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संसद की निगरानी संबंधी भूमिका में कमी

(प्रारंभिक परीक्षा: भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान, राजनीतिक प्रणाली, लोकनीति)
(मुख्य परीक्षा, प्रश्नपत्र 2: संसद और राज्य विधायिका- संरचना, कार्य, कार्य-संचालन, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार और इनसे उत्पन्न होने वाले विषय।)

संदर्भ

  • वर्ष 2021 का मानसून सत्र कई मायनों में निराशाजनक रहा है। वर्ष 2020 के रद्द किये गए शीतकालीन सत्र के अतिरिक्त यह चौथा सीधा सत्र था, जो मूल कार्यक्रम से पहले समाप्त हुआ।
  • इसका अभिप्राय यह है कि कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा नहीं हो पाई, जैसे कोविड-19 की प्रतिक्रिया और रणनीति, लद्दाख में चीनी घुसपैठ, आर्थिक स्थिति, आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती कीमतें, किसानों की समस्याएँ आदि। 

कार्य की घटती समयावधि 

  • इस बार मानसून सत्र के दौरान संसद ने मुश्किल से ही कार्य किया। दोनों सदनों का संचालन अक्सर बाधित ही रहा क्योंकि सरकार और विपक्षी दल बहस के विषयों पर सहमत नहीं थे।
  • लोकसभा ने अपने मूल रूप से निर्धारित समय का केवल 19 और राज्यसभा ने 26 प्रतिशत कार्य किया।
  • सरकार ने बिना किसी चर्चा के 20 विधेयकों को आगे बढ़ाया, जबकि लोकसभा में पारित 18 विधेयकों में से केवल एक पर मात्र 15 मिनट की चर्चा हुई।
  • राज्यसभा में अधिकांश विधेयकों पर चर्चा ही नहीं हो पाई। केवल दो विधेयकों पर एक घंटे से अधिक समय तक चर्चा हुई।
  • प्रत्येक विधेयक संबंधित मंत्री द्वारा एक संक्षिप्त वक्तव्य के बाद ही पारित किया गया।
  • लोकसभा में एक विधेयक - अनुसूचित जनजाति (आदेश) संशोधन पर 10 मिनट की चर्चा हुई, जिस पर सात सदस्यों ने संक्षिप्त चर्चा की।

विधेयकों को पारित कराने की शीघ्रता

  • सत्र के दौरान प्रस्तुत किये गए प्रत्येक विधेयक को सत्र के दौरान ही पारित किया गया। इसका अभिप्राय है कि सदस्यों द्वारा किसी भी जाँच के लिये समय नहीं था।
  • राज्य विधानसभाओं में भी ऐसा व्यवहार देखा जा रहा है। वर्ष 2020 में 19 विधानसभाओं में सभी विधेयकों में से 91 प्रतिशत प्रस्तुत किये जाने के पाँच दिनों के भीतर पारित किये गए। उल्लेखनीय है कि यह संसद के लिये नई बानगी है।
  • पंद्रहवीं लोकसभा (2009-14) के दौरान 18 प्रतिशत विधेयकों को उसी सत्र में पारित किया गया था। 
  • यह सोलहवीं लोकसभा में बढ़कर 33 प्रतिशत हो गया और वर्तमान संसद में 70 प्रतिशत तक पहुँच गया है।

जाँच की कमी

  • किसी भी विधेयक को जाँच के लिये संसदीय समिति के पास नहीं भेजा गया।
  • ये समितियाँ सांसदों को विधेयकों के निहितार्थों को समझने के लिये विशेषज्ञों, हितधारकों और सरकारी अधिकारियों के साथ जुड़ने का एक मंच प्रदान करती हैं।
  • संसदीय समितियाँ विभिन्न प्रावधानों के परिणामों पर विचार-विमर्श करती हैं तथा संशोधनों की अनुशंसा करती हैं।
  • हाल के वर्षों में, संसदीय समितियों द्वारा की गई सिफारिशों के परिणामस्वरूप ‘दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता’ तथा ‘मोटर वाहन (संशोधन) विधेयक’ जैसे विधेयकों में महत्त्वपूर्ण बदलाव किये गए।
  • संसदीय समितियों के पास भेजे जाने वाले विधेयकों में तेज़ी से कमी आई है। पंद्रहवीं लोकसभा में 71 प्रतिशत, सोलहवीं लोकसभा में 27 प्रतिशत तथा वर्तमान लोकसभा में अब तक 12 प्रतिशत विधेयकों को संसदीय समितियों के पास भेजा गया है।
  • राज्यसभा में ‘न्यायाधिकरण सुधार विधेयक’ को सदन की एक प्रवर समिति को संदर्भित करने के लिये एक संशोधन प्रस्तुत किया गया था। इस प्रस्ताव को 44 के मुकाबले 79 मतों से खारिज कर दिया गया।
  • वर्तमान में राज्यसभा में 232 सदस्य हैं, इससे यह इंगित होता है कि मतदान के दौरान लगभग आधे सदस्य अनुपस्थित थे।
  • ध्यातव्य है कि विधेयकों को अक्सर समितियों के पास नहीं भेजा जाता है, सदन के पटल पर शायद ही कोई चर्चा होती है तथा ज़्यादातर मामलों में विधेयक को प्रस्तुत होने के कुछ दिनों के भीतर ही पारित कर दिया जाता है।

महत्त्वपूर्ण विधेयक

  • इस सत्र में कुछ महत्त्वपूर्ण विधेयक पारित हुए। संविधान संशोधन के माध्यम से अन्य पिछड़े वर्गों की पहचान करने की शक्ति राज्यों को प्रदान की गई है।
  • हाल ही में, एक संविधान संशोधन ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को वैधानिक निकाय से संवैधानिक निकाय में परिवर्तित कर दिया है।
  • उस संशोधन में यह भी निर्दिष्ट किया गया था कि भारत के राष्ट्रपति अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची निर्दिष्ट करेंगे।
  • भारत के उच्चतम न्यायालय ने इस प्रावधान की व्याख्या करते हुए कहा था कि राज्य सरकारें पिछड़े वर्गों की सूची जारी नहीं कर सकती हैं।
  • इस सत्र में पारित संशोधन ने स्पष्ट किया कि राज्यों के पास ऐसा करने की शक्ति है।
  • वर्ष 2012 में, कुछ लेनदेन को कवर करने के लिये ‘पूर्वव्यापी प्रभाव’ से आयकर अधिनियम में संशोधन किया गया था। इस सत्र में पारित एक विधेयक ने पूर्वव्यापी कराधान के इस प्रावधान को समाप्त कर दिया है।
  • ‘जमा बीमा और क्रेडिट गारंटी निगम’ सभी बैंक जमाओं के डिफ़ॉल्ट (वर्तमान में 5 लाख तक) के खिलाफ बीमा करता है। यदि कोई बैंक परिसमापन या पुनर्निर्माण से गुज़र रहा है, तो 90 दिनों के भीतर अंतरिम भुगतान की आवश्यकता के लिये अधिनियम में संशोधन किया गया है।
  • ‘सामान्य बीमा कारोबार (राष्ट्रीयकरण) अधिनियम’ में संशोधन किया गया है, ताकि सरकार सामान्य बीमा कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी 51 प्रतिशत से कम कर सके।
  • ‘न्यायाधिकरण सुधार विधेयक’ ने एक अध्यादेश की जगह ली, जिसमें सदस्यों की नियुक्ति प्रक्रिया, कार्यकाल तथा सेवा शर्तों को निर्दिष्ट किया गया है।
  • इसने विगत माह उच्चतम न्यायालय द्वारा रद्द किये गए दो प्रावधानों को बरकरार रखा है, जिनमें चार वर्ष के कार्यकाल को न्यायालय ने पाँच वर्ष कर दिया तथा न्यायिक सदस्यों के लिये 50 वर्ष की न्यूनतम आयु, जिसे न्यायालय ने संशोधित कर 10 वर्ष के अनुभव वाले वकीलों को अनुमति प्रदान की थी।
  • बिना किसी चर्चा के लोकसभा द्वारा 23,675 करोड़ के ‘अनुदान की अनुपूरक माँग’ को भी पारित कर दिया गया।

सुधार की आवश्यकता

  • संसद अपने कार्यों में काफी अप्रभावी प्रतीत हो रही है। संसद को कार्यपालिका से अलग रखने का मुख्य कारण कार्यपालिका की शक्ति को नियंत्रित करना है।
  • इस सत्र में सरकार ने जो भी विधेयक प्रस्तुत किया, वह बिना किसी चर्चा के तथा समितियों द्वारा बिना किसी जाँच के एक अधिनियम के रूप में पारित कर दिया गया। 
  • नीतिगत मुद्दों पर राज्यसभा में सिर्फ एक बहस हुई, जबकि लोकसभा में कोई बहस नहीं हो सकी।
  • केवल 10 मिनट से भी कम समय में एक बड़ा अनुपूरक बजट पारित हो गया, जिस पर एक भी सदस्य ने चर्चा नहीं की।

निष्कर्ष

  • आगामी वर्ष संसद की 70वीं वर्षगाँठ होगी तथा संसद को एक बड़े भवन में स्थानांतरित करने की योजना भी प्रस्तावित है।
  • इन अवसरों का जश्न मनाने के लिये कई कार्यक्रम होंगे, हालाँकि जब तक सांसद एकजुट होकर कार्य नहीं करते हैं, तब तक संसद की ‘प्रभाविता और उपयोगिता’ निरर्थक ही रहेगी।
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