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न्यायिक मामलों के निपटान में देरी की समस्या

(प्रारंभिक परीक्षा : न्यायपालिका से संबंधित एवं राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाओं से संबंधित प्रश्न)
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 - न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्य, विभिन्न संवैधानिक पदों पर नियुक्ति से संबंधित प्रश्न)

संदर्भ 

कर्नाटक बार काउंसिल द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में, भारत के मुख्य न्यायाधीश ने न्यायालयों को भारतीय नागरिकों की ज़रूरतों के प्रति उत्तरदायी बनाने के लिये उनकाभारतीयकरणकरने का अनुरोध किया है।

प्रमुख मुद्दे

  • वर्तमान में, स्पष्ट लक्ष्य होने के बावजूद देश की न्यायपालिका एक अदृश्य संकट की तरफ़ बढ़ रही है और इस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। ‘न्यायिक वितरण प्रणाली’ में न्यायालयों में मामलों का अधिक संख्या में लंबित होना एक चुनौती बना हुआ है।
  • भारत में 40 प्रतिशत से अधिक मामलों का निपटान तीन वर्ष के पश्चात् होता है, जबकि कई अन्य देशों में यह आँकड़ा 1 प्रतिशत से भी कम है। यदि न्यायालय मामलों के निपटान पर दृढ़ता और शीघ्रता से कार्य नहीं करता है तो इन आँकड़ों का प्रतिशत बढ़ता रहेगा। वस्तुतः अमीर, ताकतवर और गलत कार्य करने वाले लोग अपने मामलों में अपनी इच्छानुसार तेज़ी तथा देरी करने में सक्षम होते हैं।
  • भ्रष्टाचार तथा अपराध में वृद्धिसुस्त न्याय वितरण प्रणालीका प्रत्यक्ष परिणाम है, जिसका प्रभाव गरीब और हाशिये पर रह रहे लोगों पड़ रहा है। इनके लिये न्यायिक प्रक्रिया ही एक सजा बन जाती है। आँकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 70 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैं, जिनमें से ज़्यादातर कैदी आर्थिक रूप से पिछड़े या गरीब हैं।

मुद्दों का समाधान

  • इन मुद्दों से निपटने के लिये दो उपायों को लागू किया जा सकता है, प्रथम रिक्तियों को भरना तथा दूसरा तकनीक का प्रयोग।
  • स्वीकृत न्यायिक पदों को भरकर लंबित मामलों को कम किया जा सकता है। विश्लेषण से पता चलता है कि वर्ष 2006 और वर्ष 2019 के मध्य लंबित मामलों में औसत वृद्धि प्रति वर्ष 2 प्रतिशत से कम थी, जबकि स्वीकृत न्यायिक पदों में औसत रिक्ति लगभग 21 प्रतिशत थी। 
  • पूर्व मुख्य न्यायाधीश टी.एस.ठाकुर ने भी न्यायाधीशों की रिक्तियों पर चिंता व्यक्त करते हुए उनकी संख्या को 70,000 करने या वर्तमान न्यायाधीशों की संख्या को दोगुना करने की बात कही है।
  • हालाँकि, ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है। इसमें लगभग 20 प्रतिशत न्यायाधीशों को जोड़ने की आवश्यकता है, जो कि स्वीकृत संख्या के अनुरूप है। इन आँकड़ो का समर्थन न्यायमूर्ति बी.एन.श्रीकृष्ण, न्यायमूर्ति आर.सी.चव्हाण और 100 आई.आई.टी. के पूर्व छात्रों ने किया है।
  • न्यायाधीशों के चयन की ज़िम्मेदारी काफी हद तक न्यायपालिका की ही होती है। वहीं अधीनस्थ न्यायपालिका में नियुक्तियों की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों और उनसे संबंधित उच्च न्यायालयों की होती है।
  • साथ ही, रिक्तियों में शून्यता को सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी भारत के मुख्य न्यायाधीश और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के पास होनी चाहिये और उन्हें इसके लिये जवाबदेह बनाया जाना चाहिये। सभी रिक्तियों को भरने के लिये लगभग 5,000 कोर्टरूम की आवश्यकता हो सकती है।
  • दूसरे उपाय के रूप में ‘तकनीक के प्रयोग’ से कार्य में सुधार लाया जा सकता है। गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय की -समिति वर्ष 2005 से अस्तित्व में है। ई-समिति द्वारा न्यायिक कार्य में सुधार लाने के लिये तीन सिफ़ारिशें की गई थीं, जिनका पालन नहीं किया जा रहा है।
  • पहला, कंप्यूटर एल्गोरिदम को न्यायाधीशों को दिये गए केवल 5 प्रतिशत ओवरराइड के साथ केस लिस्टिंग, मामलों का आवंटन और स्थगन पर फ़ैसला करना चाहिये।
  • समिति ने कहा कि सभी तर्कसंगत कारणों एवं सीमाओं को स्थगन पर रखा जाना चाहिये, केस लिस्टिंग मेंफर्स्ट इन-फर्स्ट आउटको मुख्य आधार बनाया जाना चाहिये और मामले के आवंटन के समय तार्किक मानदंडों को ध्यान में रखा जाना चाहिये।
  • यह प्रयास लोगों की मनमानी को कम करने और शक्तिशाली लोगों को मिलने वाले अनुचित लाभ की दिशा में एक बड़ा कदम होगा।
  • दूसरा, न्यायालयों को-फाइलिंगपर ध्यान केंद्रित करना चाहिये। ई-समिति ने एक विस्तृत एस..पी. बनाकर बताया कि कैसे याचिकाएँ एवं हलफ़नामें दायर किये जा सकते हैं तथा फीस का भुगतान बिना वकीलों या वादियों के अदालतों या कागज का प्रयोग किये बिना कैसे इलेक्ट्रॉनिक रूप से किया जा सकता है।
  • इसे पूरी गंभीरता से लागू किया जाना चाहिये, जिससे प्रतिवर्ष लगभग तीन लाख पेड़ों को भी कटने से बचाया जा सकता है।
  • तीसरी सिफ़ारिश में ‘आभासी सुनवाई (Virtual Hearings) पर ध्यान केंद्रित किया गया है। कोविड महामारी ने न्यायालयों को आभासी सुनवाई को अपनाने के लिये प्रेरित किया है।
  • करोना महामारी से पूर्व सभी न्यायालयों में लंबित मामलों में वृद्धि एक वर्ष में लगभग 5.7 लाख थी, जबकि अकेले वर्ष 2020 में यह बढ़कर आश्चर्यजनक रूप से 51 लाख हो गई है।
  • ऐसा प्रतीत होता है कि यदिहाइब्रिड वर्चुअल हियरिंग मॉडलको नहीं अपनाया गया, तो वर्ष 2022 में मामलों का बैकलॉग 5 करोड़ को पार कर सकता है, जिस कारण न्याय प्रणाली हमेशा के लिये चरमरा जाएगी।

भावी राह

  • उपरोक्त बिंदुओं में वर्णित सभी सिफ़ारिशें उच्चतम न्यायालय के विभिन्न निर्णयों और -समिति की सिफ़ारिशों पर आधारित हैं। इन सिफ़ारिशों के लिये कानूनों में किसी भी प्रकार के बदलाव की आवश्यकता नहीं होगी।
  • यदि -समिति और उच्चतम न्यायालय द्वारा की गई सिफ़ारिशों को पूर्ण किया जाता है, तो भारत की न्यायिक प्रणाली विश्व के 10 शीर्षतम देशों में शामिल हो सकती है।
  • ये परिवर्तन भारत को अंतर्राष्ट्रीय निवेश के लिये पसंदीदा राष्ट्र बना देगें और नागरिकों के त्वरित न्याय के मौलिक अधिकार को भी पूरा करेगें।

    निष्कर्ष

    देश की सभी न्यायालयों को तुरंत ‘हाइब्रिड वर्चुअल मोड’ पर स्विच करना चाहिये और मामलों का निपटान शुरू करना चाहिये। कोविड-19 संकट के समाप्त होने के बाद भी हाइब्रिड वर्चुअल कोर्ट जारी रखना फायदेमंद होगा। इससे वादियों के लिये न्याय तक पहुँच आसान होगी और लागत में कमी आएगी।

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