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शंघाई सहयोग संगठन और तालिबान की नीतियों पर अंकुश 

(प्रारंभिक परीक्षा- राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : भारत एवं इसके पड़ोसी- संबंध, भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव, महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संस्थान, संस्थाएँ और मंच)

संदर्भ

अफगानिस्तान में तालिबान सरकार के गठन और वैश्विक देशों द्वारा मान्यता प्राप्त करने की कोशिश में लगा हुआ है। इस संदर्भ में शंघाई सहयोग संगठन कई क्षेत्रीय शक्तियों के साथ काम कर सकता है, किंतु कुछ देशों के संकीर्ण स्वार्थ के कारण अफ़गानिस्तान और इसकी सीमा से सटे क्षत्रों में लंबे समय के लिये शांति और स्थिरता के रास्ते में अभी भी कई व्यवधान हैं।

क्षेत्रीय शक्तियाँ और तालिबान

  • क्षेत्रीय शक्तियां भू-रणनीतिक, भू-आर्थिक और अपनी सुरक्षा के दांव पर लगने के साथ-साथ अमेरिका द्वारा अफ़गानिस्तान से पूरी तरह सेना वापसी की घोषणा को लेकर काफी असमंजस में हैं।
  • भारत को छोड़कर अधिकांश क्षेत्रीय शक्तियां गुप्त रूप से तालिबान से बातचीत कर चुकी हैं और अपने क्षेत्र में भू-रणनीतिक व सुरक्षा हितों के लिये कुछ देशों ने इसका प्रयोग भी किया है।
  • ऐसा माना जाता है कि ईरान और रूस ने वर्ष 2019 के बाद अफ़गानिस्तान में इस्लामिक स्टेट से संबंधित पृष्ठभूमि को लेकर तालिबान की सहायता की थी। इन देशों ने अमेरिका के विरुद्ध इस आतंकी समूह का प्रयोग किया।
  • हालाँकि, पाकिस्तान ने अमेरिकी नेतृत्व वाले सैन्य अभियानों को सहयोग देने के साथ-साथ तालिबान को शरण देकर दोहरी रणनीति का प्रयोग किया है। वर्ष 2002 के बाद से ही पाकिस्तान के रक्षा संस्थानों द्वारा तालिबान को भर्ती, प्रशिक्षण और धन उपलब्ध कराया गया है।
  • अफ़गानिस्तान शांति वार्ता के लिये तालिबान के कई राजनीतिक नेताओं ने कतर के अतिरिक्त ईरान, रूस, पाकिस्तान व चीन का दौरा किया था। उन्होंने इन देशों में अधिकारिक स्तर पर मुलाकात भी की थी।
  • तालिबान ने यह स्वीकार किया था कि पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आई.एस.आई. पाकिस्तानी अधिकारियों द्वारा लिये गए हर फैसले में पूरी गंभीरता से शामिल थी। इससे तालिबान और पाकिस्तान के सैन्य संस्थानों के बीच के रिश्ते अधिक स्पष्ट हो गए।
  • युद्ध के कारण बर्बादी के मुहाने पर खड़े अफ़गानिस्तान के विकास में भारत की कूटनीतिक और व्यावसायिक उपस्थिति के ख़िलाफ़ पाकिस्तान रणनीतिक घेराबंदी के लिये प्रयासरत है। हालाँकि, अफ़गानिस्तान में सुरक्षा की बदलती स्थिति के बीच भारत ने तालिबान के कुछ समूहों तक पहुँच बनाई है।
  • इस मामले में चीन ने बेहद ही ‘संकीर्ण तरीका’ और ‘स्वहित प्रेरित कूटनीति’ का मार्ग अपनाया। तालिबान के साथ चीन के संबंध उसके उत्तर-पश्चिमी शिनजियांग प्रांत के अस्थिर होने के साथ वर्ष 1990 से शुरू होते हैं। इस प्रांत के उइगर मुसलमानों ने वर्ष 1980, 1981, 1985 और 1987 में चीन विरोधी प्रदर्शन किया जिसका परिणाम वर्ष 1990 की ‘बारेन की घटना’ थी।
  • पाकिस्तान में चीन के राजदूत ने वर्ष 2000 में शिनजियांग प्रांत में आतंकवादी समूहों के उत्थान को रोकने के लिये तालिबान से मुलाकात की थी। इसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा वर्ष 2019 में तालिबान के साथ वार्ता रद्द करने के उपरांत चीन ने मुल्ला अब्दुल गनी बरादर के नेतृत्व वाले प्रतिनिधि मंडल से बात की

तालिबान पर संदेह 

  • अफ़गानिस्तान की भूमि को ‘अंतर्राष्ट्रीय या व्यक्तिगत आतंकी समूहों’ द्वारा इस्तेमाल करने से रोकने को लेकर तालिबान ने अमेरिका और उसके सहयोगियों की शर्तों को कभी भी पूरा नहीं किया है।
  • तालिबान ने ऐसा ही भरोसा शिया संप्रदाय को लेकर दिया था किंतु पिछले कई महीनों से उसकी गतिविधियों को देखते हुए क्षेत्रीय ताकतों को तालिबान की कथनी और करनी पर भरोसा नहीं है।
  • जुलाई माह में पुनः चीन ने अफ़गानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी को लेकर अमेरिका द्वारा जल्दी में लिये गए फैसले की आलोचना की और भविष्य में इस क्षेत्र के आतंकवादियों के लिये सुरक्षित पनाहगाह बनने की भी शंका व्यक्त की। 
  • इसी तरह अफ़गान कर्मचारियों द्वारा सीमा पार कर तज़ाकिस्तान में घुसने के कारण वहाँ की सरकार को सीमा पर 20,000 रिज़र्व सुरक्षा जवानों की तैनाती करनी पड़ी। साथ ही, तज़ाकिस्तान ने सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन (CETO) से मदद की माँग की। 
  • अफ़गानिस्तान में सत्ता पर काबिज़ होने की कोशिश और अलग-अलग हिस्सों में तालिबान की हिंसा ने देश में राजनीतिक स्थिरता बहाल करने को लेकर अंतर-अफ़गान वार्ता में किये गए वादों को पूरा नहीं किया है। अफ़गानिस्तान में जारी युद्ध का प्रभाव पड़ोसी देशों, जैसे- ईरान, मध्य-एशियाई देश, पाकिस्तान और चीन के शिनजिंयांग प्रांत में तुरंत देखा जाएगा, जबकि रूस और भारत में इसे लेकर सुरक्षा और आतंकवाद संबंधी चुनौतियों में वृद्धि होगी। 
  • जैसे-जैसे क्षेत्रीय शक्तियाँ तालिबानी हिंसा का विरोध करेंगी, अफ़गानिस्तान में जारी गृह युद्ध का लाभ उठाने के लिये पूरे विश्व के आतंकवादी संगठन अफ़गानिस्तान का रुख़ करेंगे। ऐसी स्थिति में शंघाई सहयोग संगठन इस क्षेत्र में तालिबान की चुनौतियों से निपटने के लिये एक अनुकूल अवधारणा को विकसित करने में मदद कर सकता है।

तालिबान पर अंकुश लगाने में एस.सी.ओ. की भूमिका 

  • शंघाई सहयोग संगठन (SCO) वर्ष 2001 में अस्तित्व में आया। वर्तमान में चीन, भारत, कज़ाकिस्तान, किर्गिस्तान, रूस, पाकिस्तान, तज़ाकिस्तान और उज़बेकिस्तान इस क्षेत्रीय संगठन के सदस्य हैं। अफ़गानिस्तान, ईरान, बेलारूस और मंगोलिया इससे पर्यवेक्षक सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। 
  • एस.सी.ओ.मुख्य रूप से क्षेत्रीय सुरक्षा मामलों पर केंद्रित है। शंघाई सहयोग संगठन और क्षेत्रीय आतंकरोधी ढाँचा आतंकवाद, अलगाववाद और क्षेत्रीय अतिवाद पर अंकुश लगाने के लिये प्रयासरत हैं।
  • वर्ष 2001 के बाद अफ़गानिस्तान में परिस्थितियों में बदलाव के परिणामस्वरूप वर्ष 2005 में एस.सी.ओ. ने ‘अफ़गानिस्तान कॉन्टैक्ट ग्रुप’ का निर्माण किया किंतु पश्चिम एशिया में हिंसा भड़कने के बाद से यह संगठन भी मृतप्राय हो गया।
  • अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो सेना के अफ़गानिस्तान से वापसी करने के साथ ही अफगान सरकार एस.सी.ओ. को इस क्षेत्र में शांति और समृद्धि के वैकल्पिक जरिए के रूप में देख रही है।
  • वर्ष 2017 के बाद से ही अफ़गानिस्तान कॉन्टैक्ट ग्रुप को फिर से सक्रिय किया गया, जिसके बाद यह समूह कूटनीतिक चैनलों द्वारा तालिबान और काबुल में नागरिक सरकार के साथ देश में शांति वार्ता में अपनी भूमिका निभाने लगा।
  • वर्ष 2017 के बाद भारत सहित एस.सी.ओ. के सभी सदस्य देश अफ़गानिस्तान की शांति, स्थिरता और समृद्धि के लिये प्रयासरत रहे हैं किंतु भारत और मध्य एशियाई देशों को छोड़कर सभी क्षेत्रीय शक्तियों ने अफ़गानिस्तान और तालिबान को अपने संकीर्ण भू-रणनीतिक और भू-आर्थिक हितों के अनुरूप इस्तेमाल किया। इस दोहरे रवैये से सिर्फ तालिबान को लाभ पहुँचा है।
  • एस.सी.ओ. कॉन्टैक्ट ग्रुप की हाल में हुई बैठक में सभी सदस्यों ने इस पर भरोसा जताया कि अफ़गानिस्तान में जारी संघर्ष को बातचीत के माध्यम से हल किया जाएगा। साथ में अफ़गानिस्तान के नेतृत्व और इसके द्वारा संचालित शांति प्रक्रिया को ही आगे बढ़ाया जाएगा।
  • भारत ने भी अफ़गानिस्तान के लिये तीन सूत्रीय रोड मैप द्वारा इस पर सहमति जताई। यदि एस.सी.ओ. के सदस्य देश तालिबान को लेकर एकमत नहीं होते तो अफ़गानिस्तान समेत इसके पड़ोसी देशों में शांति और स्थिरता एक गंभीर चुनौती बन  सकती है।
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