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सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित कानून सभी के लिए बाध्यकारी 

प्रारंभिक परीक्षा - सर्वोच्च न्यायालय, न्यायिक समीक्षा, केशवानंद भारती मामला
मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 - भारतीय संविधान - महत्त्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी संरचना, विभिन्न घटकों के बीच शक्तियों का पृथक्करण

सन्दर्भ 

  • हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया कि भारत के उपराष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की सार्वजनिक आलोचना को कानून के खिलाफ टिप्पणी के रूप में देखा जा सकता है।

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महत्वपूर्ण तथ्य

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  • सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक निर्णय, कानून को निर्धारित करते हैं। 
  • संविधान के अनुच्छेद 141 के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित कानून सुप्रीम कोर्ट सहित सभी अदालतों पर बाध्यकारी होंगे।
  • भारत के उपराष्ट्रपति ने कहा था कि वह इस विचार से सहमत नहीं हैं कि न्यायपालिका इस आधार पर विधायिका द्वारा पारित संशोधनों को अवैध घोषित कर सकती है कि वे संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती मामले (1973) में अपने फैसले के माध्यम से विकसित किया था।
  • उपराष्ट्रपति ने आगे कहा कि संसदीय संप्रभुता को कार्यपालिका या न्यायपालिका द्वारा कमजोर करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
  • सुप्रीम कोर्ट ने अपने जवाब में कहा, कि केशवानंद भारती वाद के फैसले ने स्पष्ट किया था कि न्यायिक समीक्षा, संसदीय संप्रभुता को कमजोर करने का साधन नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए जांच और संतुलन की प्रणाली का एक हिस्सा है, कि संवैधानिक अधिकारी अपनी सीमा से बाहर अतिक्रमण ना करें। 
  • सुप्रीम कोर्ट के अनुसार संसद न्यायिक नियुक्तियों पर एक नया कानून लाने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन वह कानून भी न्यायिक समीक्षा के अधीन होगा।

केशवानंद भारती वाद

  • शंकरी प्रसाद मामले (1951) और सज्जन सिंह मामले (1965) में सर्वोच्च न्यायालय ने माना, कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने की शक्ति है।
  • इन मामलों के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि अनुच्छेद 13 में "कानून" शब्द का अर्थ सामान्य विधायी शक्ति के प्रयोग से बनाए गए नियमों या विनियमों से लिया जाना चाहिए, न कि अनुच्छेद 368 के तहत संवैधानिक शक्ति के प्रयोग द्वारा  संविधान में किए गए संशोधनों से।
  • इसका अर्थ है कि संसद के पास मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन करने की शक्ति है।
  • हालाँकि, गोलकनाथ मामले (1967) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती है।
  • इस मामले में न्यायालय ने फैसला किया कि अनुच्छेद 368 के तहत किया गया एक संशोधन संविधान के अनुच्छेद 13 के अर्थ में "कानून" है, और अगर यह भाग III के तहत दिए गए मौलिक अधिकार को "छीनता है या कम करता है" तो यह गैरकानूनी है।
  • केशवानंद भारती वाद (1973) में दिए गए अपने निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि संसद संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है लेकिन संविधान के बुनियादी ढांचे को नहीं बदल सकती। 
  • इसी निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की मूल संरचना के सिद्धांत को प्रतिस्थापित किया। 
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