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निर्विरोध निर्वाचन

संदर्भ

  • गुजरात में सूरत लोकसभा क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार मुकेश दलाल को निर्विरोध चुना गया। इससे पहले अरुंचलअरुणाचल विधानसभा के लिए दस उम्मीदवार भी निर्विरोध चुने गए। चुनावी कानूनों और व्यवहार के मौजूदा प्रावधानों में निर्विरोध निर्वाचित होना पूरी तरह से कानूनी है। 
  • सूरत लोकसभा सीट के मामले में दो उम्मीदवारों को अयोग्य घोषित कर दिया गया है और आठ अन्य ने नाम वापस लिया है। ऐसे परिदृश्य में, एक विजेता तो है लेकिन कोई 'पराजित' पार्टी नहीं है। 
  • ऐसे में लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रयोग की अंतर्निहित प्रक्रिया पर सवाल उठते हैं कि निर्विरोध जीत कब मानी जाए जबकि विरोधी प्रत्याशी को नियमों के तहत बाहर रखा गया है या उसने 'स्वेच्छा से' हटने का फैसला किया है।

मतदान से पहले ही उम्मीदवार का निर्वाचन 

  • आरपीए, 1951 की धारा 53 : लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (आरपीए), 1951 की धारा 53 (2) और 53 (3) निर्विरोध निर्वाचन की प्रक्रिया से संबंधित है।
    • इस प्रावधान के अनुसार, यदि ऐसे उम्मीदवारों की संख्या भरी जाने वाली सीटों की संख्या के बराबर या उससे कम है, तो रिटर्निंग ऑफिसर (आरओ) तुरंत ऐसे सभी उम्मीदवारों को निर्वाचित घोषित करेगा।
    • इस संबंध में, आरओ की कार्रवाई आरपीए की धारा 33 द्वारा शासित होती है।
  • आरपीए, 1951 की धारा 33 : लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 33 में वैध नामांकन की आवश्यकताएं शामिल हैं।
    • आरपीए के अनुसार, 25 वर्ष से अधिक आयु का मतदाता भारत के किसी भी निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा चुनाव लड़ सकता है।
    • उप-धारा 4 के अनुसार "नामांकन पत्र प्रस्तुत करने पर, रिटर्निंग अधिकारी स्वयं को संतुष्ट करेगा कि नामांकन पत्र में दर्ज उम्मीदवार और उसके प्रस्तावक के नाम और मतदाता सूची संख्या वही हैं जो मतदाता सूची में दर्ज हैं।"
    • उम्मीदवार का प्रस्तावक उस संबंधित निर्वाचन क्षेत्र से निर्वाचक होना चाहिए जहां नामांकन दाखिल किया जा रहा है।
    • किसी मान्यता प्राप्त दल (राष्ट्रीय या राज्य) के मामले में, उम्मीदवार के लिए एक प्रस्तावक जवकि गैर-मान्यता प्राप्त दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों के लिए दस प्रस्तावकों की अनिवार्यता है।
  • आरपीए की धारा 36 : यह रिटर्निंग ऑफिसर (आरओ) द्वारा नामांकन पत्रों की जांच के संबंध में कानून निर्धारित करती है।
    • आरओ किसी ऐसे दोष के लिए किसी भी नामांकन को अस्वीकार नहीं करेगा जो पर्याप्त प्रकृति का नहीं है।
    • हालाँकि, उम्मीदवार या प्रस्तावक के हस्ताक्षर वास्तविक न होने पर आरओ नामांकन पत्र अस्वीकृति कर सकता है।

निर्विरोध निर्वाचन की आलोचना के आधार 

  • नोटा मतदाता 
  • निर्विरोध  निर्वाचन की प्रक्रिया मतदाताओं को नोटा (उपरोक्त में से कोई नहीं) विकल्प के प्रयोग को समाप्त कर देती है।
  • नोटा विकल्प मूल रूप से कानून में प्रदान नहीं किया गया था, लेकिन राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के बारे में मतदाताओं की राय को प्रदर्शित करने के न्यायालय निर्देश के रूप में शामिल किया गया था।
    • चुनावों में नोटा का विकल्प 2013 से लागू है। 
  • नोटा न तो चुनाव प्रक्रिया को किसी भी तरह से प्रभावित करता है और न ही राजनीतिक दलों पर इसका किसी भी प्रकार का कोई प्रभाव पड़ता दिख रहा है।
    • इस प्रकार, जिसकी राजनीतिक संस्कृति को प्रभावित करने के लिए एक प्रगतिशील सुधार के रूप में कल्पना की गई थी, वह एक ‘अप्रभावी देवदूत’ की भांति व्यर्थ में अपने ‘चमकदार पंख शून्य में फड़फड़ाते हुए’ प्रणाली पर लटका हुआ है।
  • मतदाताओं को अप्रासंगिक बनाना 
  • निर्वाचकों को उपलब्ध विकल्पों में से चयन करना होता है और यदि उनका प्रतिनिधित्व करने के लिए केवल एक ही प्रत्याशी है तो उन्हें विकल्प चुनने की आवश्यकता नहीं है।
  • निर्विरोध निर्वाचन में एक तरह से, ‘निर्वाचक’ को अपने प्रतिनिधि को चुनने की प्रक्रिया से पूरी तरह से बाहर रखा गया है।
    • जिस व्यक्ति को एक भी मत प्राप्त नहीं हुआ है वह पूरे निर्वाचन क्षेत्र की ओर से संसद में कानून बनाने का कार्य करेगा।
  • मत बराबर होना
  • आरपीए प्रावधान करता है कि मतदान के पूर्ण बहिष्कार को प्रत्येक प्रत्याशी के पक्ष में शून्य वोट प्राप्त करने के समान माना जाएगा और धारा 65 के अंतर्गत ‘मत बराबर होने’ से संबंधित है।
  • जिसके अनुसार, यदि मतों की गणना के समाप्त होने के पश्चात् यह पता चलता है कि किन्हीं अभ्यर्थियों के बीच मत बराबर हैं और मतों में से एक मत जोड़ दिए जाने से उन अभ्यर्थियों में से कोई निर्वाचित घोषित किए जाने के लिए हकदार हो जाएगा तो रिटर्निंग आफिसर उन अभ्यर्थियों के बीच लाट द्वारा तत्क्षण विनिश्चय करेगा और ऐसे अग्रसर होगा मानो जिस अभ्यर्थी के हक में लाट निकली है उसे अतिरिक्त मत प्राप्त हो गया है। 
    • यह “लोगों की, लोगों द्वारा और लोगों के लिए सरकार” के रूप में लोकतंत्र की परिभाषा के विरोधाभासी है।

निर्विरोध निर्वाचन के विरोध में उपलब्ध विकल्प 

  • उच्च न्यायालय में अपील : आरपीए, 1951 के अंतर्गत ऐसे विवादों को सुलझाने के लिए प्रत्याशी द्वारा संबंधित उच्च न्यायालय में में अपील की जा सकती है। अधिनियम की धारा 100 किसी उम्मीदवार के चुनाव को शून्य घोषित करने के आधार की रूपरेखा बताती है।
    • उच्च न्यायालय के फैसले से असंतुष्ट पक्ष अंततः सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकता है।
  • अनुच्छेद 329 : आरपीए, 1951 और संविधान का अनुच्छेद 329 (b) एक साथ मिलकर यह प्रावधान करते हैं कि संबंधित उच्च न्यायालय के समक्ष चुनाव याचिका के अलावा किसी भी चुनाव पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है। 
    • अतः जिन आधारों पर ऐसी चुनाव याचिका दायर की जा सकती है उनमें से एक नामांकन पत्रों की अनुचित अस्वीकृति है।
  • सर्वोच्च न्यायालय में अपील : पीड़ित पक्ष उच्च न्यायालय के आदेश के 30 दिन के भीतर उच्चतम न्यायालय में अपील दायर कर सकता है।

आगे की राह 

  • चुनाव याचिकाओं का शीघ्र निस्तारण : आरपीए, 1951 के अनुसार उच्च न्यायालय को चुनाव याचिका को छह महीने के भीतर निस्तारित करना होता है, जिसका अतीत में ज्यादातर पालन नहीं किया गया है। चुनाव याचिकाओं का शीघ्र निस्तारण सही दिशा में एक कदम होगा।
  • फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट-प्रणाली में संशोधन : भारत में सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाले उम्मीदवार को विजयी माना जाता है, इसमें यह मायने नहीं रखता कि जीत का अंतर क्या है। 
    • विजयी उम्मीदवारों की घोषणा के लिए वोटों का न्यूनतम प्रतिशत लागू करके फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली में संशोधन करने पर विचार किया जाना चाहिए।
  • आरपीए, 1951 में संशोधन : आरपीए में पहली बार नामांकन दाखिल करने वाले किसी भी उम्मीदवार के न होने पर दूसरी अधिसूचना जारी करने का प्रावधान है। लेकिन, यदि दूसरी अधिसूचना के बाद भी कोई उम्मीदवार नामांकन नहीं करता तो कानून में कोई प्रावधान ही नही है।
    • यदि कोई उम्मीदवार दूसरी बार चुनाव के लिए खुद को पेश नहीं करता है, तो उस सीट को नामांकित श्रेणी में स्थानांतरित कर दिया जाना चाहिए जहां भारत के राष्ट्रपति स्वविकेक से निर्धारित योग्यता के अनुसार किसी व्यक्ति को नामांकित कर सकते हैं।
  • नोटा के महत्त्व को बढ़ाना : नोटा को "काल्पनिक उम्मीदवार" के रूप में माना जाना चाहिए और नोटा को सबसे अधिक वोट मिलने की स्थिति में नए चुनाव कराए जाने चाहिए।

निष्कर्ष 

ये कई ऐसे मुद्दे हैं जिन पर व्यापक बहस की आवश्यकता है, ताकि ‘उम्मीदवार न मिलने’ के कारण निर्विरोध चुनाव जीतने या ‘सांठगांठ से जीत’ की संभावना से बचा जा सके, जिससे चुनाव वास्तविक रूप से ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ हो तथा लोगों को भय या पक्षपात के बिना अपना वोट डालने का अवसर मिले।

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