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मणिपुर: असममित संघवाद का उदाहरण 

(प्रारंभिक परीक्षा- भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान, राजनीतिक प्रणाली)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: संघीय ढाँचे से संबंधित विषय एवं चुनौतियाँ)

संदर्भ

एक मानक और संस्थागत व्यवस्था के रूप में भारतीय संविधान में मान्यता प्राप्त ‘विषम या असममित संघवाद’ (Asymmetric Federalism) के कुछ उपबंध हालिया दिनों में चर्चा में रहे हैं। 

विषम या असममित संघवाद

  • शासन की पद्धतियों के आधार पर राष्ट्रों को ‘संघीय’ या ‘एकात्मक’ के रूप में उल्लिखित किया जाता है।
  • एकात्मक व्यवस्था में केंद्र के पास ‘प्रशासन और कानून’ से संबंधित पूर्ण शक्तियाँ होती हैं, जबकि इसकी घटक इकाइयों के पास बहुत कम स्वायत्तता होती है।
  • संघीय व्यवस्था में घटक इकाइयों की पहचान ‘क्षेत्र या नृजातीयता’ के आधार पर की जाती है, और उन्हें विभिन्न रूपों में ‘प्रशासनिक और विधायी स्वायत्तता’ प्रदान की जाती है।
  • ‘विषम या असममित संघवाद’ से आशय, संघ का गठन करने वाली इकाइयों के मध्य राजनीतिक, आर्थिक और वित्तीय शक्तियों के असमान वितरण से है। गौरतलब है कि भारत में केंद्र एवं राज्य मुख्य प्रशासनिक इकाइयाँ हैं।  
  • भारतीय संघवाद में राज्यों को उनकी विशिष्ट स्थानीय, ऐतिहासिक और भौगोलिक विशेषताओं के आधार पर विशेष अधिकार दिये गए हैं, जैसे अनुच्छेद 371 से 371ञ, पाँचवीं और छठवीं अनुसूची आदि। 
  • केंद्र और राज्यों के अतिरिक्त, देश में विधानसभा वाले संघ राज्यक्षेत्र तथा बिना विधायिका वाले संघ राज्यक्षेत्र हैं।
  • संविधान लागू होने के समय विभिन्न राज्यों और अन्य प्रशासनिक इकाइयों को भाग ए, बी, सी और डी में विभाजित किया गया था।
  • भाग ‘ए’ में ब्रिटिश भारत के प्रांत, भाग ‘बी’ में पूर्ववर्ती रियासतें, भाग ‘सी’ में तत्कालीन मुख्य आयुक्त के प्रांत तथा भाग ‘डी’ में अंडमान और निकोबार शामिल था।

विषम संघवाद से संबंधित धारणाएँ

  • केंद्र सरकार ने वर्ष 2019 में संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू और कश्मीर को प्रदत्त ‘विशेष प्रस्थिति’ को निराकृत (Abrogate) कर दिया था।
  • हाल के दिनों में अनुच्छेद 371 के कुछ उपबंधों को ‘कम करने’ के प्रयास किये गये हैं। उल्लेखनीय है कि अनुच्छेद 371क नागालैंड के निवासियों को भूमि और संसाधनों के संबंध में तथा अनुच्छेद 371ग मणिपुर की पहाड़ी क्षेत्र समिति को आदिवासी पहचान व संस्कृति तथा स्थानीय प्रशासन के संबंध में विशेष अधिकार प्रदान करता है।
  • राष्ट्रीय एकीकरण के पक्षधरों का तर्क है कि क्षेत्रीय और भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में प्राप्त उक्त अधिकारों से राष्ट्रीय एकता कमज़ोर होती है। उनका कहना है कि इससे ‘अपकेंद्रीय प्रवृत्तियों’ (Centrifugal tendencies) का प्रसार होता है, अर्थात् यह राष्ट्र के एकीकरण, विकास और शांति को बाधित करता है।
  • असममित/विषम संघवाद के विरोधी अखंड, समरूप राष्ट्र तथा बहुसंख्यकवादी विचार का समर्थन करते हैं।
  • 1960 के दशक के मध्य में ‘असममित संघवाद’ के विचार को विकसित करने वाले अमेरिकी राजनीतिक विज्ञानी चार्ल्स टैर्लटन ने कहा था कि यदि इसका ठीक से उपयोग नहीं किया गया, तो इसमें किसी भी राष्ट्र को अस्थिर करने की क्षमता होती है।
  • वस्तुतः 1990 के दशक में ‘पूर्वी यूरोपीय कम्युनिस्ट राज्यों’ के ‘एक-साथ रहने’ के असफल अनुभव ने ‘असममित संघवाद’ के बारे में गहरा संदेह उत्पन्न कर दिया।

एकीकरणवादी दृष्टिकोण 

  • भारतीय संविधान के निर्माण के समय संविधान सभा के सदस्य असममित संघवाद के नकरात्मक पक्षों, जैसे राजनीतिक अस्थिरता, अलगाववाद की भावना आदि से परिचित थे।
  • संविधान सभा के कुछ सदस्य ‘विशिष्ट अधिकारों और असममित उपबंधों’ को अप्रासंगिक मानते थे। वे गोपीनाथ बोरदोलोई समिति द्वारा प्रस्तावित ‘स्वायत्त ज़िला परिषदों’ के विचार से असहज थे।
  • उल्लेखनीय है कि गोपीनाथ बोरदोलोई समिति संविधान सभा की एक उप-समिति थी, जिसने ‘स्व-शासन’ के द्वारा पूर्वोत्तर में आदिवासी समूहों की विशिष्ट पहचान, संस्कृति और जीवन-शैली को संरक्षित करने के लिये संस्तुति की थी।
  • जयपाल सिंह और बी.आर. आंबेडकर जैसे सदस्यों ने आदिवासी विशिष्टता और पृथक संस्थागत समायोजन की आवश्यकता को रेखांकित किया। असम के एक प्रमुख सदस्य ‘कुलधर चालिहा’ ने एक एकीकरणवादी दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए खुले तौर पर आदिवासी समूहों को आत्मसात करने की वकालत की थी।
  • चालिहा के इस दृष्टिकोण को आदिवासी समूहों की स्व-शासन क्षमता पर एक गहरे संदेह के रूप में देखा गया। उन्होंने अपने एकीकरणवादी दृष्टिकोण के पक्ष में तर्क देकर कहा कि आदिवासियों का स्व-शासन का अधिकार, उन्हें ‘आदिवासीवाद’ (tribalism) की तरफ ले जाएगा, जिससे भारत की क्षेत्रीय अखंडता और सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
  • जम्मू और कश्मीर, लद्दाख तथा पूर्वोत्तर भारत के कई अन्य स्थानों में संवैधानिक विषमता की निरंतर मांग को अवैध ठहराने के लिये इस एकीकरणवादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया जाता रहा है। 

शक्तियों का विकेंद्रीकरण

  • असममित संघवाद के व्यापक ढाँचे के तहत प्रशासन का एक और महत्त्वपूर्ण स्तर है। इसमें संविधान की छठी अनुसूची के तहत असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम के आदिवासी क्षेत्रों के स्व-शासन से संबंधित उपबंध हैं।
  • ये स्वायत्त ज़िले और स्वायत्त क्षेत्रों का गठन करते हैं। विभिन्न अनुसूचित जनजातियों वाले किसी भी स्वायत्त ज़िले को स्वायत्त क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है।
  • इन्हें ज़िला परिषदों एवं क्षेत्रीय परिषदों द्वारा प्रशासित किया जाता है। ये परिषदें भूमि के आवंटन, कब्ज़े व उपयोग, आरक्षित वनों के अतिरिक्त अन्य वनों के प्रबंधन तथा जल धाराओं के संबंध में कानून बना सकती हैं।
  • इसके अलावा, वे सामाजिक रीति-रिवाजों, विवाह, तलाक तथा संपत्ति के मुद्दों को नियंत्रित कर सकती हैं।
  • असम में छठी अनुसूची के तहत कार्बी-ऑन्गलॉन्ग स्वायत्त परिषद्, दीमा हसाओ स्वायत्त ज़िला परिषद् और बोडोलैंड प्रादेशिक परिषद् की स्थापना की गई है। लद्दाख में दो स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद् (लेह और कारगिल), जबकि दार्जिलिंग गोरखा पहाड़ी परिषद् पश्चिम बंगाल में है।

मणिपुर का उदाहरण

  • उक्त एकीकरणवादी दृष्टिकोण की प्रतिध्वनि मणिपुर सरकार के दो हालिया प्रयासों से परिलक्षित होती है। इनमें शामिल हैं-

(i) मणिपुर (पहाड़ी क्षेत्र) स्वायत्त ज़िला परिषद् (संशोधन) विधेयक, 2021 के पारित होने पर रोक लगाना।
(ii) घाटी क्षेत्रों से नौ विधानसभा सदस्यों को ‘पहाड़ी क्षेत्र समिति’ में शामिल करना। 

  • मणिपुर सरकार के दृष्टिकोण से पहला कदम एक ‘संवेदनशील’ मुद्दा है, अतः इस पर कानून विभाग एवं राज्य के महाधिवक्ता द्वारा कानूनी जाँच की आवश्यकता है।
  • दूसरे मामले में, विधानसभा अध्यक्ष द्वारा घाटी क्षेत्रों के नौ विधायकों को ‘पहाड़ी क्षेत्र समिति’ में शामिल करने संबंधी निर्णय को अनुच्छेद 371ग पर ‘दुर्भावनापूर्ण’ और ‘प्रत्यक्ष हमले’ के रूप में देखा जा रहा है।
  • उक्त समिति में घाटी के प्रतिनिधियों को शामिल करने के निर्णय को घाटी-आधारित नागरिक समाजों के बढ़ते दबाव के रूप में देखा जा रहा है। दरअसल, इनकी कई वर्षों से मांग रही है कि पहाड़ी लोगों के विशेषाधिकारों को समाप्त कर ‘संवैधानिक विषमता’ को दूर किया जाना चाहिये।
  • संवैधानिक विशेषज्ञ इसे संवैधानिक उपबंधों का उल्लंघन भी मान रहे हैं, उनका कहना है कि समिति में किसी सदस्य को शामिल करना, राष्ट्रपति के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आता है।

भावी राह

  • स्वायत्त परिषदों में सदस्यों की संख्या में वृद्धि कर अधिक विकासापरक जनादेश देना एक स्वागतयोग्य कदम है। फिर भी, सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को एक-चौथाई सीटों में आरक्षण देने से परिसीमन से संबंधित जटिलताएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
  • इसके अतिरिक्त, गैर-प्रतिनिधित्व वाली जनजातियों की केवल तीन महिला सदस्यों का मनोनयन भी अपर्याप्त है।
  • अनुच्छेद 371ग के तहत आदिवासियों के विकास, उनकी पहचान और संस्कृति को बढ़ावा देने के उपयुक्त उपबंध किये गये हैं, जिसे ईमानदारी व प्रतिबद्धता से लागू करने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि राजनीतिक सुविधा के अतिरिक्त आदिवासी विशिष्टता की पहचान तथा उसे संस्थागत रूप से समायोजित करना राज्य की अखंडता, स्थिरता और शांति के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण हैं।

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