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विकास बनाम पर्यावरण: सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय

(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2: न्यायपालिका के कार्य; विकास प्रक्रिया तथा विकास उद्योग; सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय)

संदर्भ

18 नवंबर, 2025 को सर्वोच्च न्यायालय ने 2-1 के बहुमत से अपना ही 16 मई, 2025 का निर्णय वापस ले लिया, जिसमें केंद्र सरकार के ex post facto यानी परियोजना शुरू होने के बाद पर्यावरण अनुमति (Environmental Clearance: EC) देने वाले नोटिफिकेशन को असंवैधानिक ठहराया गया था। नए फैसले में न्यायालय ने माना कि पिछला आदेश न केवल प्रक्रियागत रूप से त्रुटिपूर्ण था, बल्कि इससे सार्वजनिक संसाधनों की भारी बर्बादी भी होती।

मामले की पृष्ठभूमि

  • मई 2024 के ‘वनशक्ति बनाम भारत संघ’ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि परियोजनाओं को शुरू होने के बाद पर्यावरण मंजूरी देना पर्यावरणीय कानूनों के खिलाफ है।
  • इस निर्णय से सैकड़ों परियोजनाओं पर संकट खड़ा हो गया था जिनमें अस्पताल, हवाई अड्डे, मेडिकल कॉलेज व औद्योगिक संयंत्र शामिल थे।
  • लगभग 20,000 करोड़ की परियोजनाएँ बिना पर्यावरण अनुमति के निर्माणाधीन या लगभग पूरी हो चुकी थीं। CREDAI, SAIL एवं कर्नाटक सरकार ने इस निर्णय की समीक्षा की मांग की।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय

बहुमत का फैसला

  • पिछला निर्णय (16 मई, 2025) त्रुटिपूर्ण था और तीन पूर्व फैसलों को नजरअंदाज कर दिया गया था जिनमें पूर्वव्यापी (ex post facto) पर्यावरण अनुमति को विशेष परिस्थितियों में मान्य माना गया था। ये तीन फैसले इलेक्ट्रोस्टील (2021), पहवा प्लास्टिक (2022) और डी. स्वामी (2022) हैं।
  • यदि पुराना निर्णय लागू रहता तो 20,000 करोड़ की सार्वजनिक परियोजनाएँ ध्वस्त करनी पड़तीं, जिससे संसाधनों की बर्बादी व प्रदूषण अधिक होता है।
  • कानून के अनुसार पर्यावरण संरक्षण अधिनियम पूर्वव्यापी पर्यावरण अनुमति को पूरी तरह प्रतिबंधित नहीं करता है बल्कि दंड के माध्यम से नियंत्रण की अनुमति देता है।
  • दो-न्यायाधीश की पीठ के पिछले फैसले को समान शक्ति वाली पीठ को पलटने का अधिकार नहीं था, इसे बड़े पीठ को भेजना चाहिए था।

अल्पमत का फैसला

  • यह निर्णय ‘पर्यावरणीय न्यायशास्त्र की मूल भावना के विपरीत’ है और एक ‘पिछड़े कदम’ जैसा है।
  • सावधानी का सिद्धांत (Precautionary Principle) पर्यावरण कानून का मुख्य आधार है। इसके मुकाबले प्रदूषक भुगतान सिद्धांत (Polluter Pays Principle) को प्राथमिकता नहीं दी जा सकती हैं।
  • ‘विकास बनाम पर्यावरण’ एक झूठा द्वंद्व है और सतत विकास में दोनों का संतुलन है। बिना पर्यावरण अनुमति के परियोजनाएँ चलाने वाले बिल्डर्स को राहत देना गलत है और यह कानून के प्रति लापरवाही को बढ़ावा देगा।

मुख्य बिंदु

  • 2-1 से सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं का पुराना फैसला वापस लिया है।
  • न्यायालय ने माना कि पिछला निर्णय ‘per incuriam’ था यानी पहले से मौजूद फैसलों को अनदेखा कर दिया गया था।
  • लगभग 53 परियोजनाएँ बिना पर्यावरण अनुमति के लंबित थीं जिनमें एम्स ओडिशा, विजयनगर हवाई अड्डा (कर्नाटक) आदि शामिल थे।
  • नए फैसले में कहा गया है कि ‘सार्वजनिक धन से बने ढाँचों को तोड़ना जनहित में नहीं होगा और पुनर्निर्माण से और अधिक प्रदूषण होगा’।
  • पर्यावरण मंत्रालय के वर्ष 2017 नोटिफिकेशन और 2021 कार्यालय ज्ञापन में भारी दंड का प्रावधान है। इससे डिफॉल्टरों को दंडित भी किया जा सकता है और परियोजनाएँ भी जारी रह सकती हैं।

निर्णय का महत्त्व

  • यह निर्णय पर्यावरणीय प्रशासन, बड़े सार्वजनिक प्रोजेक्ट्स और केंद्र-राज्य कार्यप्रणाली पर व्यापक प्रभाव डालता है।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि पर्यावरण नीति और विकास नीति में स्थिरता आवश्यक है।
  • समान शक्ति वाली बेंच के फैसलों को मानने के नियम की पुष्टि की गई और यह न्यायिक व्यवस्था में स्पष्टता लाता है।

पर्यावरण बनाम विकास विवाद

  • विकास के पक्ष में तर्क
    • पहले से बने या लगभग पूर्ण परियोजनाओं को ध्वस्त करना न पर्यावरण के हित में है, न जनता के।
    • सही दंड लगाकर और नियमों का पालन सुनिश्चित करके संतुलन संभव है।
  • पर्यावरण संरक्षण के पक्ष में तर्क
    • सावधानी का सिद्धांत के अनुसार परियोजना शुरू करने से पहले पर्यावरण अनुमति अनिवार्य है।
    • नियमों का उल्लंघन करके बाद में मंजूरी लेना पर्यावरणीय शासन के मूल सिद्धांत को कमजोर करता है।
    • दिल्ली की स्मॉग जैसी समस्याएँ याद दिलाती हैं कि पर्यावरण के साथ समझौता खतरनाक है।

चुनौतियाँ

  • पूर्वव्यापी पर्यावरण अनुमति का दुरुपयोग कर अवैध निर्माण बढ़ सकता है।
  • राजस्व एवं समय बचाने के नाम पर पर्यावरण संरक्षण कमजोर पड़ने का खतरा है।
  • राज्यों एवं डेवलपर्स द्वारा पर्यावरण अनुमति नियमों की अनदेखी बढ़ सकती है।
  • सतत विकास सिद्धांत की न्यायिक व्याख्या में असंगति बनी रह सकती है।
  • पर्यावरणीय न्यायशास्त्र और आर्थिक विकास के बीच संतुलन साधना कठिन होता जा रहा है।

आगे की राह

  • केंद्र एवं राज्यों को पर्यावरण अनुमति प्रक्रिया पारदर्शी, तेज़ व सख्त बनानी होगी ताकि पूर्वव्यापी स्थिति ही न बने।
  • दंड प्रावधानों को अधिक प्रभावी एवं निरोधात्मक बनाना आवश्यक है।
  • पर्यावरणीय सार्वजनिक सुनवाई और प्रभाव आकलन (EIA) को मजबूत किया जाए।
  • न्यायालय को बड़े बेंच के माध्यम से पूर्वव्यापी पर्यावरण अनुमति पर अंतिम एवं स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए।
  • बिल्डरों व परियोजना एजेंसियों को जिम्मेदार बनाने के लिए ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति अपनाई जाए।
  • विकास एवं पर्यावरण के बीच संतुलन के लिए विज्ञान-आधारित व दीर्घकालिक नीति ढांचा विकसित किया जाए।
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