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चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में निष्पक्षता का मामला  

(प्रारंभिक परीक्षा- भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान, राजनीतिक प्रणाली)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : विभिन्न संवैधानिक पदों पर नियुक्ति और विभिन्न संवैधानिक निकायों की शक्तियाँ, कार्य और उत्तरदायित्व)

संदर्भ

हाल ही में, मुख्य चुनाव आयुक्त तथा अन्य चुनाव आयुक्तों ने प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव की अध्यक्षता वाली एक अनौपचारिक बैठक में भाग लिया। इसके अतिरिक्त, सेवानिवृत्त न्यायाधीशों, पूर्व चुनाव आयुक्तों सहित नागरिक समाज ने चुनावों के दौरान भारतीय निर्वाचन आयोग की कथित निष्क्रियता को लेकर चिंताएँ व्यक्त की हैं। अत: चुनाव आयुक्तों को राजनीतिक प्रभाव से अलग रखने के लिये इनकी नियुक्ति प्रक्रिया में परिवर्तन की मांग की जा रही है।    

चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति

  • संविधान के अनुच्छेद-324 में चुनाव आयोग की स्थापना का प्रावधान है। इसके अनुसार चुनाव आयुक्तों की संख्या तथा उनका कार्यकाल संसद द्वारा इस संबंध में निर्मित विधि के अधीन होता है।
  • वर्ष 1989 में चुनाव आयुक्तों की संख्या को 1 से बढ़ाकर 3 कर दिया। इसे बाद में पुनः एक सदस्यीय बना दिया गया किंतु वर्ष 1993 में इसे फिर से 3 सदस्यीय कर दिया गया। तब से संसद ने नियुक्ति प्रक्रिया में कोई बदलाव नहीं किया है।
  • वर्तमान में मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।

विभिन्न समितियों की सिफारिशें

  • वर्ष 1975 में गठित ‘तारकुंडे समिति’ ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिये चयन समिति में प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता तथा भारत के मुख्य न्यायाधीश को शामिल करने की सिफ़ारिश की थी।
  • दिनेश गोस्वामी समिति तथा वर्ष 2015 में गठित विधि आयोग ने भी तारकुंडे समिति की सिफारिशों को दोहराया।
  • दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट (2007) में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिये गठित समिति में कानून मंत्री तथा राज्यसभा के उपसभापति को भी शामिल करने की सिफ़ारिश की गयी थी।

सर्वोच्च न्यायालय का रुख़

  • ‘रोजर मैथ्यू बनाम साउथ इंडियन बैंक लिमिटेड वाद’ में सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को एक अर्ध-न्यायिक निकाय माना है क्योंकि यह विभिन्न राजनीतिक दलों के मध्य विवादों का निपटारा करता है। ऐसे में कार्यपालिका चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में एकमात्र भागीदार नहीं हो सकती है।
  • ‘अनूप बरनवाल बनाम भारत संघ वाद’ (2015) में भी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिये कॉलेजियम के गठन की मांग की गई थी। यह मामला संवैधानिक पीठ के समक्ष लंबित है।

निष्कर्ष

चुनावी प्रक्रिया तथा चुनाव आयोग की विश्वसनीयता लोकतंत्र का आधार हैं। अत: आयोग की स्वायत्तता को बनाए रखने के लिये संस्थागत उपायों की आवश्यकता है। यह न केवल शक्ति के पृथककरण के सिद्धांत के अनुकूल होगा, बल्कि एक निष्पक्ष संस्था के रूप में चुनाव आयोग में जनता के विश्वास को भी मज़बूत करेगा।

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