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कृषि कल्याण और स्वस्थ आहार : एक-दूसरे के पूरक 

(प्रारंभिक परीक्षा- आर्थिक और सामाजिक विकास)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3: प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कृषि सहायता तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य से संबंधित विषय; जन वितरण प्रणाली- उद्देश्य, कार्य, सीमाएँ, सुधार)

संदर्भ

वैश्विक स्तर पर विगत चार दशकों की आर्थिक नीतियों से इस धारणा को बल मिला है कि राज्य की भूमिका में कमी होने से आर्थिक विकास में तेज़ी आती है तथा लोगों का कल्याण सुनिश्चित होता है। भारत में आर्थिक सुधारों के बाद से ही अधिकांश क्षेत्रों में राज्य के नियंत्रण में कमी की माँग की जाती रही है। हालाँकि अब तक के वैश्विक अनुभवों से यह पता चलता है कि राज्य ने ही जीवन के महत्त्वपूर्ण पहलुओं, जैसे- जल, स्वच्छता, शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, पोषण आदि की वृद्धि में अग्रणी भूमिका निभाई है। इससे समाजिक कल्याण में वृद्धि हुई है।

भारतीय कृषि : विशिष्टता आधारित समस्या

  • विभिन्न कारकों के चलते भारतीय कृषि में लाभ और कृषि रिटर्न में वृद्धि मुश्किल होती जा रही है। इन कारकों में मौसम की अनिश्चितता में वृद्धि होना, मृदा की उर्वरता में कमी होना और पानी की उपलब्धता में कमी होना जैसे तत्त्व शामिल हैं।
  • ‘इकोनॉमीज़ ऑफ़ स्केल’ (Economies of Scale) के माध्यम से औद्योगिक उत्पादक अधिक लाभ प्राप्त करते हैं। वस्तुतः ‘इकोनॉमीज़ ऑफ़ स्केल’ का अर्थ होता है– उद्योगों में उत्पादक द्वारा इकाई लागत में कमी के माध्यम से लाभ में वृद्धि करना। अतः जब उत्पादों की कीमत में तो गिरावट होती है लेकिन लागत में अपेक्षित कटौती नहीं हो पाती है, तो उत्पादक प्रतिस्पर्धा से बाहर हो जाते हैं।
  • ग्रामीण भारत में अधिकांश लोग घरेलू कृषि कार्यों के साथ-साथ अन्य कृषि कार्यों व गैर-कृषि कार्यों में भी संलग्न रहते है। भारत में नौ करोड़ ग्रामीण परिवारों की आय का मुख्य स्रोत अकुशल मानवीय श्रम है। इनमें से चार करोड़ छोटे और सीमांत किसान हैं।
  • इसके अतिरिक्त, एक विशेष जलवायु चक्र एवं मौसम में ही कृषि कार्यों की शुरुआत की जा सकती है। ऐसे में, कृषि क्षेत्र में उत्पादन प्रक्रियाओं को विशेष प्रकार से संगठित एवं व्यवस्थित करने में भी समस्याएँ हैं। भारत में लगभग 86% 'लघु और सीमांत' कृषक हैं। देश में चूँकि सभी किसानों की उपज लगभग एक ही समय तैयार होती है तथा वे भंडारण सुविधाओं तक पहुँच से वंचित हैं। अतः उन्हें एक ही समय पर अपनी फसल को बेचने के लिये विवश होना पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में, ‘अधिक पैदवार’ और ‘मूल्यों में कमी के चलते माँग में वृद्धि’ के बावजूद भी किसानों को पर्याप्त लाभ नहीं मिल पाता है।
  • इसके विपरीत, गरीब उपभोक्ता खाद्यान्न बाज़ार में अनियमितता के चलते सूखे के दौरान या तो भूखे रह जाते हैं या व्यापारियों द्वारा जमाखोरी के कारण उनकी आय का एक बड़ा हिस्सा ऊँची दर पर खाद्यान्न खरीदने में खर्च हो जाता है।

व्यापारी और साहूकारों का ऋण जाल

  • खाद्यान्न व्यापारी जोखिम से सुरक्षा प्रदान करने (Interlocked Markets) के नाम पर साहूकार के रूप में सामने आते हैं और किसानों को ऋण प्रदान करते हैं। इनकी ब्याज दरें अत्यधिक ऊँची होती हैं। ऐसे में, किसानों का इनके ऋण जाल से बचना लगभग असंभव हो जाता है।
  • साथ ही, इन ऋणों के पुनर्भुगतान में देरी होने की स्थिति में इनपुट, आउटपुट, श्रमिक और भूमि-पट्‍टा बाज़ार में शोषण के माध्यम से किसानों का अनुचित लाभ उठाया जाता है। इस प्रकार, साहूकार इनपुट आपूर्तिकर्ता, फसल खरीदार, श्रमिक नियोक्ता और भूमि-पट्टेदार की भूमिकाओं में भी उपस्थित होते हैं।
  • इंटरलॉक मार्केट का यह जाल गरीब और निम्न जाति वर्ग के किसानों पर दोहरा प्रभाव डालते हैं। इन कारणों से कृषि बाज़ार में विभिन्न स्तरों पर राज्य का हस्तक्षेप आवश्यक हो जाता है।

सार्वजनिक खरीद में विविधता की आवश्यकता

  • ‘भारतीय खाद्य निगम’ और ‘कृषि मूल्य आयोग’ वर्ष 1965 में स्थापित किये गए थे। इनमें से वर्ष 1985 में ‘कृषि मूल्य आयोग’ का नाम बदलकर ‘कृषि लागत और मूल्य आयोग’ (CACP) कर दिया गया था। इनकी स्थापना का मूल उद्देश्य यह था कि हरित क्रांति के चलते किसानों के उत्पादन अधिशेष में हुई वृद्धि को सरकार ऊँची कीमतों पर खरीदने का आश्वासन दे।
  • किसानों से ऊंची कीमत पर खरीदे गए खाद्यान्नों को ‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ (PDS) के माध्यम से उपभोक्ताओं को रियायती दरों पर उपलब्ध कराया जाता है। इस सरकारी हस्तक्षेप के माध्यम से न सिर्फ किसानों को आर्थिक सुरक्षा प्राप्त हुई, बल्कि उपभोक्ताओं की भी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हुई।
  • हालाँकि, हरित क्रांति के साथ कुछ समस्याओं ने भी जन्म लिया। पिछले 30 वर्षों में 3लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है। साथ ही, जल-स्तर और जल की गुणवत्ता में भी लगातार गिरावट आई है। महँगे रसायनों के प्रयोग में वृद्धि की तुलना में उत्पादन में कमी आ रही है, अर्थात् कृषि लागत में वृद्धि के अनुरूप उत्पादन में वृद्धि नहीं हो रही है।
  • भारत का लगभग 90% जल कृषि में व्यय होता है, जिसमें से 80% हिस्से का उपयोग चावल, गेहूँ और गन्ने की कृषि में किया जाता है। इन फसलों के लिये एक सुनिश्चित बाज़ार व मूल्य सुरक्षा के कारण किसान पानी की कमी वाले क्षेत्रों में भी इन जल-प्रधान फसलों को उपजाते हैं।
  • अत: ‘सार्वजनिक खरीद प्रक्रिया’ में अधिक फसलों व किसानों को शामिल करने की आवश्यकता है। इससे उच्च एवं सतत कृषि आय, अधिक जल सुरक्षा तथा उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य को अधिक बेहतर बनाया जा सकेगा। सार्वजनिक खरीद प्रक्रिया स्थानीय उत्पादों पर केंद्रित होने के साथ-साथ क्षेत्रीय कृषि-पारिस्थितिकी के अनुरूप होनी चाहिये।
  • मोटे आनाज (पोषक-खाद्यान्न), दालों और तिलहन को भी फसल पैटर्न में शामिल किया जाना चाहिये ताकि फसल विविधता को बढ़ावा देने के साथ-साथ पानी की बचत भी सुनिश्चित की जा सके।

एक स्थिर और नियमित बाज़ार की आवश्यकता

  • सरकार किसानों को खरीद प्रक्रिया में शामिल करके ‘सार्वजनिक खरीद में विविधता’ ला सकती है। साथ ही, खरीद के लिये एक ऐसा बेंचमार्क भी स्थापित किया जा सकता है, जो किसी विशेष मौसम के लिये उत्पाद के वास्तविक उत्पादन का 25% हो सकता है, जैसा कि ‘प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान’ (पी.एम.- आशा) योजना के तहत प्रस्तावित है। यदि वह खाद्यान्न पी.डी.एस. का हिस्सा है तो यह सीमा 40% तक बढ़ाई जा सकती है।
  • स्थानीय स्तर पर खरीदे गए खाद्यान्नों को आँगनवाड़ी पूरक पोषण और स्कूल मध्याह्न भोजन कार्यक्रम में शामिल किया जा सकता है। इससे किसानों के लिये एक स्थिर और वृहद् बाज़ार उपलब्ध हो सकेगा तथा कुपोषण व मधुमेह की समस्या से निपटने में भी सहयता मिलेगी। क्योंकि इन फसलों का ग्लाइसेमिक स्तर बहुत कम होता है, जबकि ये अधिक मात्रा में फाइबर, विटामिन, खनिज, प्रोटीन और एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होते है।
  • इसके अलावा, प्राकृतिक रूप से उगाए जाने वाले कृषि उत्पादों, जैसे- बाजरा और दालों के लिये आवश्यक बुनियादी ढाँचे में सार्वजनिक निवेश से भी कृषि विस्तार करने में मदद मिलेगी।
  • भारत में केवल 17% कृषि उत्पाद ही मंडियों से होकर गुजरते है, अत: इसके नेटवर्क में विस्तार करने की आवश्यकता है। साथ ही, मंडियों के कामकाज को अधिक पारदर्शी और कृषक-अनुकूल बनाए जाने की भी आवश्यकता है।

ग्रामीण भारत में सुधार की अधिक आवश्यकता

  • वर्ष 1956 में द्वितीय पंचवर्षीय योजना शुरू होने के बाद से ही भारतीय आर्थिक नीति का केंद्रीय तत्त्व अधिक-से-अधिक लोगों को कृषि क्षेत्र से उद्योग एवं शहरी क्षेत्रों की ओर स्थानांतरित करना रहा है। हालाँकि, संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2050 में लगभग 800 मिलियन लोग ग्रामीण भारत में निवास करेंगे।
  • भारतीय जनसांख्यिकीय संक्रमण की इस विशेषता को देखते हुए कृषि क्षेत्र को अधिक मज़बूत बनाने की आवश्यकता है क्योंकि शहरी महानगर वर्तमान में और भविष्य में प्रवासियों के लिये पूरी तरह से उपयुक्त नहीं हैं।
  • बढ़ती हुई असमानता और आर्थिक विषमता की स्थिति में कोई भी सुधार तब तक सफल नहीं हो सकता है, जब तक कि वह कमज़ोर और निचले तबके के लोगों को मज़बूत न करता हो। कृषि की स्थिति को राज्य की क्षमताओं में वृद्धि करके और गुणात्मक रूप से बेहतर विनियामक निरीक्षण द्वारा सुधारा जा सकता है।
  • भारतीय कृषि के अति विशिष्ट होने के कारण यह आवश्यक हो जाता है कि सरकार विभिन्न प्रकार से बाज़ार में हस्तक्षेप करे और किसानों व उपभोक्ताओं का कल्याण सुनिश्चित करने के लिये उनमें निवेश करे।
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