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भारतीय समाज का सहिष्णु व समावेशी स्वरुप 

संदर्भ

वर्ष 2003 में एक सम्मलेन में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि तमाम मतभेदों और विविधताओं के बावजूद भारत का सामाजिक-सांस्कृतिक स्वरूप समावेशी और सहिष्णु बना रहेगा। वस्तुतः उनका यह वक्तव्य देश के कुछ हिस्सों में दो प्रमुख अल्पसंख्यक समुदायों के विरुद्ध हुई हिंसा की घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में था। 

पृष्ठभूमि 

  • भारत में संवैधानिक युग की शुरुआत के इतने वर्षों के पश्चात् भी कई लोग मौजूदा स्थिति को संविधान के विरोधाभास के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार, यह चिंताजनक है कि नागरिकों की गरिमा, समानता और बंधुत्व के लिये किये गए वादों की पहुँच प्रत्येक नागरिक तक अभी भी सुनिश्चित नहीं हो पाई है।
  • क्या वर्तमान समाज महात्मा गांधी द्वारा निर्देशित सत्य, अहिंसा और शांति के मार्ग पर चलते हुए उनके विचारों के अनुरूप आचरण की प्रतिबद्धता रखता है?  क्या उसमें करुणायुक्त एवं बहुलतावादी और धार्मिक रूप से सहिष्णु समाज को स्थापित करने की प्रवृत्ति है? आधुनिक समाज के संदर्भ में ऐसे ही अनेक प्रश्न विचारणीय हैं। 

मानवता का मैग्नाकार्टा और धार्मिक सहिष्णुता 

  • संयुक्त राष्ट्र द्वारा मानवाधिकारों के संबंध में की गई सार्वभौमिक घोषणा को पूरे विश्व में शांति स्थापित करने के प्रयास के रूप में ‘मानवता का मैग्नाकार्टा’ कहा जाता है। 
  • इस घोषणा के अनुसार, सभी मनुष्य जन्म से ही स्वतंत्र होते हैं। उनकी गरिमा, प्रतिष्ठा और अधिकार एकसमान होते हैं। तर्क और विवेकी होने के कारण उन्हें बंधुत्व की भावना से युक्त होकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिये।
  • वर्ष 1966 में अन्य दो अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार अनुबंधों- ‘सभी प्रकार की असहिष्णुता के उन्मूलन और धर्म या विश्वास के आधार पर भेदभाव की घोषणा’ (1981) तथा ‘अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर घोषणा’ (1992) को जोड़ा गया।

धार्मिक आस्था की स्वतंत्रता : संवैधानिक प्रावधान 

  • संयुक्त राष्ट्र द्वारा मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा किये जाने के दौरान ही नव-स्वतंत्र भारत के भविष्य को निर्धारित करने के लिये संविधान का निर्माण किया जा रहा था। 
  • संविधान-निर्माताओं ने मानवाधिकार संबंधी उत्कृष्ट शब्दों एवं भावनाओं को संविधान की उद्देशिका में शामिल किया। इसमें देश के सभी नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता और न्याय के साथ-साथ व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता को सुनिश्चित करने का संकल्प लिया गया।
  • मौलिक अधिकारों के रूप में संविधान के भाग-3 के अंतर्गत उद्देशिका में निहित संकल्पनाओं को विस्तृत और दृढ़ किया गया।
  • राष्ट्र के सभी नागरिकों को अपने संवैधानिक कर्तव्यों के प्रति उत्तरदायित्व की आवश्यकता को देखते हुए संविधान के भाग-4(क) के तहत मौलिक कर्त्तव्यों को जोड़ा गया।
  • इसी कड़ी में, संविधान के अनुच्छेद-25 में देश के सभी वर्गों की ‘धार्मिक-आस्था की स्वतंत्रता’ को सुनिश्चित करने का प्रावधान किया गया। 
  • स्मरणीय है कि वर्ष 1860 में ‘भारतीय दंड संहिता’ के अंतर्गत धार्मिक सभाओं में व्यवधान डालने या धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने जैसी अन्य गतिविधियों के लिये दंड निर्धारित किया गया था।
  • वहीं भारत का चुनाव क़ानून घोषित करता है कि ‘चुनाव के संबंध में’ विभिन्न वर्गों के मध्य धर्म के आधार पर शत्रुतापूर्ण या घृणात्मक भावनाओं को बढ़ावा देना या बढ़ावा देने का प्रयास करना ‘लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम’, 1951 की धारा 125 के तहत दंडनीय अपराध है। 

पंथनिरपेक्ष राज्य पर सर्वोच्च न्यायालय का मत 

  • सर्वोच्च न्यायालय निरंतर भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधानों से जुड़े निहितार्थों की व्याख्या करता रहा है। ‘अहमदाबाद सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात राज्य’ (1974) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धर्म और भाषा की विविधता के बावजूद राष्ट्र के ताने-बाने में एक ‘बुनियादी जन्मजात एकता का सूत्र’ विद्यमान है।
  • ‘एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ’ (1994) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः स्पष्ट किया कि भारत के संवैधानिक प्रावधान एक धार्मिक राज्य की स्थापना पर रोक लगाते हैं और राज्य को किसी धर्म विशेष का पक्ष लेने या उससे स्वयं को संबंधित करने से रोकते हैं।

सतत् सामाजिक-संस्कृति 

  • भारतीय संविधान में ‘पंथनिरपेक्षता’ को अपनाया गया है, जो धार्मिक सहिष्णुता के निष्क्रिय स्वरूप से कहीं अधिक विस्तृत संकल्पना है। यह सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार की सकारात्मक अवधारणा है।
  • प्राचीनकाल से ही भारत में विभिन्न वर्गों, मतों, धर्मों और समुदायों के लोग निवास करते आए हैं। कभी-कभी देश के समक्ष उत्पन्न होने वाली कुछ विषम परिस्थितियों के बावजूद भारत ‘विविधता में एकता’ के अनुरूप स्वयं के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास का मार्ग प्रशस्त कर रहा है।
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