरियन-क्लिपर्टन ज़ोन (Clarion-Clipperton Zone) के रूप में जाना जाता है।
  • आई.एस.ए. की वेबसाइट के अनुसार, आई.एस.ए. ने 29 देशों व द्वीप समूहों के साथ समुद्र में पॉलीमेटालिक नोड्यूल्स, पॉलीमेटेलिक सल्फाइड और कोबाल्ट-समृद्ध फेरोमैंगनीज़ क्रस्ट्स (cobalt-rich ferromanganese crusts) की खोज के लिये 15 साल का अनुबंध किया है।
  • हाल ही में इस अनुबंध को वर्ष 2022 तक के लिये बढ़ा दिया गया था।
  • चीन, फ्रांस, जर्मनी, जापान, दक्षिण कोरिया, रूस और कुछ छोटे द्वीप जैसे कुक आइलैंड, किरिबाती आदि भी समुद्री उत्खनन की दौड़ में शामिल हैं।
  • इनमें से अधिकांश देशों ने उथले/छिछले पानी में अपनी प्रौद्योगिकियों का परीक्षण किया है और अभी तक गहरे समुद्र में निष्कर्षण शुरू नहीं किया है।

भारत की तैयारी

  • भारत का मुख्य खनन व अन्वेषण क्षेत्र लगभग 5,500 मीटर की गहराई पर स्थित है, जहां दबाव अत्यंत उच्च और तापमान अत्यंत कम है।
  • भारत ने अपने अध्ययन के अनुसार मध्य हिंद महासागर बेसिन के खनन क्षेत्र में 6,000 मीटर की गहराई पर सुदूर संचालित वाहन (Remotely Operated Vehicle) और इन-सीटू सॉइल टेस्टर को भी तैनात किया है।
  • नोड्यूल्स को सतह पर कैसे लाया जाए, यह समझने के लिये भारत द्वारा और परीक्षण किये जा रहे हैं।

पर्यावरणीय प्रभाव

  • आई.यू.सी.एन. के अनुसार, ये गहरे दूरस्थ स्थान कई विशेष समुद्री प्रजातियों के घर भी हो सकते हैं, जो उन क्षेत्रों की विशेष परिस्थितियों के लिये अनुकूलित होंगें और इस प्रकार के खनन कार्यों से उनकी प्रजाति और उनके निवास स्थान पर खतरा उत्पन्न हो सकता है।
  • गहरे समुद्र की जैव विविधता और पारिस्थितिकी को अभी तक उचित तरीके से समझा नहीं जा सका है, जिससे पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन करना और खनन के लिये ज़रूरी दिशा-निर्देशों को तैयार करना मुश्किल हो जाता है।
  • हालाँकि खनन के लिये सख्त दिशा-निर्देशों को तैयार किया गया है लेकिन वे केवल अन्वेषण से जुड़े हैं। समुद्री दोहन से जुड़े सख्त दिशा-निर्देशों पर अभी भी काम किया जाना बाकी है।
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