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गुट-निरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता 

(मुख्य परीक्षा- सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र-2; विषय- महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संस्थान, संस्थाएँ और मंच- उनकी संरचना, अधिदेश।)

संदर्भ

हाल ही में, गुट-निरपेक्ष आंदोलन की स्थापना के 60 वर्ष पूर्ण हुए हैं तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू की जयंती भी मनाई गई, जिन्होंने इस आंदोलन के गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस अवसर पर गुट-निरपेक्ष आंदोलन के मद्देनज़र विश्व राजनीति में नेहरू के योगदान का विश्लेषण किया गया। यदि ऐतिहासिक घटनाओं का गहराई से परीक्षण करें तो गुट-निरपेक्ष की अवधारणा की शुरुआत वर्ष 1814-15 की ‘वियना कॉन्ग्रेस’ से मानी जा सकती है। वस्तुतः इस दौरान विभिन्न देशों के आपसी संघर्ष से स्विट्ज़रलैंड को तटस्थ रहने की अनुमति प्रदान की गई थी।

पृष्ठभूमि

  • शीत युद्ध के आरंभ के साथ लगभग समूचा विश्व यू.एस.ए. तथा यू.एस.एस.आर. के नेतृत्व में दो सैन्य गुटों में बँट गया था। इस दौरान वर्ष 1946 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि “हम एक-दूसरे के खिलाफ गठबंधन करने वाले समूहों की राजनीति से दूर रहेंगे तथा स्वतंत्र रूप से कार्य करेंगे।”
  • नेहरू ने शीत युद्ध के दोनों पक्षों का विरोध किया था। वर्ष 1954 से अमेरिका पाकिस्तान को हथियार देने लगा था और एशिया में पश्चिमी नेतृत्व वाले सैन्य गुट बनने लगे थे। इन परिस्थितियों ने नेहरू द्वारा किये जाने वाले विरोध को उचित ठहराया।
  • वस्तुतः भारत की राजनयिक उपस्थिति को बढ़ावा देने के लिये गुट-निरपेक्षता सबसे कम खर्चीली नीति थी। भारत ने वर्ष 1960 के बाद भी तब तक उपनिवेशवाद व नस्लवाद के खिलाफ प्रभावी आवाज़ उठाई, जब तक कि अधिकांश अफ्रीकी देश स्वतंत्र नहीं हो गए।
  • भारत ने वर्ष 1954 में संपन्न हुए ‘इंडो-चाइना पर जिनेवा शांति समझौते’ में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, तत्पश्चात् गुट-निरपेक्ष आंदोलन का उद्भव हुआ। सिद्धांत और व्यवहार के मध्य विश्वसनीयता का अंतर इस नीति की सबसे बड़ी समस्या रही है।

गुट-निरपेक्ष आंदोलन (Non-Alignment Movement – NAM)

  • वर्ष 1955 में इंडोनेशिया के शहर बांडुंग में आयोजित ‘अफ्रो-एशिया सम्मलेन’ में गुट-निरपेक्ष आंदोलन की नींव पड़ी।
  • गुट-निरपेक्ष आंदोलन का पहला सम्मलेन वर्ष 1961 में तत्कालीन युगोस्लाविया के ‘बेलग्रेड’ में आयोजित हुआ था।
  • संस्थापक सदस्य :
    1. भारत के पंडित जवाहरलाल नेहरू
    2. मिस्र के गमाल अब्दुल नासिर
    3. युगोस्लाविया के जोसिप ब्रोज़ टीटो
    4. इंडोनेशिया के अहमद सुकर्णो
    5. घाना के वामे एनक्रूमा

    गुट-निरपेक्ष आंदोलन की सीमाएँ

    • यह संगठन अपने नाम से ही विरोधाभास रखता है क्योंकि यह भी नव-स्वतंत्र देशों का एक गुट ही है।
    • वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान केवल साइप्रस और इथियोपिया ने ही भारत का साथ दिया था। गुट-निरपेक्ष आंदोलन का अन्य कोई भी देश भारत के साथ नहीं था।
    • इसके अलावा, गुट-निरपेक्ष आंदोलन के विभिन्न सदस्यों के बीच मानवाधिकार, शांति, संप्रभुता, आतंरिक मुद्दों आदि को लेकर विवाद की स्थिति बनी रहती है।
    • इसके सदस्य देशों में आपसी आत्मनिर्भरता, विश्वास और सहयोग की कमी है।
    • यह संगठन कोई न्यायसंगत अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक विश्व-व्यवस्था स्थापित नहीं कर सका है।
    • नेहरू जी की मृत्यु के बाद यह आंदोलन अपने मूल सिद्धांतों से विचलित होने लगा तथा भूतपूर्व सोवियत संघ के विघटन के पश्चात् विश्व राजनीति भी व्यवहारवाद से अवसरवाद की ओर मुड़ गई।
    • वर्तमान में भारत का यू.एस.ए. की ओर बढ़ता झुकाव भी गुट-निरपेक्ष आंदोलन की सीमा को उजागर करता है।

    विभिन्न संगठनों का जीवनकाल

    • विशेषज्ञों के अनुसार, प्रत्येक अंतर्राष्ट्रीय संगठन का जीवनकाल सीमित होता है, जो काल व परिस्थितियों के अनुसार निर्धारित होता है।
    • उदाहरणार्थ, ‘लीग ऑफ़ नेशंस’ के गठन के पश्चात् अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ बदलीं और उसका अवसान हो गया।
    • विशेषज्ञों का मत है कि ‘राष्ट्रमंडल’ भी तभी तक अस्तित्व में रहेगा, जब तक ब्रिटेन इसकी उपयोगिता को मुनासिब समझेगा।
    • वर्तमान परिस्थितियों में ‘ब्रिक्स’ (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) की प्रासंगिकता भी घटती जा रही है। इसके अलावा, भारत-चीन संबंधों को देखते हुए इनसे संबद्ध तमाम संगठनों का भविष्य संदेहास्पद प्रतीत होता है।
    • भारत-पाकिस्तान संबंधों के आलोक में ‘दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन–दक्षेस’ (South Asian Association for Regional Cooperation – SAARC) अब लगभग महत्त्वहीन हो चुका है।
    • अंततः बात यदि गुट-निरपेक्ष आंदोलन की करें तो अधिकांश राजनयिक तो यह भी नहीं बता पाएँगे कि एन.ए.एम. के पिछले सम्मलेन में क्या निर्णय लिये गए थे और अगला सम्मलेन कहाँ आयोजित होगा?
    • वर्ष 1981 में ‘1 सितंबर’ का दिन ‘गुट-निरपेक्ष दिवस’ के रूप में मनाने पर सर्वसम्मति से सहमति व्यक्त की गई थी, लेकिन इस वर्ष यह दिन आया और चला गया, मगर इस पर किसी का ध्यान नहीं गया। ऐसे में, यह संगठन भी अब महत्त्वहीन प्रतीत हो रहा है।
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