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एकल कृषि पैटर्न से उत्पन्न समस्याएँ

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3 : देश के विभिन्न भागों में फसलों का पैटर्न, सिंचाई के विभिन्न प्रकार एवं सिंचाई प्रणाली)

संदर्भ

वर्तमान में चल रहे किसान आंदोलन के बीच धान-गेहूँ के एकल कृषि पैटर्न पर सवाल उठाए जा रहे हैं। यह समस्या उत्तरी भारत, विशेष रूप से पंजाब और हरियाणा में अधिक है। अतः लगातार केवल धान-गेहूँ की खेती से उत्पन्न समस्याओं और इसके लिये उपलब्ध वैकल्पिक फसल पैटर्न व अन्य व्यवस्थाओं के बारे में विश्लेषण आवश्यक है।

एकल कृषि पैटर्न (Monoculture) के प्रचलन का कारण

  • हरित क्रांति के दौरान उत्तर भारत, विशेषकर पंजाब और हरियाणा में किसानों का ध्यान धान और गेहूँ की खेती पर ही केंद्रित हो गया क्योंकि हरित क्रांति का सर्वाधिक सकारात्मक प्रभाव धान और गेहूँ के उत्पादन पर ही पड़ा था।
  • परिणामस्वरुप चना, मसूर, सरसों और सूरजमुखी की जगह गेहूँ की खेती ने ले ली जबकि कपास, मक्का, मूंगफली और गन्ने के क्षेत्र को धान की बुवाई ने प्रतिस्थापित कर दिया।
  • हालाँकि, कुछ क्षेत्रों में सब्जियों (विशेष रूप से आलू और मटर) और फलों (किन्नू) की कृषि की जाती है, परंतु इसे फसल विविधीकरण नहीं कहा जा सकता है।

एकल कृषि पैटर्न से समस्या

  • एक ही कृषि भूमि पर साल-दर-साल एक ही फसल उगाने से रोग और कीट के हमलों की सम्भावना बढ़ जाती है। फसलों की आनुवंशिक विविधता जितनी अधिक होती है, कीटों और रोगाणुओं के प्रति पौधों की प्रतिरोधकता उतनी ही अधिक होती है।
  • साथ ही, दालों और फलियों के विपरीत गेहूँ और धान की खेती वातावरण से नाइट्रोजन का स्थिरीकरण नहीं कर सकती।
  • गेहूँ और धान की निरंतर कृषि फसल चक्रीकरण को बाधित करती है, जिससे मृदा में पोषक तत्त्वों की कमी के का रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर निर्भरता बढ़ जाती है।
  • हालाँकि, पंजाब में गेहूँ का उत्पादन मुख्य मुद्दा नहीं है क्योकि वहाँ इसका उत्पादन स्वाभाविक रूप से मृदा और कृषि-जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल है। साथ ही, पंजाब में इसकी खेती राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी वांछनीय है। अत: पंजाब की वास्तविक समस्या धान की खेती को लेकर है।
  • पंजाब के भूजल स्तर में औसतन 0.5 मीटर प्रति वर्ष की गिरावट आई है। इसका प्रमुख कारण राज्य में धान की खेती और सिंचाई के लिये विद्युत की मुफ्त आपूर्ति है।
  • धान को अधिक जल की आवश्यकता होती है। आमतौर पर गेहूँ की सिंचाई पाँच बार की जाती हैं जबकि धान की सिंचाई लगभग 30 बार की जाती है।
  • धान ग्रीष्म ऋतु की फसल है, जिसे पर्याप्त जल की आवश्यकता होती है और जो उच्च तापमान के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील नहीं है। अत: इसे पूर्वी, मध्य और दक्षिणी भारत में उगाया जाता है, जहाँ पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है।

उपाय

  • इस सम्बंध में पंजाब भूमिगत जल संरक्षण अधिनियम, 2009 को लागू करना एक महत्त्वपूर्ण कदम है, जो क्रमश: 15 मई और 15 जून से पहले धान की नर्सरी/बुवाई और रोपाई पर रोक लगाता है।
  • हालाँकि, इससे धान की पूसा-44 जैसी किस्मों से सम्बंधित समस्या पैदा हो गई। चूँकि पूसा-44 लम्बी अवधि की फसल है अत: उसकी कटाई और गेहूँ की बुवाई के मध्य कम समय मिलने के कारण धान के पुआल (Paddy Stubble) को जलाने की समस्या पैदा हो गई। ध्यातव्य है कि वर्ष 2012 में पंजाब के गैर-बासमती धान के क्षेत्र का लगभग 39% हिस्सा पूसा-44 की बुवाई के अंतर्गत ही था।
  • दुसरे शब्दों में कहें तो पंजाब में भूजल संरक्षण दिल्ली में वायु प्रदूषण का एक कारण बन गया।
  • इस समस्या के निदान के लिये पी.आर.-126 जैसी कम अवधि और अधिक उत्पादन वाली धान की किस्मों का विकास एक महत्त्वपूर्ण कदम है। ऐसी ही अन्य किस्मों का भी विकास किया जाना चाहिये।
  • साथ ही, यदि धान की रोपाई की जगह उसकी बुवाई को प्राथमिकता दी जाए तो सिंचाई की संख्या को 3 से 4 तक कम किया जा सकता है।
  • इसके अतिरिक्त, सुनिश्चित सरकारी मूल्य एवं प्रति एकड़ प्रोत्साहन द्वारा कपास, मक्का, मूंगफली एवं खरीफ दालों (अरहर, मूंग और उड़द) के साथ-साथ चना, सरसों या सूरजमुखी के उत्पादन को बढ़ावा देना चाहिये।
  • फसल विविधीकरण और फसल चक्र को अपनाकर भू-जल स्तर में गिरावट को रोका जा सकता है। साथ ही, कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग को कम करके मृदा, जल और वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के साथ-साथ और खाद्य जाल में रसायनों के प्रवेश को कम किया जा सकता है।

प्रिलिम्स फैक्ट्स :

  • फसल चक्र-किसी निश्चित क्षेत्रफल पर निश्चित अवधि के लिये भूमि की उर्वरता को बनाये रखने के उद्देश्य से फसलों को अदल-बदल कर उगाने की प्रक्रिया को फसल चक्र कहा जाता है ।
  • कल्याण सोना और सोनालिका हरित क्रांति के दौरान विकसित की गई गेहूँ की किस्में हैं।
  • पूसा-44 अधिक पैदावार के साथ-साथ लम्बी अवधि और अधिक पानी के खपत वाली धान की किस्म है।
  • पी.आर.-106, पी.आर.-121 व पी.आर.-126 अपेक्षाकृत कम अवधि और अधिक पैदावार वाली धान की ही अन्य किस्में हैं।
  • गेहूँ शीतकालीन फसल है जिसे केवल उन क्षेत्रों में उगाया जा सकता है, जहाँ दिन का तापमान मार्च महीने तक 30 0C से कम होता है। इसमें विशेष रूप से विंध्य के उत्तर का क्षेत्र आता है।
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