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हिंदू उत्तराधिकार कानून में लैंगिक भेदभाव

चर्चा में क्यों

हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालय ने ‘हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956’ में लैंगिक भेदभाव के प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिका पर केंद्र सरकार से जवाब माँगा है। न्यायालय ने अधिनियम के प्रावधानों में ‘पितृ सत्तात्मक विचारधारा’ और पैतृक संपत्ति पर महिलाओं के अधिकारों की जांच का भी निर्णय लिया है।

प्रमुख बिंदु

  • याचिका के अनुसार, इस अधिनियम की धारा 15 और 16 पितृसत्तात्मक विचारधारा को उजागर करती हैं, जो हिंदू महिलाओं द्वारा स्व-अर्जित एवं विरासत में मिली संपत्तियों के उत्तराधिकार से संबंधित है। 
  • धारा 15 से स्पष्ट होता है कि ‘बिना किसी वसीयत वाली महिला की स्व-अर्जित संपत्ति पर उसकी मृत्यु के पश्चात पति के वारिस का पहला अधिकार होता है, अर्थात् विरासत क्रम में पति का परिवार मृत महिला के माता-पिता से भी पहले आता है।

लैंगिक भेदभाव के उदाहरण 

  • इसके विपरीत किसी हिंदू पुरुष की मृत्यु होने पर उसके रक्त संबंधी को प्राथमिकता दी जाती है, अर्थात् उसकी संपत्ति उत्तराधिकारियों के बीच वितरित की जाती है, जिसमें उसकी पत्नी, बच्चे, माता और पिता शामिल हैं। मृत पुरुष के बच्चे और विधवा के साथ उसकी माँ समान रूप से संपत्ति साझा करते है।
  • इसी तरह, जब कोई नि:संतान हिंदू महिला बिना किसी वसीयत के मर जाती है, तो उसे अपने जीवनकाल में विरासत में मिली संपत्ति स्रोत पर वापस चली जाती है, अर्थात् महिला को यदि अपने पिता या माता से संपत्ति विरासत में मिली थी, तो संपत्ति पिता के वारिसों के पास चली जाएगी। हालाँकि, इसमें भी मां के परिवार की अनदेखी की जाती है।
  • साथ ही, यदि किसी महिला को अपने पति या श्वसुर से विरासत में संपत्ति मिली थी और वह बिना किसी विरासत के नि:संतान मर जाती है, तो वह संपत्ति पति के उत्तराधिकारियों को हस्तांतरित हो जाएगी। दूसरी ओर, किसी पुरुष के मृत्यु होने पर संपत्ति का कोई स्रोत-आधारित हस्तांतरण नहीं होता है।
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