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बैंको का निजीकरण: कितना व्यावहारिक

(मुख्य परीक्षा:भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से संबंधित विषय; समावेशी विकास तथा इससे उत्पन्न विषय, सरकारी बजट)

संदर्भ

बजट 2021-22 में केंद्र सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) के निजीकरण की घोषणा की है। सरकार की इस पहल को बैंकिंग क्षेत्र की दक्षता में सुधार के रूप में देखा जा रहा है। हालाँकि, अभी यह स्पष्ट नहीं है कि निजी बैंक किस प्रकार बैंकिंग क्षेत्र की दक्षता में वृद्धि करेंगे और संबंधित जोखिमों को कम करने में सहायक होंगे।

क्यों महत्त्वपूर्ण हैं सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक?

  • भारत में वर्ष 1969 में 14 बैंकों तथा वर्ष 1980 में 6 अन्य बैंको का राष्ट्रीयकरण किया गया था। राष्ट्रीयकरण से पूर्व, भारतीय स्टेट बैंक को छोड़कर अधिकांश बैंक निजी स्वामित्व में थे, उस समय इन्होंने बड़े पैमाने पर धनी और शक्तिशाली वर्ग को लाभान्वित किया।
  • बैंको के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंकिंग क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण बदलाव आए, जैसे-
    • इसके माध्यम से व्यापक स्तर पर रोज़गार सृजन हुआ।
    • कृषि क्षेत्र को प्राप्त होने वाले ऋण में वृद्धि हुई, जिससे ग्रामीण वर्ग विशेष रूप से लाभान्वित हुआ।
    • रोज़गार सृजन संबंधी गतिविधियों तथा गरीबी उन्मूलन से जुड़ी योजनाओं के लिये वित्त की सहज उपलब्धता सुनिश्चित हुई।
    • ग्रामीण विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा, निर्यात, आधारभूत संरचना, महिला सशक्तीकरण, सूक्ष्म एवं लघु उद्योग जैसे उपेक्षित क्षेत्र बैंकों के लिये प्राथमिकता वाले क्षेत्र बन गए, फलस्वरूप सुगमतापूर्वक ऋण उपलब्धत होने लगे।
    • वर्ष 1969 में ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 1,833 बैंक शाखाएँ थीं, जो वर्ष 1995 तक बढ़कर 33,004 हो गईं। ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सेवाओं के विस्तार से ऋण के लिये ग्रामीणों की साहूकारों पर निर्भरता कम हुई।
    • बैंको के राष्ट्रीयकरण से बैंक कर्मचारियों की कार्य दशाओं में सुधार हुआ और उन्हें बेहतर पारिश्रमिक तथा रोज़गार की सुरक्षा प्राप्त हुई।
    • सार्वजनिक बैंक भारतीय अर्थव्यवस्था के संवृद्धि एवं विकास के वाहक हैं। ये लोगों की बचत और विश्वास के पात्र हैं। इन बैंको के माध्यम से हरित तथा नीली क्रांति और डेयरी उद्योग को बढ़ावा मिला है। साथ ही, इन्होंने अवसंरचनात्मक विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

निजीकरण से संबंधित चिंताएँ

  • वर्तमान में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक उल्लेखनीय परिचालन लाभ अर्जित कर रहे हैं। वर्ष 2019-20 में यह लाभ 1,74,390 करोड़ रुपए और वर्ष 2018-19 में 1,49,603 करोड़ रुपए था। ऐसे में, सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को सुदृढ़ बनाने की बजाय उनका निजीकरण करना बेहतर विकल्प नहीं है।
  • व्यापक स्तर पर विस्तारित बैंक शाखाओं के नेटवर्क, अवसंरचना तथा परिसंपत्तियों का निजीकरण एक तर्कहीन निर्णय सिद्ध हो सकता है।
  • निजीकरण आम आदमी को सुविधाजनक और किफायती बैंकिंग सेवाओं से वंचित कर सकता है। इसके अतिरिक्त, इससे बैंकिंग क्षेत्र में एकाधिकार व गुटबंदी संबंधी जोखिम भी उत्पन्न हो सकता है।
  • विश्व भर में अनेक निजी बैंक बुरी तरह से विफल हुए हैं, जिससे यह धारणा कमज़ोर हुई है कि केवल निजी बैंक ही कुशल होते हैं।
  • इसी प्रकार, आँकड़ों के आधार पर यह देखा गया है कि निजी कॉर्पोरेट संस्थाओं का एन.पी.ए. (Non Performing Assets) सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की तुलना में अधिक है, ऐसे में निजीकरण कितना सफल होगा इस पर संशय बना हुआ है।

आगे की राह

  • दबावग्रस्त परिसंपत्तियों (Stressed Assets) के बढ़ते स्तर के लिये केवल सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को दोष देना अनुचित है। इसके लिये आवश्यक है कि वृहद कॉर्पोरेट से संबंधित दबावग्रस्त परिसंपत्तियों को पुनर्प्राप्त करने के लिये कठोर उपायों किये जाने चाहिये।
  • बैंकिंग क्षेत्र में सुधार के लिये प्रभावी ऋण वसूली संबंधी कानून बनाए जाएँ। साथ ही, विलफुल डिफॉल्टर्स के विरुद्ध आपराधिक कार्रवाई जैसे उपाय भी किये जाने चाहिये। हालाँकि, ऐसे कानून पहले से विद्यमान हैं, किंतु अभी तक इनका सख्त़ी से अनुपालन नहीं किया गया है।
  • बड़े कॉर्पोरेट उधारकर्ताओं द्वारा विलफुल डिफॉल्टर के रूप में और बैंक द्वारा ऋण संपत्ति के मूल्य में संभावित कटौती (Haircuts) करके बैंको के एन.पी.ए. को समाप्त कर देने (Write-offs) से बैंकों की बैंलेंस शीट पर दबाव बढ़ता है और उनकी लाभप्रदता प्रभावित होती है। बैंक ऋणों पर विलफुल डिफॉल्ट को ‘आपराधिक कृत्य’ घोषित करने के लिये एक समुचित वैधानिक ढाँचे की तत्काल आवश्यकता है।
  • साथ ही, बैंकिंग क्षेत्र में जवाबदेहिता सुनिश्चित करने के लिये सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के शीर्ष अधिकारियों को शामिल करते हुए एक जाँच प्रणाली का गठन भी इस दिशा में सहायक हो सिद्ध हो सकता है।
  • सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा निजी क्षेत्र से पूँजी जुटाना एक बेहतर विकल्प हो सकता है, इससे सरकार पर पड़ने वाले वित्तीय बोझ को भी कम किया जा सकेगा।
  • इसके अतिरिक्त, ये बैंक अपनी ऋण संपत्तियों अथवा लोन पोर्टफोलियो को बाज़ार में बेचकर आवश्यक पूँजी जुटा सकते हैं। कम पूँजी वाले बैंकों पर त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (PCA) के माध्यम से सख्ती की जा सकती है, ताकि वे अधिक मात्र में उधार न दे सकें।

निष्कर्ष

बैंकिंग क्षेत्र निर्विवाद रूप से अर्थव्यवस्था को गति देने में निर्णायक भूमिका निभाता है। ऐसे में, आवश्यक है कि बैंकिंग प्रणाली में विद्यमान समस्याओं का त्वरित सामाधान खोजा जाए, किंतु निजीकरण बैंकिंग क्षेत्र की समस्याओं का उपयुक्त समाधान नहीं है। इसके लिये सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के वर्तमान ढाँचे में ही आवश्यक सुधार किये जाने की आवश्यकता है।

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