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राज्य सरकार बनाम राज्यपाल

(प्रारंभिक परीक्षा- भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान, राजनीतिक प्रणाली)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : संसद और राज्य विधायिका- संरचना, कार्य, कार्य-संचालन, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार और इनसे उत्पन्न होने वाले विषय)

संदर्भ

तमिलनाडु राज्य में निर्वाचित सरकार और राज्यपाल के बीच राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (NEET) विधेयक की मंजूरी को लेकर मतभेद की स्थिति विद्यमान है। कुछ अन्य राज्यों में भी ऐसी स्थिति देखी जा सकती है। यह स्थिति चुनी हुई सरकारों के साथ-साथ संवैधानिक व्यवस्था में विश्वास रखने वालों के लिये एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है।

हालिया घटनाक्रम

  • तमिलनाडु सरकार ने राज्य के छात्रों को नीट परीक्षा से छूट प्रदान करने के लिये एक विधेयक पारित किया तथा स्वीकृति के लिये इसे राज्यपाल के पास भेजा था। हालाँकि, तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित नीट विधेयक को राज्यपाल ने पुनर्विचार के लिये विधानसभा को वापस कर दिया।
  • विधानसभा ने फ़रवरी माह के प्रथम सप्ताह में आयोजित एक विशेष सत्र में पुन: इसे पारित कर राज्यपाल के पास भेज दिया। हालाँकि, राज्यपाल ने अब तक विधेयक को अपनी स्वीकृति प्रदान नहीं की है। विधायिका द्वारा पारित किसी विधेयक को स्वीकृति देना राज्यपाल द्वारा किया जाने वाला एक सामान्य संवैधानिक कार्य है।

राज्यपाल की स्थिति

संवैधानिक स्थिति

  • राज्यों में समय-समय पर उभरने वाले राजनीतिक-प्रशासनिक संदर्भों को समझने के लिये राज्यपाल की संवैधानिक स्थिति को स्पष्ट रूप से समझने की आवश्यकता है।
  • राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। संविधान के अनुच्छेद 154 (1) के अनुसार राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित है, जिसका प्रयोग वह संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार करेगा अर्थात् राज्यपाल केवल मंत्रिपरिषद की सहायता एवं सलाह से ही कार्य कर सकता है।
  • राज्यपालों की शक्तियों के संदर्भ में भारत सरकार अधिनियम, 1935 में प्रयुक्त भाषा और वर्तमान भाषा में बहुत अधिक विचलन नहीं है किंतु यह एक स्थापित संवैधानिक स्थिति है कि राज्यपाल केवल एक संवैधानिक प्रमुख है और राज्य की कार्यकारी शक्ति का प्रयोग मंत्रिपरिषद द्वारा किया जाता है। 

अन्य विभिन्न मत 

  • ‘शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य’ (1974) वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया की राष्ट्रपति व राज्यपाल विभिन्न अनुच्छेदों के तहत वर्णित प्रावधानों के आधार पर कुछ प्रमुख असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर मंत्रिपरिषद् की सलाह पर औपचारिक संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग करेंगे।
  • प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. आंबेडकर के अनुसार संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जिसका निर्वहन राज्यपाल स्वयं कर सकता है।
  • सरकारिया आयोग के अनुसार, यह मान्यता प्राप्त सिद्धांत है कि जब तक मंत्रिपरिषद को विधानसभा का विश्वास प्राप्त है तब तक किसी भी मामलें में इसकी सलाह को राज्यपाल पर बाध्यकारी समझा जाना चाहिये, बशर्ते वह सलाह स्पष्ट रूप से असंवैधानिक न हो । 
  • वर्ष 2016 में सर्वोच्च न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने नबाम रेबिया वाद में राज्यपालों की शक्तियों के संबंध में उपरोक्त स्थिति की पुष्टि की है।

राज्यपाल के पास उपलब्ध विकल्प

  • विधायिका द्वारा पारित होने के बाद किसी विधेयक को कानून बनने के लिये राज्यपाल या राष्ट्रपति की सहमति आवश्यक है। 
  • अनुच्छेद 200 के तहत किसी भी विधेयक को जब राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तब उसके पास चार विकल्प होते हैं-
    • वह विधेयक को स्वीकृति प्रदान कर दे 
    • वह विधेयक पर अपनी स्वीकृति रोक दे 
    • विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित कर ले
    • विधेयक या विधेयक के किसी प्रावधान पर पुनर्विचार के लिये वह इसे वापस लौटा दे
  • राज्यपाल द्वारा विधेयक में कोई नया संशोधन भी सुझाया जा सकता है। हालाँकि, यदि विधायिका पुन: इस विधेयक को पारित कर देती है, तो राज्यपाल संवैधानिक रूप से विधेयक को स्वीकृति देने के लिये बाध्य है।

      संवैधानिक अस्पष्टता एवं सीमाएँ 

      • अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा किसी भी विधेयक को सहमति देने की समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है, इसलिये राज्यपाल किसी निर्णय को अनिश्चित काल के लिये स्थगित कर सकते हैं किंतु राज्यपाल द्वारा इसके तहत उपलब्ध किसी विकल्प का प्रयोग करना आवश्यक है।
      • यह स्पष्ट है कि यदि राज्यपाल उपलब्ध विकल्पों में से किसी का भी प्रयोग नहीं करता है तो वह संविधान के अनुरूप कार्य नहीं कर रहा है क्योंकि अनुच्छेद 200 में निहित विकल्पों में ‘कोई कार्रवाई न करने’ (Non-Action) का विकल्प मौजूद नहीं है।  
      • संविधान में राज्यपाल को किसी विधेयक को अनिश्चित काल तक लंबित रखने की अनुमति प्राप्त नहीं है और अनुच्छेद 200 में उल्लिखित विकल्पों का प्रयोग राज्यपाल द्वारा बिना किसी देरी के प्रयोग किया जाना चाहिये।
      • किसी संवैधानिक प्राधिकरण द्वारा किसी चूक या अस्पष्टता का लाभ उठाकर संविधान के प्रावधानों को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है।

      अलोकतांत्रिक प्रक्रिया  

      • विधायिका द्वारा पारित किसी विधेयक को स्वीकृति देना कार्यकारी शक्ति का नहीं बल्कि विधायी प्रक्रिया का हिस्सा है, किंतु संविधान ने निश्चित विकल्पों का प्रावधान कर राज्यपाल के लिये बिना देर किये उपलब्ध विकल्पों में से किसी भी का प्रयोग करना अनिवार्य कर दिया है। 
      • यूनाइटेड किंगडम में संसद द्वारा पारित विधेयक पर सम्राट द्वारा सहमति देने से इनकार करना असंवैधानिक है। इसी प्रकार, ऑस्ट्रेलिया में ताज द्वारा किसी विधेयक को स्वीकृति देने से इंकार करना संघीय व्यवस्था के प्रतिकूल माना जाता है।
      • भारत की संवैधानिक व्यवस्था में राज्यपाल या राष्ट्रपति अपने कृत्यों के लिये व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं हैं बल्कि इसके लिये निर्वाचित सरकार उत्तरदायी है।
      • अनुच्छेद 361 के तहत राष्ट्रपति या राज्यपाल अपनी शक्तियों और कर्तव्यों के पालन में किये गए किसी भी कृत्य के लिये किसी भी न्यायालय के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। नियुक्त राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक पर सहमति रोकना एक निर्वाचित विधायिका द्वारा किये गए विधायी कार्य को निष्प्रभावी कर देता है अत: यह कृत्य अलोकतांत्रिक और संघवाद के खिलाफ है।

      निष्कर्ष 

      संविधान में राज्यपाल पद का प्रावधान केंद्र व राज्य के मध्य समन्वय स्थापित करना है। हालाँकि, वर्तमान में कुछ राज्यों में राज्यपाल की भूमिका की तुलना केंद्र के एजेंट के रूप में की जाती है। अत: वर्तमान परिस्थिति में राज्यपाल को संविधान द्वारा प्रदत्त कर्तव्यों का निर्वहन निष्पक्ष रूप से करना चाहिये तथा अपने शक्तियों का प्रयोग निर्वाचित मंत्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार करना चाहिये।

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