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सेन्ना स्पेक्टबिलिस

(प्रारंभिक परीक्षा के लिए - सेना स्पेक्टेबिलिस, आक्रामक विदेशी प्रजाति)
(मुख्य परीक्षा के लिए, सामान्य अध्ययन प्रश्नप्रत्र:3 - जैव विविधता, पर्यावरण संरक्षण)
संदर्भ 

  • सेना स्पेक्टेबिलिस, एक आक्रामक विदेशी प्रजाति ने, मुदुमलाई टाइगर रिजर्व (एमटीआर) के बफर क्षेत्र के लगभग 1,200 हेक्टेयर क्षेत्र में अपना विस्तार कर लिया है।

सेना स्पेक्टेबिलिस

  • सेन्ना स्पेक्टाबिलिस, मूल रूप से दक्षिण और मध्य अमेरिका के फली परिवार कैसलपिनियोइडी की पर्णपाती पादप प्रजाति है।
  • इस आक्रामक पौधे का विस्तार कर्नाटक के बांदीपुर और नागरहोल बाघ आरक्षित क्षेत्र, तमिलनाडु के मदुमलाई बाघ आरक्षित क्षेत्र तथा केरल के वायनाड वन्यजीव अभयारण्य में भी हो चुका है।
  • यह एक सजावटी पादप है, जो वन के आस-पास, सवाना, नदी किनारों, सड़क तथा अपशिष्ट जमीन पर भी उग सकता है।
  • अपने ऐलेलोपैथिक लक्षण के कारण, यह अन्य पौधों को बढ़ने -पनपने से रोक देता  है। 
    • एलेलोपैथी एक जैविक घटना है, जिसके द्वारा कोई जीवधारी एक या एक से अधिक जैव रसायन उत्पन्न करता है, जो अन्य जीवों के अंकुरण, विकास, अस्तित्व और प्रजनन को प्रभावित करता है।
  • इस आक्रमक प्रजाति की वजह से, वन्य जीवों के भरण-पोषण हेतु जंगलों की वहन क्षमता काफी कम हो रही है, जिससे ‘मानव-पशु संघर्ष’ और तीव्र होता जा रहा है।
  • इन वृक्षों के चारो ओर खाई बनाने, इनको उखाड़ने, काटने, पेड़ की शाखाओं को काटने और यहां तक ​​​​कि रसायनों के प्रयोग का परीक्षण करके, इन आक्रामक प्रजातियों को नष्ट करने का प्रयास किया जा चुका है। 
    • हालाँकि, ये सभी प्रयास असफल साबित हुए है, और नष्ट होने की जगह पर, प्रत्येक कटे हुए वृक्षों के तनों से कई शाखाएं निकलने लगी।
  • इस पौधे में कुछ औषधीय गुण भी पाये जाते है। 
    • दाद और त्वचा रोगों के उपचार के रूप में, इसका उपयोग किया जाता है।

senna-spectabilis

आक्रामक विदेशी प्रजाति 

  • ऐसी प्रजातियाँ, जो एक पारिस्थितिकी तंत्र के लिए गैर-स्थानिक होती हैं, तथा उसे आर्थिक या पर्यावरणीय नुकसान पहुंचा सकती हैं, या मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं, उन्हें आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ कहा जाता है। 
  • आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ, जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं, जिससे  प्रतिस्पर्धा, शिकार, या रोगजनकों के संचरण के माध्यम से देशी प्रजातियों की संख्या में कमी या उनका उन्मूलन हो जाता है।

आक्रामक प्रजातियों के प्रभाव

  • आक्रामक प्रजातियों का स्थानीय जैव विविधता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, यह देशी प्रजातियों और वन्यजीवों के लिए भोजन की उपलब्धता को सीमित करती है।
  • आक्रामक प्रजातियों के कारण प्रतिस्पर्धा बढ़ने से जैव विविधता में कमी आती है।
  • आक्रामक प्रजातियों के कारण पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलित होने से जंगल की आग और बाढ़ की आवृत्ति में वृद्धि होती है।
  • इन प्रजातियों को नियंत्रित करने के लिए रसायनों के प्रयोग से प्रदूषण की मात्रा  में वृद्धि होती है।

आक्रामक प्रजातियों के प्रसार की रोकथाम हेतु राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रयास

  • सतत विकास लक्ष्य (SDG)-15 आक्रामक विदेशी प्रजातियों को नियंत्रित करने से संबंधित है।
  • आईची लक्ष्य 9 (Aichi target 9) का उद्देश्य आक्रामक विदेशी प्रजातियों को नियंत्रित या उनका उन्मूलन करना है।
  • CBD का अनुच्छेद 8(h), उन विदेशी प्रजातियों के नियंत्रण या उन्मूलन का प्रावधान करता है, जो पारिस्थितिक तंत्र, या स्थानीय प्रजातियों को नुकसान पहुँचाती है। 
  • आक्रमणकारी प्रजातियों से उत्पन्न हुए खतरों से निपटने के लिए 1977 में ग्लोबल इनवेसिव स्पीशीज प्रोग्राम (Global invasive species Program, GISP) कार्यक्रम की शुरुआत की गयी। 
  • आईयूसीएन के इनवेसिव स्पीशीज स्पेशलिस्ट ग्रुप (ISSG) का उद्देश्य आक्रामक विदेशी प्रजातियों को रोकने तथा नियंत्रित करने के उपायों के बारे में जागरूकता बढ़ाकर पारिस्थितिक तंत्र और मूल प्रजातियों के समक्ष उत्पन्न खतरों को कम करना है।
    • इसके लिए आईयूसीएन द्वारा ‘ग्लोबल इनवेसिव स्पीशीज़ डेटाबेस’ (GISD) और ‘ग्लोबल रजिस्टर ऑफ़ इंट्रोड्यूस्ड एंड इनवेसिव स्पीशीज़’ (GRIIS) का विकास किया गया है। 
  • वन्यजीव संरक्षण अधिनियम,1972 में 2021 में एक संशोधन के द्वारा आक्रामक विदेशी प्रजातियों की रोकथाम से संबंधित प्रावधान किए गए है।

भारत में अन्य प्रमुख आक्रामक प्रजातियाँ 

  • भारत में पाई जाने वाली 2,000 से अधिक विदेशी प्रजातियों में से 330 प्रजातियों को आक्रामक प्रजाति घोषित किया गया है।
  • भारत में पिछले 60 वर्षों में आक्रामक विदेशी प्रजातियों के कारण लगभग 10 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है।
    •  भारत, अमेरिका के बाद विश्व का ऐसा दूसरा सबसे बड़ा देश बन गया है, जहां आक्रामक प्रजातियों की वजह से सबसे अधिक नुकसान होता है।
  • अमेरिकी झाड़ी लैंटाना- इसे आईयूसीएन द्वारा शीर्ष 10 सबसे खराब आक्रामक प्रजातियों में से एक माना जाता है।
  • कप्पाफिकुस अल्वर्र्जीआई - इस शैवाल से व्यापारिक स्तर पर केराजीनिन प्राप्त होता है, जिसके निष्कर्षण हेतु इस प्रजाति को 1993 में पश्चिमी भारत में पुरःस्थापित किया गया था, लेकिन उसके बाद यह प्रजाति तेजी से फ़ैल कर जलीय परितंत्र को क्षति पहुंचा रही है।
  • मिकानिया माइक्ररेनथा- इसे द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हवाई पट्टियों को ढकने के लिए उपयोग में लाया जाता था, लेकिन वर्तमान में यह बागानी फसलों जैसे रबर, सुपारी, चाय, केला तथा अन्नानास के लिए एक प्रमुख खतरा बन गयी है।
  • प्रोस्पिस जूलीफलोरा- यह आक्रमणकारी प्रजाति भारत में मुख्यतः मरूस्थलीय एवं अर्ध-मरूस्थलीय क्षेत्रों में सीमित है।
    • इसे भारत में 19वी सदी के उत्तरार्ध में पुरःस्थापित किया गया था, शुष्क दशा, लवण सहनीयता तथा एलीलोपैथिक गुणों के कारण यह प्रजाति भारतीय परितंत्र में अनेक स्थानीय प्रजातियों’ को प्रतिस्थापित कर पर्यावरणीय समस्या बन गयी है।
  • कांग्रेस घास - यह आक्रमणकारी प्रजाति भारत में अमेरिकी गेहूं को आयात करने के दौरान संदूषण के रूप में पुरःस्थापित हो गयी थी।

मुदुमलाई टाइगर रिजर्व

  • मुदुमलाई टाइगर रिज़र्व तमिलनाडु राज्य के नीलगिरि ज़िले में, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु की सीमा पर स्थित है।
  • इसकी सीमा पश्चिम में वायनाड वन्यजीव अभयारण्य (केरल), उत्तर में बांदीपुर टाइगर रिज़र्व (कर्नाटक) और दक्षिण-पूर्व में नीलगिरि उत्तर प्रभाग और दक्षिण-पश्चिम में गुडालुर वन प्रभाग से मिलती है।
  • मोयार नदी मुदुमलाई टाइगर रिज़र्व से होकर गुजरती है, यह मुदुमलाई तथा बांदीपुर वन्यजीव अभयारण्य के बीच प्राकृतिक सीमा रेखा का निर्माण करती है।
  • बाघों की घटती आबादी के कारण, तमिलनाडु सरकार ने 2007 वन्यजीव संरक्षण अधिनियम- 1972 के तहत इसे टाइगर रिज़र्व घोषित किया।
  • यह नीलगिरि बायोस्फीयर रिज़र्व का भाग है।
  • मुदुमलाई टाइगर रिज़र्व में लंबी घास पाई जाती है, जिसे ‘एलीफेंट ग्रास’ कहा जाता है। 
  • यहाँ बाँस, सागौन, रोज़वुड जैसे वृक्षों की प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं।
  • मुदुमलाई टाइगर रिज़र्व बाघ, हाथी, इंडियन गौर, पैंथर, बार्किंग डियर, मालाबार विशालकाय गिलहरी और हाइना आदि जीव-जन्तु पाये जाते हैं।
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