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लोकतांत्रिक और संघीय सिद्धांत में समन्वय की आवश्यकता

(प्रारंभिक परीक्षा :  भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान, राजनीतिक प्रणाली)
(मुख्य परीक्षा, प्रश्न पत्र 2: संघ एवं राज्यों के कार्य तथा उत्तरदायित्व, संघीय ढाँचे से संबंधित विषय एवं चुनौतियाँ)

संदर्भ

भारतीय संविधान को वर्ष 2026 में एक अभूतपूर्व संकट का सामना करना पड़ सकता है, जब लोकसभा की संरचना में नाटकीय परिवर्तन होगा।। वर्ष 1976 से, लोकसभा की सीटें वर्ष 1971 की जनगणना पर आधारित हैं तथा बाद के वर्षों में जनसंख्या में परिवर्तन को ध्यान में नहीं रखा गया है।

कारण

  • इसका प्राथमिक कारण राज्यों के बीच असमान जनसंख्या वृद्धि है। भारत के सर्वाधिक विकसित और समृद्ध राज्यपरिवार नियोजनमें सफल रहे हैं, जबकि गरीब राज्यों में जनसंख्या का विस्तार जारी है।
  • इस प्रकार, उक्त प्रतिबंध यह सुनिश्चित करने का एक अवसर था कि भारत के सबसे सफल राज्यों को उनकी सफलता के लिये राजनीतिक रूप से दंडित नहीं किया जाएगा।
  • वर्ष 2026 के पश्चात् जब यह प्रावधान समाप्त हो जाएगा, तो भारत के  गरीब और सर्वाधिक जनसंख्या वाले राज्यों की राजनीतिक शक्ति में व्यापक परिवर्तन होगा। यह परिवर्तन निश्चित रूप से उन राज्यों में आक्रोश उत्पन्न कर सकता है, जो राजनीतिक और आर्थिक शक्ति का प्रभाव खो देंगे।
  • उक्त परिवर्तन भारतीय संविधान केलोकतांत्रिक और संघीय सिद्धांतके मध्य संतुलन में एक पुनर्गठन की मांग करता है।

संघ के मूल तत्त्व

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1 कहता है कि भारतराज्यों का एक संघहै। शब्दों का चुनाव जानबूझकर किया गया है, क्योंकि राज्य एक-साथ मिलकर भारतीय संघ (Indian Union) का गठन करते हैं।
  • बेशक अन्य संघों (Federations) के विपरीत भारत के राज्यों में कोई अलगराज्य नागरिकता या राज्य संविधाननहीं है।

बड़े बनाम छोटे राज्य

  • भारतीय संवैधानिक योजना के भीतर राज्य महत्त्वपूर्ण एवं स्व-निहित इकाइयाँ हैं। लोकतंत्र और संघवाद के सिद्धांतों के मध्य अंतर्निहित अंतर्विरोध को देखना चाहिये, जहाँ संघीय इकाइयाँ आकार, जनसंख्या और आर्थिक दृष्टि से असमान हों।
  • यह समझना आसान है कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सभी नागरिक समान हैं। इस प्रकार के शासन में समान प्रतिनिधित्व का अधिकार होता है।
  • किंतु, इसका अभिप्राय यह होगा किराष्ट्रीय स्तर के संवादके दौरान छोटे राज्यों पर बड़े राज्यों के हावी होने की संभावना है।
  • छोटे राज्यों को डर है कि उन्हें आर्थिक रूप से एक छोटा हिस्सा मिलेगा, राष्ट्रीय मुद्दों में बहुत कम हिस्सेदारी होगी तथा वे देश के राजनीतिक शासन में अप्रासंगिक हों सकते हैं।
  • इस भय को शांत करने के उद्देश्य से संघीय लोकतंत्रों नेलोकतांत्रिक और संघीय सिद्धांतोंके मध्य संतुलन सुनिश्चित करने के लिये विभिन्न प्रकार के समझौतों को अपने शासी ढाँचे में शामिल किया है।

संयुक्त राज्य अमेरिका का उदाहरण

  • जब अमेरिकियों ने अपना संविधान अपनाया, तो उन्होंने निम्नलिखित प्रकार से छोटे राज्यों के हितों को ध्यान में रखा-
  1. राज्यों पर राष्ट्रीय शक्तियाँ सीमित होंगी।
  2. राष्ट्रपति का चुनाव चुनावी मतों से होता है, जिसका अर्थ है कि उन्हें कुल राष्ट्रीय आबादी की बजाय राज्यों के को जीतना होगा।
  3. क्षेत्रफल की परवाह किये बिना प्रत्येक राज्य को सीनेट में दो सीटें दी गईं, जिससे छोटे राज्यों को राष्ट्रीय शासन में एक बड़ी भूमिका मिली।
  4. दास-स्वामित्व वाले राज्य, जो दासों को नागरिकता प्रदान नहीं करते थे, उन्हें प्रतिनिधित्व के प्रयोजनों से दासों की गणना करने की अनुमति दी गई थी। प्रत्येक दास को एक व्यक्ति केतीन-पाँचवें हिस्सेके रूप में गिना जाता था।
  • उक्त संरचना आज भी अमेरिकी संविधान का आधार बनी हुई है। अमेरिकियों ने खुद को गुलामी से छुटकारा दिलाया है तथा नाटकीय रूप से संघीय हस्तक्षेप के दायरे में वृद्धि हुई है।
  • इस संघीय ढाँचे नेराष्ट्रीय वोट और राष्ट्रपति चुनावोंके बीचकार्य-कारण संबंधों’ (Causational Links) को अलग कर दिया है। इसी कारण राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश और डोनाल्ड ट्रंप लोकप्रिय वोट हासिल किये बिना चुनाव जीत गए।

भारतीय संरचना

  • अन्य संघों (स्विट्ज़रलैंड और बेल्जियम) ने अन्य कम सुलह के रूपों को अपनाया है। हालाँकि, भारत की अर्द्ध-संघीय संरचना (Quasi-federal Structure) हमेशा से ही विशिष्ट रही है।
  • भारतीय लोकतंत्र के संस्थापकों को पता था कि भारत की विविधता ने संघवाद को अपरिहार्य बना दिया है, लेकिन राज्यों के बीचविखंडन की प्रवृत्तिके डर से, जो कभी एक राजनीतिक इकाई नहीं थी, उन्होंने एक मज़बूत केंद्र की स्थापना की।
  • इतिहास से ज्ञात होता है कि केवल राज्यों को अधिक शक्तियाँ देने के आधार परभारतीय राष्ट्रीय एकताकी आशंकाएँ निराधार साबित हुई हैं।
  • वर्ष 1956 में भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन संघीय सिद्धांतों की एक लोकप्रिय मान्यता थी। इसके बावजूद अलगाववादी प्रवृत्तियों ने जन्म नहीं लिया। तब से, अधिक स्वायत्तता के लिये लोगों की मांगों के प्रत्युत्तर में संघ के भीतर कई नए राज्यों का निर्माण किया गया है।
  • भारत में, ‘संघीय सिद्धांतों और लोकतंत्रके मध्य किसी भी टकराव के अनिवार्य रूप से भाषायी, धार्मिक और सांस्कृतिक निहितार्थ हो सकते हैं, इसके परिणामस्वरूपउप-क्षेत्रीय अंधविरोध’ (Sub-regional Chauvinism.) के नए रूप भी उत्पन्न हो सकते हैं।

संघीय सिद्धांतों और लोकतंत्र के मध्य समन्वय की आवश्यकता

  • हमारे पास इस तरह के एक नए संतुलन के घटक हैं, जिन्हेंभारतीय वास्तविकताओंके अनुरूप बनाने की आवश्यकता है।
  1. सूचियों में निहित केंद्र की तुलना में राज्यों की शक्तियाँ और राज्यों की सीमाओं को बदलने से संबंधित प्रावधानों में वृद्धि की जानी चाहिये, ताकि छोटे राज्यों के इस डर को शांत किया जा सके कि उन पर बड़े राज्यों का प्रभुत्व होगा।
  2. अधिक स्थानीय निर्णय लेने से राष्ट्रीय समृद्धि में वृद्धि होगी। वस्तुतः संविधान के 73वें और 74वें संशोधनों के माध्यम सेस्थानीय शासनके निर्माण का यही लक्ष्य था, जिसका वादा दुर्भाग्य से अधूरा रह गया है।
  3. राज्यसभा की भूमिका और संरचना का विस्तार किया जाना चाहिये। यह छोटे राज्यों कोराष्ट्रीय बहुसंख्यकवादी राजनीतिपर एक प्रकार का ब्रेक लगाने की अनुमति देगा, जो उन पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
  4. संवैधानिक परिवर्तन और राज्यों के बीच वित्तीय पुनर्वितरण में परिवर्तन के लिये सभी या लगभग सभी राज्यों की सहमति की आवश्यकता है (जी.एस.टी. इस संबंध में एक चेतावनी के रूप में कार्य करता है)
  5. भाषा और धर्म से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन नहीं होना चाहिये।
  6. बड़े राज्यों को छोटी-छोटी इकाइयों में बाँटने पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिये, जो अपने आप राष्ट्रीय संवाद पर हावी नहीं होंगे।

भावी राह

  • बेशक, भारत की एकता इस चर्चा का मूल आधार है; लेकिन यह एकता अपने अस्तित्व के लिये बहुत ज़्यादा मज़बूत केंद्र पर निर्भर नहीं है।
  • स्नेह और देश भक्तिके राष्ट्रीय बंधन शक्तियों के हस्तांतरण से नहीं टूटेंगे लेकिन देश के एक हिस्से के दूसरे हिस्से पर अधिकार होने पर, संबंध कम-से-कम गंभीर रूप से तनावपूर्ण तो हो ही सकते हैं।

निष्कर्ष

सब कुछ वैसा ही रहने के लिये सब कुछ बदलना चाहिये।इसमें यह प्रश्न शामिल है कि आने वाले वर्षों मेंलोकतंत्र और संघवादके प्रतिस्पर्द्धी दावों को कैसे संतुलित किया जा सकता है।

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