प्रधानमंत्री द्वारा ‘मन की बात’ कार्यक्रम में नरसपुरम लेस क्राफ्ट का उल्लेख इस पारंपरिक शिल्प को नई राष्ट्रीय पहचान दिलाने वाला क्षण साबित हुआ है। भौगोलिक संकेतक (GI) टैग मिलने के बाद गोदावरी क्षेत्र की इस सदियों पुरानी आजीविका पर एक बार फिर देशभर का ध्यान केंद्रित हुआ है।
नरसपुरम लेस क्राफ्ट के बारे में
- नरसपुरम लेस क्राफ्ट हस्तनिर्मित क्रोशे लेस बनाने की एक विशिष्ट परंपरा है जिसमें अत्यंत महीन धागों को केवल एक क्रोशे हुक की सहायता से जटिल एवं आकर्षक लेस उत्पादों में बदला जाता है।
- यह शिल्प मुख्यत: आंध्र प्रदेश के पश्चिम गोदावरी और डॉ. बी.आर. अंबेडकर कोनासीमा जिलों में प्रचलित है। नरसापुर, पलाकोले, रज़ोल एवं अमलापुरम इसके प्रमुख उत्पादन केंद्र हैं जहाँ बड़ी संख्या में महिलाएँ इस कला से जुड़ी हुई हैं।
- नरसपुरम लेस क्राफ्ट की शुरुआत 1844 में मानी जाती है जब यूरोपीय मिशनरियों ने स्थानीय महिलाओं को लेस बनाने की तकनीक सिखाई।
प्रमुख विशेषताएँ
- इस शिल्प में कच्चे माल के रूप में महीन सूती धागों के साथ-साथ रेशम, रेयॉन एवं सिंथेटिक धागों का भी उपयोग किया जाता है, विशेष रूप से सजावटी व निर्यात गुणवत्ता वाले उत्पादों के लिए।
- यह प्रक्रिया पूर्णतः हस्तचालित होती है जिसमें किसी भी प्रकार की मशीनरी का प्रयोग नहीं किया जाता है।
- मैन्युअल लूपिंग एवं इंटरलॉकिंग टांकों के माध्यम से नाजुक लेस संरचनाएँ बनाई जाती हैं। डिज़ाइन में प्रकृति और पारंपरिक सौंदर्य से प्रेरित पुष्प, पैस्ले व ज्यामितीय रूपांकन प्रमुख हैं।
- नरसपुरम लेस से तैयार उत्पादों की श्रृंखला काफी विस्तृत है। इसमें वस्त्रों के साथ-साथ घरेलू साज-सज्जा और सहायक वस्तुएँ शामिल हैं, जैसे- डोइली, बेडस्प्रेड, टेबल लिनेन, कुशन कवर, स्टोल व वॉल हैंगिंग।
सामाजिक एवं आर्थिक महत्व
- नरसपुरम लेस क्राफ्ट हजारों महिलाओं को नियमित आय का स्रोत प्रदान करता है, जिससे वे अपने परिवारों की अर्थव्यवस्था में निर्णायक भूमिका निभाती हैं।
- यह शिल्प न केवल आर्थिक आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देता है, बल्कि पीढ़ियों से चली आ रही स्वदेशी वस्त्र परंपरा के संरक्षण में भी अहम योगदान देता है।