(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन) |
संदर्भ
हालिया अध्ययनों से पता चला है कि डिब्रू-सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान (DSNP) का पारिस्थितिकी तंत्र बदल रहा है, जिसका मुख्य कारण ब्रह्मपुत्र नदी की बार-बार आने वाली बाढ़ और उद्यान के भीतर स्थित वन गाँवों से बढ़ता मानवीय दबाव है। इन कारकों ने उद्यान की घासभूमि पारिस्थितिकी संरचना को प्रभावित किया है, जिससे वनस्पतियों और जीवों की प्रजातियों पर खतरा मंडरा रहा है।
हालिया अध्ययन के बारे में
- प्रकाशित: Earth नामक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित
- शीर्षक: ग्रासलैंड्स इन फ्लक्स (Grasslands in Flux)
- शोध अध्ययन: असम के डिब्रू-सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान में वर्ष 1999 से 2024 तक भूमि उपयोग एवं भूमि आवरण (LULC) में हुए परिवर्तनों का विश्लेषण किया गया।
- तकनीक: इस अध्ययन में रिमोट सेंसिंग एवं भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) का उपयोग करके LULC परिवर्तनों का विश्लेषण किया गया।
इसे भी जानिए!
डिब्रू-सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान डिब्रूगढ़ एवं तिनसुकिया जिलों में फैला हुआ है। इसको वर्ष 1995 में वन्यजीव अभयारण्य बनाया गया था और वर्ष 1997 में यूनेस्को द्वारा बायोस्फीयर रिजर्व घोषित किया गया। वर्ष 1999 में इसे राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा मिला।
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अध्ययन के निष्कर्ष
आक्रामक प्रजातियाँ
- देशी प्रजातियाँ: अध्ययन में देशी पौधों की दो प्रजातियों ‘बॉम्बैक्स सीबा (सिमलु)’ और ‘लेजरस्ट्रोमिया स्पेसिओसा (अजर)’ को चिह्नित किया गया है, जो आक्रामक प्रजातियों के साथ मिलकर उद्यान के पारिस्थितिकी तंत्र को बदल रहीं हैं।
- बाह्य आक्रामक प्रजातियाँ
- क्रोमोलाइना ओडोराटा
- एगराटम कोनिजॉयड्स
- पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस
- मिकेनिया माइक्रांथा
- परिवर्तन: इन प्रजातियों ने घासभूमियों को झाड़ियों (Shrubland) और अवनत वनों (Degraded Forest) में बदल दिया है।
राष्ट्रीय उद्यानों पर प्रभाव
- वर्ष 2000 में DSNP का 28.78% हिस्सा घासभूमियों से आच्छादित था, इसके बाद अर्ध-सदाबहार वन (25.58%) थे।
- वर्ष 2013 तक झाड़ियाँ सबसे प्रमुख वर्ग बन गईं (81.31 वर्ग किमी.) और अवनत वन 75.56 वर्ग किमी. तक फैल गए।
- वर्ष 2024 तक अवनत वन बढ़कर 80.52 वर्ग किमी. (23.47%) हो गए।
- इस दौरान घासभूमियों (29.94 वर्ग किमी.), अर्ध-सदाबहार वनों (12.33 वर्ग किमी.) और खुली भूमि (10.50 वर्ग किमी.) का बड़ा हिस्सा झाड़ियों में परिवर्तित हो गया।
- यह परिवर्तन जैव विविधता की क्षति, स्थानीय जीवों के अस्तित्व के लिए खतरे और कार्बन भंडारण में कमी का कारण बन रहा है, जिससे जलवायु परिवर्तन की समस्या बढ़ सकती है।
चुनौतियाँ
- घासभूमियों में कमी से कई स्थानिक और वैश्विक रूप से खतरे में पड़ी प्रजातियों, जैसे-बंगाल फ्लोरिकन (हौबारोप्सिस बेंगालेन्सिस), हॉग डियर (एक्सिस पॉर्सिनस) और स्वैम्प ग्रास बैबलर (प्रिनिया सिनेरासेन्स) के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।
- उद्यान में लगभग 200 जंगली घोड़े भी हैं जो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान छोड़े गए सैन्य घोड़ों के वंशज हैं।
आगे के लिए सुझाव
- लक्षित घासभूमि पुनर्स्थापन परियोजना शुरू करना
- आक्रामक प्रजातियों का नियंत्रण एवं नियमित निगरानी की आवश्यकता
- पार्क के अंदर बसे गाँवों का पुनर्वास कर मानवीय दबाव कम करना
- स्थानीय समुदायों की सहभागिता के साथ संरक्षण-आधारित प्रबंधन अपनाना
- एल.यू.एल.सी. (Land Use and Land Cover) आधारित वैज्ञानिक प्रबंधन से जैव विविधता की रक्षा एवं घासभूमि पुनर्जीवन की संभावना