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भू-जल स्तर में गिरावट का फसल गहनता पर प्रभाव

संदर्भ

‘साइंस एडवांस’ में प्रकाशित हालिया एक शोध-पत्र के अनुसार, भू-जल स्तर में गिरावट के कारण सर्दियों में बोई जाने वाली ‘फसलों की गहनता’ में 20 प्रतिशत की कमी होने की संभावना व्यक्त की गई है।

शोध-पत्र के महत्त्वपूर्ण बिंदु

  • भारत, विश्व का दूसरा सबसे बड़ा गेहूँ उत्पादक देश है, देश के 30 मिलियन हेक्टयर से अधिक भूमि पर इस फसल की बुवाई की जाती है।
  • हालाँकि, भू-जल में गिरावट से सर्दियों के समय बोई जाने वाली फसलों के रकबे में वर्ष 2025 तक 20 प्रतिशत की कमी होने की आशंका है व्यक्त की गई है। गेहूँ, जौ, सरसों, मटर इत्यादि सर्दियों में बोई जाने वाली कुछ प्रमुख फसले हैं।
  • शोध से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय टीम ने सर्दियों में प्रयोग किये जाने वाले तीन प्रमुख सिंचाई साधनों, यथा- कुएँ, नलकूप तथा नहरों पर अध्ययन करने के साथ-साथ केंद्रीय भू-जल बोर्ड के भू-जल आँकड़ों का भी विश्लेषण किया और पाया कि सर्दियों में फसल उपजाने वाले 13 प्रतिशत गाँव गंभीर रूप से भू-जल गिरावट वाले क्षेत्रों में अवस्थित हैं।
  • शोध-पत्र में ये भी आशंका जताई गई है कि यदि भविष्य में सभी भू-जल स्रोत समाप्त हो जाते हैं तो इन गाँवों का लगभग 68 प्रतिशत फसली क्षेत्र समाप्त हो जाएगा।
  • उक्त शोध के अनुसार सबसे ज़्यादा नुकसान उत्तर-पश्चिम तथा मध्य भारत के क्षेत्रों में परिलक्षित होंगे।

फसल गहनता- सामान्य शब्द में फसल गहनता दिये गए वर्ष में किसी कृषि भूमि का अधिकतम प्रयोग या भूमि प्रयोग की बारंबारता को प्रदर्शित करता है। परिभाषा के रूप में फसल गहनता, सकल बोए गए क्षेत्र एवं शुद्ध बोए गए क्षेत्र का अनुपातिक विश्लेषण है।

सिंचाई के वैकल्पिक स्रोत

  • शोध टीम ने नहरों पर अध्ययन के दौरान पता लगाने का प्रयास किया कि क्या इन्हें सिंचाई के वैकल्पिक स्रोत या गिरते भू-जल स्तर को रोकने के रूप में प्रयोग किया जा सकता है ?
  • हालाँकि, परिणामों से पता चलता है कि राष्ट्रीय-स्तर पर नहरों द्वारा सिंचाई करने की क्षमता सीमित हो गई है। यदि भू-जल गिरावट वाले क्षेत्रों में भू-जल की बजाय नहरों द्वारा भी सिंचाई की जाती है, तब भी राष्ट्रीय-स्तर पर फसल गहनता में 7 प्रतिशत की कमी होगी।
  • शोध-पत्र में अनुकूलन रणनीति को क्रियान्वित करने के लिये जल-बचत प्रौद्योगिकियों जैसे- स्प्रिंकलर, ड्रिप इरीगेशन आदि के साथ-साथ न्यूनतम जल-गहन फसलों का प्रयोग करना आवश्यक है।

नीतिगत समस्याएँ

  • गेहूँ की खेती करने वाले किसानों की अन्य समस्यायों के बारे में कहा गया है कि उनके सामने पहली पीढ़ी (उत्पादकता) तथा दूसरी पीढ़ी (धारणीयता) से संबंधित समस्याएँ हैं।
  • सरकार द्वारा समर्थित हरित क्रांति के कालखंड में उत्तर-पश्चिमी भारत विशेषकर, पंजाब और हरियाणा में चावल की कृषि में तीव्र वृद्धि दर्ज़ की गई। ‘हल्की मृदा’ वाला क्षेत्र होने के कारण यह क्षेत्र पारिस्थितिक तौर पर चावल की कृषि के लिये अनुपयुक्त है।
  • नीतिगत समर्थन के कारण गहन कृषि को बढ़ावा मिला, जिसके लिये भू-जल का गैर-धारणीय प्रयोग किया गया। इस कारण भू-जल संकट में वृद्धि हुई है।
  • इसके अतिरिक्त, समय से गेहूँ की बुवाई के लिये फसल उपरांत कृषि अवशेषों के दहन से भी पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान पहुँचा है।
  • पूर्वी भारतीय राज्यों में उच्च मॉनसून वर्षा के साथ-साथ पर्याप्त भू-जल संसाधन उपलब्ध है किंतु सिंचाई संबंधित पर्याप्त अवसंरचना की कमी के कारण वहाँ किसान प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने में असमर्थ हैं।

निष्कर्ष

पूर्वी भारत में नीतियों के बेहतर क्रियान्वयन द्वारा सिंचाई अवसंरचना को विस्तृत करने की आवश्यकता है, इससे कृषि उत्पादकता में वृद्धि होने के साथ-साथ उत्तर-पश्चिमी राज्यों पर पड़ने वाले दबाव में भी कमी आएगी।

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