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गांधीजी का दर्शन

(मुख्य परीक्षा प्रश्नपत्र- 4 ; भारत तथा विश्व के नैतिक विचारकों तथा दार्शनिकों के योगदान )

संदर्भ

  • प्रत्येक वर्ष 2 अक्तूबर को महात्मा गांधी की जयंती के अवसर पर भारत सहित विश्व के विभिन्न देशों में उन्हें याद किया जाता है। इस अवसर पर लोग उनके आदर्शों और सार्वभौमिक विचारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दोहराते हैं।
  • स्वतंत्र भारत की ‘सामूहिक चेतना’ पर गांधी का व्यापक प्रभाव रहा है। वे संभवतः सबसे बड़े एवं प्रभावशाली व्यक्ति हैं, जिन्हें आधुनिक भारत ने जन्म दिया है।

विश्व के प्रमुख दार्शनिक 

  • सामान्यतः गांधी को एक दार्शनिक के रूप में चित्रित किया जाता है। कुछ लोगों के लिये गांधी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं, जितने कि बौद्ध ‘मतावलंबियों’ के लिये बुद्ध तथा प्लेटो के लिये सुकरात हैं।
  • चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस की तरह ही इन तीनों को अद्वितीय माना जाता है, क्योंकि उन्होंने जीवन के दार्शनिक रास्तों का सृजन किया है। इनके दार्शनिक विचार तत्वमीमांसा (Metaphysics) की बजाय नैतिकता पर आधारित हैं।
  • बुद्ध के दार्शनिक विचार कुछ शताब्दियों के भीतर जीवन के दो अलग-अलग रास्तों – ‘थेरवाद और महायान’ में रूपांतरित हो गए। हालाँकि, सुकरात के विचारों के साथ ऐसा नहीं हुआ, उनका हेलेनिस्टिक दर्शन, आत्मसंयमवाद (Stoicism) की तरह ही अभी भी लोगों को प्रेरित करने में सक्षम है।
  • गांधीजी के संबंध में यह मान्यता धीरे-धीरे स्थापित हो रही है कि वह एक दार्शनिक थे। गांधीजी को एक दार्शनिक के रूप में मान्यता देने का श्रेय दर्शन की विश्लेषणात्मक परंपरा से संबंधित दो दार्शनिकों- अकील बिलग्रामी और रिचर्ड सोराबजी को जाता है। ये ग्रीक और हेलेनिस्टिक दर्शन के इतिहासकार हैं।

दार्शनिक जीवन-शैली

  • दर्शनशास्त्र आरंभ में केवल तीन सभ्यताओं– भारत, ग्रीक और चीनी में प्रचलित था। इन सभ्यताओं के दर्शन अलौकिक शक्तियों पर विश्वास में निहित थे।
  • हालाँकि, प्राचीन काल में प्रचलित जीवन दर्शन को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है - एक तत्वमीमांसा-आधारित दार्शनिक जीवन-शैली तथा दूसरी नैतिकता-आधारित दार्शनिक जीवन-शैली।
  • बुद्ध, सुकरात और कन्फ्यूशियस द्वारा प्रतिपादित दर्शन को छोड़कर अन्य सभी दर्शनों ने जीवन के तत्वमीमांसा सिद्धांत को प्रचारित किया है।
  • इन तरीकों के मध्य बुनियादी अंतर यह है कि नैतिकता-आधारित जीवन-शैली में व्यक्ति अपनी आधारभूत स्थिति को नैतिक रूप से सुकरात और बुद्ध की स्थिति में बदलने का प्रयास करता है। इसे ही मनोवैज्ञानिक रूप से ‘आत्मनिर्भर स्थिति’ की संज्ञा दी जाती है।
  • बुद्ध ने ऐसी स्थिति को ‘निर्वाण’ की स्थिति के रूप में संबोधित किया है, जबकि सुकरात ने इस संदर्भ में कहा है कि “एक गुणी व्यक्ति को नुकसान नहीं पहुँचाया जा सकता है”।
  • तत्वमीमांसा-आधारित जीवन-शैली में व्यक्ति उच्च नैतिक स्थिति की बजाय दार्शनिक समझ की अंतर्दृष्टि (Insight) के साथ-साथ ‘परम’ (Ultimate) होने की कोशिश करता है। इस जीवन-शैली में नैतिकता की भूमिका ‘गौण’ हो जाती है।

नैतिकता आधारित जीवन-शैली 

  • 20वीं सदी में गांधीजी ने जीवन की मूल नैतिकता आधारित जीवन-शैली को फिर से खोजा लेकिन उसका दार्शनिक महत्त्व काफी हद तक अपरिचित ही रहा।
  • इसका कारण यह है कि यूरोप में ईसाई धर्म ने 529 ईस्वी में सभी गैर-ईसाई जीवन शैलियों पर प्रतिबंध लगा दिया था, जो यूरोप में 17वीं शताब्दी में विशुद्ध रूप से ‘सैद्धांतिक अनुशासन’ के रूप में उभरा।
  • इसके बाद ही यूरोप में दार्शनिक जीवन-शैली का विचार विलुप्त हो गया। अठारहवीं शताब्दी के अंत तक दर्शनशास्त्र एक ‘अकादमिक अनुशासन’ बनकर रह गया। परिणामस्वरूप अब केवल दर्शनशास्त्र विभागों में कार्यरत शिक्षाविदों को दार्शनिक माना जाता था।
  • औपनिवेशीकरण के साथ-साथ इन यूरोपीय विचारों को वैश्विक जगत में प्रसारित किया जाने लगा। इन्ही मानकों के कारण यूरोपीय विचारक गांधीजी को दार्शनिक नहीं मानते थे।
  • अतः इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि ज़्यादातर लोगों को गांधीजी के केवल राजनीतिक आयाम पर बल दे रहे थे क्योंकि उनका उनके नैतिक आयाम और उससे जुड़ी जीवन-शैली ‘धर्म’ की श्रेणी में शामिल हो गई। हालाँकि, कई लोग गांधीजी को धार्मिक नहीं मानते थे, भले ही वे लगातार वैष्णव मत की शब्दावलियों का प्रयोग करते रहे हों।
  • यदि अध्यात्म का अर्थ ‘आत्मकेंद्रितता में कमी’ माना जाए, तो वे आध्यात्मिक थे। वर्ष 1929 में ‘ईश्वर ही सत्य है’ से ‘सत्य ही ईश्वर है’ में उनके रूपांतरण का उद्देश्य नैतिकता को दर्शन का ‘प्रथम सिद्धांत’ बनाना था।

गांधीजी के दार्शनिक विचार

  • गांधीजी, बुद्ध की तरह एक नैतिक परिणामवादी थे, जिसके तहत नैतिक तरीके से आत्म-केंद्रितता को कम करना और सभी की भलाई (सर्वोदय) के विचार को बढ़ावा देना है।
  • अपने जीवन के अंत तक वे लगातार अपने स्वयं के ‘आत्मकेंद्रित व्यवहार’ और उन विचारों से छुटकारा पाने की कोशिश करते रहे। कई अवसरों पर उन्होंने कहा था कि वे अपने आप को ‘शून्य तक लाने की आकांक्षा रखते’ हैं, अर्थात् स्वार्थ/आत्म-केंद्रितता को पूरी तरह से समाप्त करना चाहते हैं। 
  • बुद्ध भी सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य जैसे गुणों के माध्यम से आत्म-केंद्रितता को कम करके सर्वोदय को बढ़ावा देना चाहते थे। बुद्ध के अनुभवजन्य सिद्धांतों के अनुसार, एक बार जब सर्वोदय का सरोकार स्थिर हो जाता है, तो मनोवैज्ञानिक रूप से भी आत्मनिर्भरता आ जाती है। इसके परिणामस्वरूप असंतोष (दुःख) और उसका सहवर्ती भय गायब हो जाता है।
  • गांधीजी ने इस स्थिति को ‘निर्वाण’ की बजाय ‘मोक्ष’ की संज्ञा दी थी। फिर भी, कुछ बातें गांधीजी को बुद्ध से अलग करती हैं। बुद्ध के विपरीत, गांधीजी वैयक्तिक मोक्ष की जगह सामूहिक मोक्ष को प्राथमिकता देते थे ।
  • यहाँ गांधीजी की सामूहिक मोक्ष की अवधारणा उनके रचनात्मक कार्यों से स्पष्ट होती है। इनमें समग्र मानवता को भूख, प्यास, निरक्षरता, रोगों से मुक्ति दिलाना आदि शामिल हैं। , गांधीवादी नैतिकता के अनुसार, केवल राजनीतिक कार्रवाई के माध्यम से उक्त रचनात्मक कार्यक्रम को लागू किया जा सकता है।
  • इसलिये, एक समाजवादी समाज ही गांधीजी के दार्शनिक जीवन का स्पष्ट आधार है, क्योंकि स्वार्थविहीन नैतिकता केवल तार्किक कारणों से समाजवादी जीवन-शैली को स्वीकार कर सकती है।
  • स्वार्थ पर आधारित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था गांधीजी की दार्शनिक जीवन-शैली के लिये अभिशाप है। कोई भी गांधीवादी केवल समाजवाद के मौलिक सिद्धांतों- समानता और निजी संपत्ति की अनुपस्थिति के आधार पर एक समुदाय में रह सकता है।
  • गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम ने पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था के भीतर समाजवादी परिक्षेत्रों को सृजित करने की मांग की है, इसे ही उन्होंने उस ‘स्वराज’ का नाम दिया है।

निष्कर्ष

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि गांधी द्वारा प्रचारित अहिंसक और नैतिक शैली सभी को आध्यात्मिक बनाने तथा सभी प्राणियों के कल्याणार्थ कार्य करने के लिये प्रेरित करती रहेगी।

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