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चुनाव सुधार को लेकर अनिच्छुक राजनीतिक दल

(प्रारंभिक परीक्षा :  भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान, राजनीतिक प्रणाली, लोकनीति, अधिकारों संबंधी मुद्दे इत्यादि)
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 - विभिन्न संवैधानिक निकायों की शक्तियाँ, कार्य और उत्तरदायित्व, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ, न्यायपालिका के कार्य।)

संदर्भ

न्यायमूर्ति रोहिंटन एफ. नरीमन की अध्यक्षता में उच्चतम न्यायालय की खंडपीठ ने आठ राजनीतिक दलों पर न्यायालय के निर्देशों की अवमानना करने के लिये ज़ुर्माना लगाया है। राजनीतिक दलों पर आरोप था कि उन्होंने अपने उम्मीदवारों के आपराधिक इतिहास के बारे में नागरिकों को सूचित नहीं किया था।

राजनीति का अपराधीकरण

  • वर्ष 2004 में 24 प्रतिशत सांसदों के विरुद्ध आपराधिक मामले लंबित थे। वर्ष 2019 के आम चुनावों के पश्चात् यह आँकड़ा अप्रत्याशित रूप से बढ़कर 43 प्रतिशत हो गया।
  • लोकतंत्र के लिये घातक ‘राजनीति के अपराधीकरण’ की बढ़ती प्रवृत्ति को संबोधित करने के उद्देश्य से उच्चतम न्यायालय ने राजनीतिक दलों को विभिन्न निर्देश जारी किये हैं।
  • न्यायालय ने राजनीतिक दलों को उनके उम्मीदवारों की ‘आपराधिक पृष्ठभूमि’ के बारे में नागरिकों को सूचित करने के लिये निर्देशित किया है।
  • न्यायालय ने उक्त निर्देश इसलिये जारी किया था कि राजनीतिक दल नागरिकों को सूचित करें कि टिकट वितरण के समय बिना आपराधिक छवि वाले लोगों पर ऐसे लोगों को प्राथमिकता क्यूँ दी जा रही है।
  • यह अनुमान लगाते हुए कि राजनीतिक दल मानदंड के रूप में ‘जीतने की क्षमता’ (Winnability) को संदर्भित करेंगे, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि उम्मीदवारों के चयन में संबंधित उम्मीदवार की योग्यता, उपलब्धियाँ तथा ‘मेरिट’ को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
  • हालाँकि न्यायालय के स्पष्ट दिशा-निर्देशों के बावजूद राजनीतिक दलों द्वारा इनका अनुपालन नहीं किया जा रहा है।

‘जानने के अधिकार’ की अवमानना

  • यह पहला उदाहरण नहीं है, जब राजनीतिक दलों ने नागरिकों के ‘सूचना के अधिकार’ की अवमानना की हो।
  • ‘भारत संघ बनाम ए.डी.आर. वाद, 2002’ के निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने’ सभी उम्मीदवारों को उनकी शैक्षिक, वित्तीय और आपराधिक पृष्ठभूमि घोषित करने का निर्देश दिया था।
  • राजनीतिक दलों ने एकमत से ‘लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951’ में संशोधन करके उक्त प्रकटीकरण संबंधी आवश्यकताओं को समाप्त कर दिया, हालाँकि, न्यायालय ने इस संशोधन को रद्द कर दिया था।

केंदीय सूचना आयोग के निर्देश

  • वर्ष 2013 में केंद्रीय सूचना आयोग (CIC) ने सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के तहत छह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को ‘सार्वजनिक प्राधिकरण’ घोषित किया था।
  • इसके उपरांत राजनीतिक पार्टियों को उक्त कानून के तहत एक ‘जन सूचना अधिकारी’ नियुक्त करने तथा स्वयं को इसके प्रावधानों के अंतर्गत लाने की आवश्यकता थी।   
  • राजनीतिक दल अपने कामकाज संबंधी कोई जानकारी नागरिकों के समक्ष प्रस्तुत नहीं करना चाहते थे। अतः स्वयं को आर.टी.आई. के दायरे से बाहर रखने के लिये उन्होंने संसद में एक संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया था।
  • हालाँकि, राजनीतिक दलों द्वारा नागरिकों के व्यापक विरोध के कारण उक्त संशोधनों को हटा दिया गया, लेकिन इसके साथ ही उन्होंने ‘दृढ़ता से’ आयोग के आदेश के अनुपालन से भी इनकार कर दिया।

चुनावी बॉण्ड योजना

  • वर्तमान सरकार ने वर्ष 2018 में राजनीतिक दलों द्वारा धन जुटाने के उद्देश्य से ‘चुनावी बॉण्ड योजना’ की शुरुआत की थी। इस योजना ने भारतीय एवं विदेशी स्रोतों से राजनीतिक दलों के लिये ‘असीमित गुमनाम फंडिग’ के रास्ते खोल दिये।
  • पारंपरिक रूप से भारतीय राजनीतिक व्यवस्था चुनावी वित्तपोषण में पारदर्शिता के प्रति ‘असहिष्णु’ रही है।
  • चुनावी बॉण्ड ने नागरिकों के ‘जानने के अधिकार’ को और कम करते हुए चुनावी राजनीति में ‘धन की भूमिका’ को मज़बूत किया है।   
  • यह योजना इस प्रकार तैयार की गई है कि नागरिकों और विपक्षी दलों के पास यह जानने का कोई रास्ता नहीं है कि कोई व्यक्ति किस पार्टी को पैसे दे रहा है। हालाँकि, सत्ताधारी दल के लिये इस प्रकार के आँकड़ों तक पहुँचना मुश्किल नहीं है।
  • राजनीति में सूचनाओं की विषमता सत्ता पक्ष और विपक्षी दलों में व्यापक अंतर उत्पन्न करती है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि चुनावी बॉण्ड के माध्यम से दान का बड़ा हिस्सा सत्ताधारी दल के पास क्यूँ जा रहा है।
  • चुनावी बॉण्ड पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह कई मुद्दों को जन्म देता है, जिससे निर्वाचन प्रक्रिया की ‘पवित्रता’ प्रभावित होती है। दुर्भाग्य से, इस मामले पर ध्यान नहीं दिया गया और इससे संबंधित याचिका चार वर्षों से लंबित है।

जानने का अधिकार

  • राजनीतिक दल हमारे लोकतंत्र के केंद्र में हैं। वे ही ऐसी सरकारों का गठन करती हैं, जो नीतियाँ बनाती हैं, जिनका सामान्य जन-जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
  • विधायिका में निर्वाचित प्रतिनिधि कानून का निर्माण करते हैं और इन्ही कानूनों से आम जनमानस प्रशासित होता है। 
  • अतः नागरिकों को यह ‘जानने का अधिकार’ है कि- 
  1. राजनीतिक दल कैसे कार्य कर रहे हैं;
  2. उन्हें कौन वित्तपोषित कर रहा है;
  3. नीतिगत निर्णय लेते समय या विधायिका में विधेयकों का समर्थन या विरोध करते समय या चुनावों में उम्मीदवारों का चयन करते समय वे किन सिद्धांतों या योग्यताओं को ध्यान में रखते हैं।

न्यायालय की अधिक सक्रियता की आवश्यकता

  • न्यायालय ने बार-बार सांसदों से राजनीतिक दलों की अधिक पारदर्शिता सुनिश्चित करने तथा राजनीति में आपराधिक पृष्टभूमि वाले व्यक्तियों की भागीदारी को प्रतिबंधित करने के लिये कदम उठाने की अपील की है।
  • यह स्पष्ट है कि ‘राजनीतिक दल एवं विधायिका’ नागरिकों के प्रति जवाबदेहिता सुनिश्चित करने के लिये इच्छुक नहीं हैं।
  • अतः जनहित के मुद्दों को संबोधित करने के लिये न्यायपालिका को और अधिक सक्रिय होने की तत्काल आवश्यकता है।
  • साथ ही, उच्चतम न्यायालय को चुनावी बॉण्ड और राजनीतिक दलों द्वारा सी.आई.सी. के आदेश के अनुपालन के संबंध में तत्काल सुनवाई करने की भी आवश्यकता है।
  • अंततः न्यायालय को निम्नलिखित दो अन्य मुद्दों पर भी विचार करने की आवश्यकता है –
  1. क्या उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि को सार्वजनिक करने के संबंध में उसके निर्देशों के उल्लंघन का निर्धारण चुनाव पश्चात् करना उचित है?
  2. क्या प्रत्येक वर्ष करोड़ रुपए आय की घोषणा करने वाली पार्टियों पर कुछ लाख रुपए का ज़ुर्माने आरोपित करने से निर्वाचन प्रणाली स्वच्छ हो जाएगी? 
  • न्यायपालिका को आम चुनावों से पूर्व अपने निर्देशों के अनुपालनार्थ एक तंत्र स्थापित करने पर विचार करना चाहिये, जो इसके आदेशों का उल्लंघन करने वाले उम्मीदवारों को प्रतिबंधित कर सके।

निष्कर्ष

चुनाव सुधारों के संबंध में न्यायालय को ‘लोकतंत्र का निष्क्रिय दर्शक’ होने की बजाय सक्रिय होकर उचित कदम उठाने चाहिये।

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