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जाति आधारित जनगणना की आवश्यकता

संदर्भ

  • हा ही में, लोकसभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए केंद्रीय गृह राज्यमंत्री ने यह स्पष्ट किया कि भारत सरकार ने वर्ष 2021 में होने वाली जनगणना में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के अलावा अन्य जाति आधारित जनगणना नहीं कराने का निर्णय लिया है। इसके बाद से ही विपक्ष के द्वारा जाति जनगणना की माँग तेज़ कर दी गई है।
  • हाल ही में समाप्त हुए मानसून सत्र में, संसद ने 127वां संविधान संशोधन विधेयक, 2021 पारित किया गया। यह विधेयक राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को उनकी अन्य पिछड़े वर्ग की सूची बनाने की शक्ति को पुनर्बहाल करता है। गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने मराठा आरक्षण के संबंध में अपने निर्णय में राज्य सरकारों को 102वें संविधान संशोधन से प्राप्त पिछड़े वर्गों की पहचान करने की शक्ति को कम कर दिया था।

जातिगत जनगणना- पृष्ठभूमि

  • भारत में पहली जनगणना वर्ष 1872 में कराई गई। वर्ष 1881 की जनगणना के बाद से देश में प्रत्येक 10 वर्ष पर जनगणना कराई जा रही है। वर्ष 2021 में होने वाली जनगणना देश की 16वीं जनगणना होगी। जनगणना कानून, 1948 तथा जनगणना नियम 1990 जनगणना के लिये वैधानिक फ्रेमवर्क उपलब्ध कराते हैं।
  • भारत में आखिरी बार जातिगत जनगणना वर्ष 1931 में की गई थी। इसके बाद से देश में जातिगत जनगणना नही की गई है। वर्ष 2011 की जनगणना में जाति से संबंधित आँकड़ें एकत्रित किये गए, परंतु उन्हें प्रकाशित नहीं किया गया। स्वतंत्रता के बाद से केवल अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति से संबंधित आकड़ें एकत्रित एवं प्रकाशित किये जा रहे हैं।
  • वर्ष 1931 के जनगणना आँकड़ों के अनुसार, देश में पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या लगभग 52 प्रतिशत है।

ार्वजनिक सेवाओं पर प्रभाव

  • सार्वजानिक क्षेत्र में नौकरियों के कम होने के कारण अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिये आरक्षित नौकरियो की संख्या में कमी आई है। संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा में नियुक्तियों  की संख्या में वर्ष 2014 से 2018 के मध्य लगभग 40 प्रतिशत की कमी आई है। यह वर्ष 2014 में 1,236 से घटकर 2018 में 759 हो गई है।
  • सेवाओं में अनुसूचित जाति की संख्या में गिरावट का प्रमुख कारण सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का निजीकरण है। 2011-12 से 2017-18 के मध्य केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में 2.2 लाख नौकरियों की कमी आई है। इसके कारण अनुसूचित जाति के रोज़गार में 33000 नौकरियों की कमी आई है।
  • वर्ष 2019 में सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिये 10 प्रतिशत आरक्षण की शुरुआत की गई। इसके अंतर्गत सामान्य वर्ग में आने वाली उच्च जातियों को सम्मिलित किया गया है। इसमें 8,00,000 रुपए वार्षिक की आय सीमा को मानक बनाया गया है। इससे इसका विस्तार सामान्य वर्ग के लगभग 90 प्रतिशत लोगों तक हो गया है।

ातिगत जनगणना के विपक्ष में तर्क

स्वतंत्रता के बाद देश में पहली जनगणना वर्ष 1951 में कराई गई थी। इस जनगणना में जातीय जनगणना का मुद्दा उठाया गया। तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने जातिगत जनगणना का समर्थन नही किया तथा इससे सामाजिक ताने-बाने के बिगड़ने का संदेह जताया।

जातिगत जनगणना के पक्ष में तर्क

  • भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जाति का अत्यंत महत्त्व है। अतः जातियों के संबंध में बिना विश्वसनीय आँकड़ों के न तो जाति की सामाजिक विवेचना की जा सकती है और न ह सामाजिक कल्याण की योजनाओं को सही तरीके से लागू किया जा सकता है।
  • जाति आधारित जनगणना को राष्ट्र निर्माण के लिये आवश्यक कदम के रूप में समझा जा सकता है। यह राष्ट्रीय एकता एवं सामाजिक समरसता स्थापित करने का एक अवसर है। क्योंकि राष्ट्रीय एकता एवं सामाजिक समरसता एक वर्ग को सत्ता एवं संसाधनों के वैध हिस्सों से वंचित करके हासिल नही की जा सकती।
  • देश में जनगणना के समय अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की गणना की जाती है तथा धर्म से संबंधित आँकड़ें भी एकत्र किये जाते हैं। ऐसी स्थिति में पिछड़ी जातियों से संबंधित आँकड़े लिया जाना उनके विकास की दृष्टि से उचित नहीं हैं।
  • जातियों के सशक्तीकरण से ही जाति व्यवस्था को समाप्त किया जा सकता है। इसके लिये जातियों की सही स्थिति को जानना आवश्यक है।
  • देश में शिक्षा, नियोजन, चुनाव में टिकट इत्यादि क्षेत्रों में जातियों को आधार बनाया जाता है। ऐसी स्थिति में जातिगत जनगणना आवश्यक है।
  • जनगणना में पिछड़े वर्गों की गणना से उनके वास्तविक आँकड़ों के साथ ही उनकी शैक्षिक, आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति के बारे में भी  महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होगी। यह उनके विकास के लिये आवश्यक है।
  • विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों एवं राजनीतिक दलों के द्वारा जातीय जनगणना की माँग की जा रही है।

 निष्कर्ष

जाति आधारित जनगणना को लक्षित नीतियों को सुविधाजनक बनाने एवं आरक्षण को पुनर्जीवित करने के लिये एक साधन के रूप में नही माना जाना चाहिये। यह सामाजिक सद्भाव, राष्ट्रीय एकता और अंतर-समूह समानता सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इसे सामाजिक परिवर्तन के लिये महत्त्वपूर्ण उपकरण के रूप में समझा जाना चाहिये।

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