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हिंद-प्रशांत सम्बंधी सामरिक दृष्टिकोण : चिंतनीय मुद्दे

(प्रारंभिक परीक्षा- राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : भारत एवं इसके पड़ोसी सम्बंध, द्विपक्षीय, क्षेत्रीय व वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित या भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार)

पृष्ठभूमि

हाल ही में सम्पन्न तीसरी ‘वार्षिक अमेरिका-भारत : 2 + 2’ मंत्रिस्तरीय वार्ता में भारत में ‘चतुष्पक्षीय सुरक्षा संवाद’ (Quadrilateral Security Dialogue : Quad), हिंद-प्रशांत वार्ता, चीन से खतरे पर चर्चा और अमेरिका से सम्भावित सहयोग के विचार को आगे बढ़ाया गया है।

वर्तमान समय में भारत के विदेश नीति-निर्माताओं और रणनीतिक समुदाय को ‘हिंद-प्रशांत’ और ‘क्वॉड’ जैसे सामरिक दृष्टिकोण ने अपेक्षाकृत अधिक प्रभावित किया है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के अनुसार भारत इस क्षेत्र के रणनीतिक भविष्य को आकार देने में निर्णायक भूमिका निभा सकता है।

हिंद-प्रशांत और क्वॉड : तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य

  • हिंद-प्रशांत एक वृहद् राजनीतिक-आर्थिक दृष्टिकोण है, जबकि क्वॉड भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के बीच रणनीतिक व सैन्य परामर्श के लिये एक मंच है।
  • इन दोनों दृष्टिकोणों में समानता भी हैं जैसे- क्वॉड के सदस्य हिंद-प्रशांत क्षेत्र के प्रमुख देशों में शामिल हैं। वहीं, कई आधारों पर भिन्नता भी है, जैसे- हिंद-प्रशांत एक राजनीतिक-आर्थिक दृष्टिकोण है, जबकि क्वॉड एक सैन्य-रणनीतिक दृष्टिकोण है।
  • हिंद-प्रशांत एक जटिल राजनीतिक व आर्थिक तस्वीर प्रस्तुत करता है, जबकि क्वॉड अभी संस्थागत शैशवावस्था में है और मुख्यतः राजनयिक व कूटनीतिक स्तर तक सीमित है।

हिंद-प्रशांत और क्वॉड : चीन के संदर्भ में

  • हिंद-प्रशांत और क्वॉड दोनों की अवधारणा चीन केंद्रित है, यह कई मायनों में भारत की भौगोलिक स्थिति तथा इसकी नीतियों को प्रभावित करती है।
  • चीन विरोधी सूक्ष्म व जटिल उपक्रमों के बावजूद हिंद-प्रशांत दृष्टिकोण इस क्षेत्र में चीन की अनावश्यक बढ़त को रोकने में असमर्थ रहा है। जबकि रणनीतिक रूप में चीन की बढ़ती चुनौतियों के बीच क्वॉड अपने चरित्र और अभिप्राय में स्वाभाविक रूप से अधिक चीन विरोधी है।
  • ऐसा प्रतीत होता है कि क्वॉड के सफल होने की सम्भावना पूरी तरह से चीन पर निर्भर करेगी क्योंकि चीन जितना अधिक आक्रामक होगा, क्वॉड को उतना ही अधिक मज़बूत बनाने की कोशिश की जाएगी।
  • दूसरे शब्दों में, यदि चीन को इस समीकरण से बाहर निकाल दिया जाता है तो हिंद-प्रशांत और क्वॉड का औचित्य कम हो जाएगा, यदि भारत इस पूरी रणनीति से बाहर हो जाता है तो भू-राजनीतिक रूप से इनकी और इनसे सम्बंधित देशों की क्षमता बहुत कम हो जाएगी।
  • यद्दपि यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि हिंद-प्रशांत आर्थिक निर्माण के रूप में चीन के ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ ( BRI) का एक विकल्प प्रस्तुत करने में सक्षम होगा क्योंकि हिंद-प्रशांत के कई देश पहले से ही बी.आर.आई. के सदस्य हैं।

भारत की रणनीतिक बाधाएँ

1. रणनीतिक, राजनीतिक व आर्थिक पक्ष

  • राजनीतिक-आर्थिक संरचना के रूप में हिंद-प्रशांत रणनीति की मज़बूती के लिये इसके सदस्यों के बीच आर्थिक भागीदारी और सम्पर्क मज़बूत होना चाहिये। केवल रणनीतिक वार्ता और सम्भावित सैन्य सहयोग पर ध्यान केंद्रित करना पर्याप्त नहीं है क्योंकि ऐसे मुद्दों में आर्थिक पक्ष भी निर्णायक भूमिका निभाता है।

RCEP

  • हाल ही में, भारत ने ‘क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी’ (RCEP) में शामिल न होने का निर्णय लिया था। यह निर्णय इस क्षेत्र में भारत की भावी सम्भावनाओं के लिये चुनौती उत्पन्न कर सकता है।
  • वस्तुतः आर.सी.ई.पी. में शामिल न होने का निर्णय घरेलू राजनीतिक दबाव का परिणाम है, क्योंकि हिंद-प्रशांत देशों के साथ व्यापार के मामले में भारत व चीन की स्थिति में व्यापक अंतर है।
  • हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ भारत और चीन में बढ़ता व्यापार अंतर इस क्षेत्र की रणनीतिक वास्तविकताओं को आकार देने में निर्धारक सिद्ध होगा। साथ ही, आर.सी.ई.पी. पर भारत द्वारा हस्ताक्षर न करने के निर्णय को भी इस क्षेत्र के चीन के साथ संस्थागत जुड़ाव को व्यापक संदर्भ में देखने की ज़रूरत है।
  • ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, अमेरिका, बांग्लादेश और मालदीव के साथ भारत का मुक्त व्यापार समझौता नहीं है, जबकि दक्षिण कोरिया, आसियान, जापान और श्रीलंका के साथ इसका मुक्त व्यापार समझौता है।
  • इसके विपरीत अमेरिका को छोड़कर उपर्युक्त लगभग सभी देशों के साथ चीन का मुक्त व्यापार समझौता ​​है। हालाँकि, बांग्लादेश के साथ चीन का मुक्त व्यापार समझौता नहीं है किंतु हालिया समय में दोनों देशों के मध्य आर्थिंक सम्बंध सुदृढ़ हुए हैं, जबकि श्रीलंका के साथ उसकी बातचीत चल रही है। साथ ही चीन, जापान और दक्षिण कोरिया के बीच त्रिपक्षीय मुक्त व्यापार समझौता वार्ता भी चल रही है।
  • अतः यदि ये देश पर्याप्त विकल्प और राजनीतिक दृढ़ता के साथ चीन से आर्थिक रूप से दूर होने का प्रयास करते हैं तो भी यह एक लम्बी प्रक्रिया होगी।
  • इस प्रकार स्पष्ट रूप से कहा जाए तो केवल रणनीतिक वार्ताओं के कारण ही आर्थिक वास्तविकताओं को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है।

2. सैन्य पक्ष

  • यदि इस क्षेत्र के साथ भारत का आर्थिक जुड़ाव अपर्याप्त है तो इस क्षेत्र में भारत की सामरिक और सैन्य भागीदारी भी कम ही है।
  • बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस और थाईलैंड सहित इस क्षेत्र के कई देशों के लिये चीन प्रमुख रक्षा आपूर्तिकर्ता है, जो भारत की बिक्री, रक्षा संवाद और इस क्षेत्र में सामयिक संयुक्त सैन्य अभ्यासों को प्रभावित करता है।

आगे की राह

  • चीन का मुकाबला करते समय भारत को यह ध्यान रखना चाहिये कि केवल रणनीतिक वार्ताओं से ही आर्थिक वास्तविकताओं का सामना नहीं किया जा सकता है। चीन से मुकाबला करने के लिये वर्तमान में भारत का आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरने के साथ-साथ रणनीतिक और सैन्य उभार भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है।
  • यदि भारत इन राज्यों के लिये एक प्रमुख आर्थिक भागीदार साबित नहीं होता है तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की भूमिका सीमित ही रहेगी।
  • इसके अलावा इस तरह के दृष्टिकोण पर आगे बढ़ने के लिये देश के रणनीतिक वर्ग के भीतर पर्याप्त राजनीतिक सहमति भी आवश्यक है।
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